तेल का खेल (कहानी संग्रह ‘बिजूका बाबू’ की पाँचवीं कहानी)

 



श्री बालकवि बैरागी के कहानी संग्रह
‘बिजूका बाबू’ की पाँचवीं कहानी

यह संग्रह, इन कहानियों के पात्रों को
समर्पित किया गया है।




तेल का खेल
(हरियाणा की एक लोक-कथा पर आधरित )

एक गाँव था। उसमें रहता था एक अधेड़ ‘मीरासी’। घर में पूरे पाँच बच्चे। घर के पिछवाड़ेवाले बाड़े में बँधी थी एक घोड़ी। घोड़ी का ध्यान रखती थी मीरासी की घरवाली। घोड़ी और घरवाली के बीच लगी हुई थी होड़। होड़ थी ‘ग्याभिन’ रहने की। बाड़े में घोड़ी ग्याभिन और घर में घरवाली ग्याभिन। यह बात अलग है कि मीरासन छठी बार ग्याभिन थी और घोड़ी दूसरी बार। मीरासी का नाम तो था गुलाब, पर वह जाना जाता था ‘गुल्या’ के नाम से। गाँववालों ने मीरासन का नाम अपने आप रख लिया था-‘गुल्ली’। सब उसे ‘गुल्ली भाभी’ ही कहते थे। मीरासी के पाँचों बच्चों के नामों से आपको क्या लेना-देना! अपनी तरफ से कुछ भी रख लो।

अब ये ‘गाँव’ क्या होता है और ‘मीरासी’ कौन लोग होते हैं-यह किसी जूने-पुराने आदमी से पूछो। शहरवालों ने न तो देखे गाँव और न देखे मीरासी। वे क्या जानें कि ‘मीरासी’ लोग क्या करते हैं, कैसे होते हैं, किस तरह खाते-कमाते हैं। खाली लिखने-पढ़ने से ही देश और देशी नहीं जाने जाते। उन्हें पहचानना तो बहुत दूर की बात है। खैर।

अपने इस गुल्या मीरासी के मुँह में थे पूरे बत्तीस दाँत। कहते हैं कि बत्तीस दाँतोंवाला जो भी बोलता है, वही सच हो जाता है। रहा सवाल मीरासी की उम्र का, सो आप अन्दाज लगा लें कि पाँच बच्चों की माँ और छठी बार ग्याभिन लुगाई की उम्र कितनी होगी। इसका आँकड़ा समझ में आ जाए तो उसमें पाँच और जोड़ लो। यह हुई मीरासी की उम्र।

अब एक चक्कर और है। वह है ‘ग्याभिन’ लफ्ज का। बाल बच्चा जिस लुगाई के पेट में हो और होने वाला हो उसे ‘ग्याभिन’ कहते हैं। इस हिसाब से गुल्या की गुल्ली और घोड़ी, दोनों को बाल-बच्चा होने वाला था।

‘गुल्या’ के घर में दो ‘जापा’ होने वाले थे, एक गुल्ली के और दूसरा घोड़ी के। अब यह ‘जापा’ भी आपको कोई दाई-माई-नरस बाई समझा देगी। ‘जापा’ यानी बाल बच्चा हो जाना। चलिए, बात आगे चले।

बात माँडकर कहने का घाटा यह हो रहा है कि अभी तक गुल्या की घोड़ी का नाम ही सामने नहीं आया। तो साहब! गुल्या की घोड़ी का नाम था ‘तूती‘। तूती जब-तब तबीयत से हिनहिनाती थी। पूरा गाँव सुन लेता था कि गुल्या की तूती बोल रही है। 

अपना गुजारा चलाने के लिए गुल्या आस-पास के गाँव-गोठड़े करता। अब यह ‘गाँव गोठड़े करना’ क्या होता है? कौन समझाए? कैसे समझाए? गाँव-गाँव जाना और गोठ-गोठड़े, चीज-वस्तु बेचना, अदला-बदली करना और घर-गिरस्ती चलाना कहलाता है गाँव-गोठड़े करना। सो गुल्या जब भी गाँव-गोठड़े जाता तो उसके पास बेचने या लेने-देने की कोई चीज या वस्तु तो होती नहीं थी, अपना खानदानी काम ‘मसखरी’ करता और गाँव-ठाण को खुश करके जो भी धान-चून पा जाता उसी से अपना गुजर-बसर करता। धान-चून कहते हैं अनाज-आटे को।

