मंगल-दीप जले

 

श्री बालकवि बैरागी के कविता संग्रह
‘दो टूक’ की चौंतीसवीं कविता 

यह संग्रह दा’ साहब श्री माणक भाई अग्रवाल को समर्पित किया गया है।



मंगल दीप जले

मंगल दीप जले
धरा पर मंगल दीप जले।

ज्योतित हो मावस का मानस
पावन पुण्य फले
धरा पर मंगल दीप जले।

कलुष कटे जन-गण के मन का
बोझ बँटे हर तरुवर तृण का
आलोकित हो हर घर-आँगन
तम का दम्भ ढले
धरा पर मंगल दीप जले।

मानिक मोती की हो बरखा
सोने का हल हो हलधर का
सुजला-सुफला भारत माँ की
वरदा कोख फले
धरा पर मंगल दीप जले।

कट जाए अपयश की कारा
यश उपजाएँ श्रम के द्वारा
अपना गजरथ अपने पथ पर
अपने आप चले
धरा पर मंगल-दीप जले।

युग की सब पीड़ा पी जाएँ
मनु का सब सन्ताप मिटाएँ
भुज भर भेंट लिए अम्बर से
धरती की सुध लें
धरा पर मंगल-दीप जले।

नव किरणों का अभिवादन हो
संकल्पों का प्रतिपादन हो
साधन को, आराधन अर्पित
युग परिताप टले
धरा पर मंगल-दीप जले।
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संग्रह के ब्यौरे
दो टूक (कविताएँ)
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - राजपाल एण्ड सन्ज, कश्मीरी गेट, दिल्ली।
पहला संस्करण 1971
सर्वाधिकार - बालकवि बैरागी
मूल्य - छः रुपये
मुद्रक - रूपाभ प्रिंटर्स, शाहदरा, दिल्ली।
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यह संग्रह हम सबकी रूना ने उपलब्ध कराया है। रूना याने रौनक बैरागी। दादा स्व. श्री बालकवि बैरागी की पोती। राजस्थान प्रशासकीय सेवा की सदस्य रूना, यह कविता यहाँ प्रकाशित होने के दिनांक को उदयपुर में, सहायक आबकारी आयुक्त के पद पर कार्यरत है।























 


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