उन दिनों गुल्या परेशान था। माथे पर दो जापे और तूती समेत आठ जीवों को पालना और नौवें के आने की सूचना। यह तो भला हो तूती का, जो उसने पहले ही जापे में ‘खूबसूरत’ बछेड़ा दे दिया था। उसे बेचकर गुल्या ने बीते साल छह महीने ठीक-ठाक़ निकाल लिये थे। पर इस बार गुल्या थोड़ा ज्यादा ही तकलीफ में था। रास्ता एक ही था कि अपना सारंगी-चिकारा लेकर गाँव-गोठड़े करने निकल जाए। लो, फिर यह ‘सारंगी-चिकारा’ बीच में खड़ा हो गया! ‘सारंगी’ सभी जानते हैं। अपने देश का बहुत पुराना तारदार बाजा, जो घोड़े की पूँछ के बालों से बनाए गज से बजाई जाती है। ‘चिकारा’ होता है सारंगी का बच्चा, यानी कच्ची-पक्की सारंगी। मतलब समझ में आ गया होगा कि गुल्या गाने बजानेवाला मसखरा मीरासी था। कुल मिलाकर मसखरे ही होते हैं मीरासी। लेकिन गाँव-देहात में कलाकार तक कहला सकते हैं। 

सो, ज्यों ही गुल्या ने गाँव-गोठड़े के लिए तूती की पीठ पर जीन कसने को तैयारी करी कि गुल्ली सामने खड़ी हो गई। गुल्या को समझाते हुए बोली, “मेरे धणी! अपनी तूती ग्याभिन है। ग्याभिन पर सवारी नहीं करते। यह ऊपरवाले का कायदा है। सवारी करेगा तो तूती ‘तू’ जाएगी और अघट घट सकता है। जच्चा-बच्चा दोनों मर जाएँगे। गूँगे जीव की बद्दुआ से अपना गुलशन उजड़ जाएगा। तू रहने दे। तूती को मैं सँभाल लूँगी। तू अपने साज-बाज लेकर पगोपग ही गाँव-गोठड़ा कर आ। मेरे जापे में अभी ढील है, पर तूती तो.....”

अब यह ‘तू जाना’ भी समझाना पड़ेगा। ‘तू जाना’ कहते हैं अधूरा गर्भ गिर जाना। पीड़ा उतनी की उतनी। हाथ पल्ले कुछ नहीं। हो सकता है, जच्चा-बच्चा में से कोई एक या दोनों मर जाएँ। बच्चा तो मरा हुआ होता ही है, लेकिन मरद की लुगाई के लिए ‘तू जाना’ लागू नहीं होता। ‘तू जाना’ लागू होता है जानवरों पर। गाय, भैंस, घोड़ी, बकरी और ऐसे ही चार पगे जानवर।

गुल्या ने गुल्ली को भरोसा दिलाया कि वो तूती पर सवारी नहीं करेगा, पगोपग जाएगा। तूती को साथ ले जाना इसलिए जरूरी है कि इसका जापा जहाँ भी होगा, वहाँ के रेवासी-निवासी इस जापे का खर्चा उठा लेंगे। एक बोझ कम हो जाएगा। और अपना सारंगी-चिकारा लटकाकर चल पड़ा। जब तक गुल्या और तूती आँखों से ओझल नहीं हो गए तब तक गुल्ली और उसके कच्चे-बच्चे उसे देखते रहे। वे लोग सोच रहे थे कि हमेशा की तरह गुल्या एक बार पीछे देखेगा और हवा में हाथ लहराकर मन की मिठास लेगा-देगा। लेकिन आज गुल्या ने वैसा नहीं किया। वह गुल्ली की इस बात पर पहले तो मन-ही-मन झेंपा और फिर झल्लाता रहा कि आखिर क्या समझकर गुल्ली ने कहा कि ‘ग्याभिन पर सवारी नहीं करते।’ आखिर बच्चों ने क्या सोचा होगा? क्या वह इतना भी नहीं जानता है कि ‘ग्याभिन पर सवारी नहीं की जाती है?’ गुल्या चला जा रहा था, कुछ झेंपता, कुछ झल्लाता।

अब हुआ तेल का खेल शुरु।

चलते-चलते गुल्या एक गाँव में पहुँचा। सारा सफर उसने पगोपग ही किया। उसे तूती का पूरा ध्यान था। मन-ही-मन वह तूती से एक मजबूत कद-काठी के बछेड़े का गढ़ा गूँथ रहा था। हिसाब लगा रहा था। रंग और कनौती का अन्दाज लगाकर खुश हो रहा था।

गुल्या के लिए यह गाँव नया नहीं था। लोगों ने उसे पहचान लिया। ’मीरासी आया! मीरासी आया!’ जैसे जुमलों से उसका स्वागत हुआ। जानकार लोगों ने जान लिया कि उसकी घोड़ी ग्याभिन है। लोगों ने उलाहना दिया कि इस बार उसने आने में इतनी देरी क्यों की? उसकी मसखरियाँ और चिकारे पर गाए गीत सुने कितने दिन हो गए!

समझदारों ने उसकी घोड़ी के जापे का अन्दाज करके गाँव के एक तेली के बाड़े में उसे ठहरा दिया। 

गाँव में पहला दिन गुल्या ने लोग-लुगाइयों का खूब मन लगाया। पूरा गाँव खिलखिलाहटों से भर गया। तेली और तेलिन ने उसके खाने-पीने की व्यवस्था की। घोड़ी का दाना-दूनी किया। कुछ धान-चून मिला। गुल्या ने पोटली बाँधी और सिरहाने रखकर सो गया। 

तेली के बाड़े में मीरासी की यह दूसरी रात थी।

आधी रात के आस-पास तूती हिनहिनाई। कुछ दूसरी तरह की आवाजें करते हुए उसने एक बछेड़े को जन्म दिया। तेलिन बाई ने जापे की सारी व्यवस्था कर दी तूती ने बछेड़े को चाटा, लाड़ किया, प्यार लुटाया। गुल्या ने तारों भर आसमान का शुक्रिया अदा किया कि ऊपरवाले ने फिर से बछेड़ा ही दिया है। मन-ही- मन गुल्या का गणित तेज हो गया। 

सवेरा हुआ। गाँव में खबर फैल गई कि रात में तूती के जापा हो गया है। तेली के यहाँ लोग आ-आकर मीरासी से मसखरी करने लगे। उधर तेली ने बछेड़े को देखा। उसका धरम सो गया, ईमान अस्त हो गया। दो दिनों की खातिरदारी और जापे का खर्च। जोड़ते-घटाते तेली ने बछेड़े को फिर देखा। इधर गुल्या ने तूती पर जीन कसी, सारंगी-चिकारा लटकाया, पोटली पीठ पर बाँधी और बछेड़े को उठाकर तूती की पीठ पर टिकाने की कोशिश। और बस.... तेली सामने खड़ा हो गया। उसने कहा, ‘मीरासी! खबरादार जो तूने बछेड़े को हाथ लगाया। बछेड़े को बाड़े में छोड़, अपनी घोड़ी सँभाल। लगाम खींच और चलता बन। बछेड़ा तेरा नहीं, मेरा है।’

गुल्या हक्का-बक्का रह गया। थोड़ा हकदारी से बोला, ‘बछेड़ा तेरा कैसे है? मेरी घोड़ी ने जना है, बछेड़ा मेरा है। कैसे छोड़ दूँ?’

आस-पास के लोग इकट्ठे हो गए। मसला यह था कि ‘बछेड़ा किसका है’? तेली का है कि मीरासी का? मीरासी कहता था-मेरा है और तेली कहता-मेरा है। तेली ने कहा, ‘अपना रास्ता नाप। लम्बा हो। बछेड़ा मेरा है। बड़ा आया हकदारी जतानेवाला।’

मीरासी ने पूछा, ‘तेरे यहाँ कौन सी घोड़ी है, जिसने बछेड़ा दे दिया? तूती मेरी घोड़ी है।’

तेली ने कहा, “बड़ा हल्ला कर रखा है घोड़ी-घोड़ी, तूती-तूती। सुन! यह बछेड़ा तेरी घोड़ी ने नहीं जना है, यह बछेड़ा मेरी ’घाणी’ से पैदा हुआ है। ये जो मेरा कोल्हू है ना, यह उसी का बेटा है। चल! लम्बा बन।”

मीरासी के होश उड़ गए। तेली की घाणी लकड़ी की। न उसमें जान, न उसमें जनने की कोई गुंजाइश। कोल्हू की कोई कोख नहीं, घाणी का कोई खाविन्द नहीं।’ गुल्या हैरत में पड़ गया। उसे जमीन-आसमान घूमते लगे।

खबराकर बोला, ‘मैं पंचायत करवाऊँगा।’

‘शौक से करवा ले।’ तेली का जवाब था।

भूखा- प्यासा, अबराया-घबराया मीरासी घर-घर गया। पंचायत के खर्चे की जिम्मेदारी ली। गाँव की चौपाल पर पंचायत बैठी। पंचों ने मीरासी को दूर के एक पेड़ की छाँव में बैठने का हुक्म दिया। गुल्या ने घोड़ी को पेड़ से बाँधा और पंचों के न्याय की उम्मीद में टकटकी बाँधकर बैठ गया।

पंचों ने विचार किया। विचार के पहले ही लमहे में पंचों का धरम सो गया, ईमान अस्त हो गया। संयानों ने तेली की ‘पंचों की सेवा’ को याद किया, ‘देखो भाई! तेली आखिर अपना तेली है। वार-त्योहार, होली-दीवाली पंचों को तेल मुफ्त देता है, मन्दिर की अखण्ड जोत की व्यवस्था करता है। कल फिर त्योहार आने वाले हैं। जो भी तेल खरीदने की हिम्मत करे, वो फैसला तेली के खिलाफ दे। मीरासी आखिर मीरासी है। न अपना, न अपने गाँव का। बछेड़ा पैदा हुआ तो जापा तेलिन ने करवाया। चौबीस घण्टे उसने खर्चा किया। न्याय की बात ये है कि बछेड़ा तेली को मिलना चाहिये। बुलाओ दोनों को।

तभी किसी ने सवाल उठा दिया, ’भई! मीरासी पूछ सकता है कि घाणी कैसे ग्याभिन हुई?’ सवाल गम्भीर था। सोच-सोचकर यह तय हुआ कि इस सवाल का जवाब तेली ही दे सकेगा। उसने कुछ सोच रखा होगा। जो भी हो, बछेड़ा तेली को ही देना जरूरी है, वरना गाँव के धन की नाक कट जाएगी।

पंचों ने दोनों को बुलाया। मीरासी हाथ जोड़े खड़ा था। तेली पंचों के बीच में जाकर बैठ गया। पंचों ने मीरासी से कहा, ‘भई! हम फैसला सुनाएँ, इससे पहले तुझे कुछ पूछना हो तो पूछ ले।’

“पंचो! आखिर लकड़ी की घाणी के ‘ग्याभ’ किसका रहा?” मीरासी का सवाल था।

‘बोल भई तेली! क्या जवाब है?’ एक पंच ने पूछा।

‘हे भगवान्! अब यह भी मुझे बताना पड़ेगा। मेरी घाणी के रात-दिन फेरे लेनेवाला बैल इस मीरासी को नजर नहीं आता?’

मीरासी चीख मारकर रो पड़ा। पंचों में खुसुर-फुसुर मच गई। आखिर तेली के पास जवाब निकल ही आया। मीरासी ने चीख मारकर तेली से कहा, ‘घाणी तेरी माँ है, तुझे पालती है। बैल तेरा अन्नदाता है। वह गाय का बेटा है। तू दोनों पर कलंक लगा रहा है। पंचों! मेरा इनसाफ कर दो। मैं आपसे न्याय चाहता हूँ। बैल और लकड़ी की बेजान घाणी के संजोग से घोड़ा कैसे पैदा हो सकता है? ऊपरवाला क्या सोच रहा होगा! दुनिया जानती है कि पंच परमेसर होते हैं। मेरा इनसाफ करो माई-बाप!’

सयाने पंचों से ‘परमेसर’ दूर हो गया। ईमान ऊगा नहीं, धरम जागा नहीं। घुटना पेट की तरफ मुड़ा। सभी की तरफ से एक पंच बोला, ‘देख भई मीरासी! बछेड़ा तेरा नहीं, तेली का ही है। हर साल तेली की घाणी ऐसा एक बछेड़ा जनमती है। ग्याभ इसके बैल का ही रहता है। तू अपनी घोड़ी लेकर गाँव से चल पड़। जय रामजी की।’ और पंचायत उठ गई।

इनसाफ से निराश, हताश गुल्या अपनी तूती की लगाम थामकर चल पड़ा। उसने रास्ता बदला। एक बार फिर तेली के घर के सामने आकर खड़ा हो गया। तूती अपने बच्चे के लिए हिनहिनाई। गुल्या ने तूती को पुचकारा-सहलाया, समझाया, चुप किया। तेलिन दरवाजे पर खड़ी थी। बैल घाणी का चक्कर लगा रहा था। तेली घाणी से निकलते तेल को देख रहा था। गाँव के दस-बीस बच्चे मीरासी का मखौल उड़ा रहे थे। बाड़े में तूती का बछेड़ा धीमे-धीमे हिनहिनाने की कोशिश कर रहा था। मीरासी की आँखों में आँसू आ गए। उसने तेलिन से कहा, “तेलिन काकी! मैंने दो दिन तेरा नमक खाया है। तूने मेरी तूती का जापा करवाया है। मेरे मुँह में पूरे बत्तीस दाँत हैं। जो भी बोलता हूँ, वह सच हो जाता है। तेरा तेली, तेरे पंच, तूती और उसके बेटे का बिछड़ा करवा रहे हैं। तू खुद माँ है। इस दरद को समझकर भी चुप है। मैं न तेरा बुरा चाहता हूँ, न तेरे घर-परिवार का अहेत। पर मैं तेरी घाणी माता और बैल बापू से यही कहकर जा रहा हूँ कि आज घाणी और बैल के चाल-चलन पर तेरे घरवाले ने धब्बा लगाया है। घाणी की इज्जत और बैल की आबरू का पानी उतार दिया है। मैं पन्द्रह दिनों के बाद वापस इधर से निकलूँगा। मेरा इनसाफ अब ये बैल करेगा। गऊ का जाया मुझे न्याय देगा। ऊपरवाला गरीब का गरीब नवाज है। ‘तेल का खेल’ वही खत्म करेगा। मैं अपना धन छोड़कर जा रहा हूँ। मेरी तूती के बेटे का ध्यान रखना।” और लम्बी साँस छोड़कर मीरासी अपनी तूती की लगाम पकड़े चल पड़ा। तूती ने बार-बार मुड़-मुड़कर अपने बछेड़े को आवाज दी, हिनहिनाई लेकिन गुल्या ने लगाम खींचकर उसे अपने रास्ते लगा लिया। तेली ने उस शाम को पंचों को ताजा तेल दिया। गाँव में मुफ्त के तेल की नई दीवाली हो गई।

घाणी बन्द करके तेली बाड़े में गया। बछेड़े को नई नजर से देखा और हँसकर घर में आ गया। वह पंचों के इनसाफ पर खूब हँसा।

सवेरा हुआ। अपने चबूतरे पर बैठकर तेली जोर-जोर से रोने लगा।

गाँववाले इकट्ठा हो गए। तेली से बोले, ‘रोए तो मीरासी! तुझे तो कीमती बछेड़ा मिल गया। तू क्यों रोता है? जिसका धन गया, वह तो किसी गाँव था सारंगी-चिकारे पर गा रहा होगा, मसखरी कर रहा होगा। तुझे क्या हो गया ?

तेली का उत्तर बहुत चिन्ता भरा था। कहने लगा, ‘तुम लोग थे तो मेरा न्याय हो गया। जब तुम लोग मर जाओगे तो मेरे लिए ऐसा न्याय कौन करेगा?’

बात सच थी। सिर खुजाते हुए एक पंच बोला, ‘मरेगा तो तू भी। लेकिन तेरे बाल-बच्चे अगर इसी तरह तेल देते रहेंगे तो हमारे बाल-बच्चे भी  इसी तरह का इनसाफ करते रहेंगे। तू तो फोकट के तेल की खातरी दे दे। मीरासी मरते रहेंगे, घोड़ियाँ जनती रहेंगी। बछेड़े तेरे ही रहेंगे।’

तेली ने पंचों को नए सिरे से धन्यवाद दिया।

लेकिन ऊपरवाले का इनसाफ बाकी था। वह अब शुरु हुआ। अपने पर लगे कलंक के कारण तेली के बैल ने अन्न-जल छोड़ दिया। घाणी के फेरे बन्द हो गए। उस पर फफूँद जम गई। घाणी पर फफूँद तेली के लिए, सबसे बड़ा अपशकुन था। तेलिन घबरा गई। जानवरों के डॉक्टरों ने देखा। देशी इलाज किया, लेकिन बैल बापू ने अन्न-जल नहीं लिया, सो नहीं लिया। अपनी इज्जत के नाम पर बैल अपनी जान पर खेल गया। पाँच-छह दिनों के अनशन के नतीजे में तेली का छह हजार रुपयों का बैल मर गया। घाणी ठप हो गई ऊपरवाले के इनसाफ पर पंचों का सिर झुक गया। तेलिन ने माथा पीट लिया।

कोई पन्द्रह दिनों बाद मीरासी वापस इस गाँव में आया। अपने आपको मीरासी का अपराधी माननेवाला गाँव सन्नाटे में डूब गया।

मीरासी तेली के घर के सामने पहुँचा। जगह को पहचानते ही तूती जोर से हिनहिनाई। बाड़े में बँधा तूती का बछेड़ा पन्द्रह दिनों का हो गया था। माँ की पुकार सुनते ही वह भी हिनहिनाया और एक झटके में खूँटा उखाड़कर दौड़ता हुआ बाहर आ गया। न बाड़ा रोक पाया, न बागड़ काम आ सकी। तूती बावली हो गई। दोनों माँ-बेटे सचमुच ‘तुरंग’ हो गए। अब इस ‘तुरंग’ शब्द का अर्थ आप किसी शब्दकोश में देखिए। दरवाजे पर खड़ी तेलिन रो रही थी। मीरासी मगन था। लोग आस-पास की चबूतरियों पर बैठे सारा कुछ देख रहे थे। मीरासी को बताया गया कि तेली को यह खेल बहुत महँगा पड़ा। छह हजार का बैल गया। दस हजार से कम का नया बैल आएगा नहीं। तेली नया बैल लेने हाट में गया है। जाने से पहले बह अपनी घाणी माता को माथा टेककर कह गया है कि अब वह फोकट का तेंल देकर पंचों का ईमान नहीं बिगाड़ेगा। रहा सवाल पंचों का, सो पंच जानें और उनका परमेसर जाने।

गुल्या- अपनी तूती और बछेड़े के साथ चल पड़ा, फिर पगोपग।

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‘बिजूका बाबू’ की चौथी कहानी ‘रामकन्या’ यहाँ पढ़िए।

 बिजूका बाबू’ की छठवी कहानी ‘रतिराम एण्ढ सन्स’ यहाँ पढ़िए।


कहानी संग्रह के ब्यौरे -

बिजूका बाबू -कहानियाँ
लेखक - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - प्रभात प्रकाशन, 4/19, आसफ अली रोड़, नई दिल्ली-110002
संस्करण - प्रथम 2002
सर्वाधिकर - सुरक्षित
मूल्य - एक सौ पचास रुपये
मुद्रक - नरुला प्रिण्टर्स, दिल्ली

 


 


 


 


 


 


 


 

 

 

  

 


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