अन्ततः (‘मनुहार भाभी’ की सत्रहवीं कहानी)



श्री बालकवि बैरागी के
प्रथम कहानी संग्रह
‘मनुहार भाभी’ की सत्रहवीं कहानी




अन्ततः  

आज रामा दादा ने तय कर लिया था कि चाहे जो हो, वे पता लगाकर ही रहेंगे। उन्होंने अपनी उँगली के पोरों पर मंगल, बुध, गुरु और शुक्र गिने और अपनी घरवाली से बोले, ‘राजी! आज चौथा दिन है, मैंने सोमा को हँसते नहीं देखा। वह दिनोंदिन बुझती चली जा रही है। और तो और अपने दो बरस के बेटे उस केशू तक से उसकी बोलचाल बदल गई लगती है। आखिर बात क्या है?’

राजी भाभी ने अन्दाजा लगाते हुए सुर में जवाब देने की कोशिश की। बोली, ’उदासी तो उस पर गए शनिवार से सवार हो गई थी पर वह.....’

‘आखिर बात तो पता चले?’ रामा दादा झल्ला से गए।

‘मंगल की चिट्ठी जो आई है। शनिवार को उसे चिट्ठी मिली और बस तभी से उसने धीरे-धीरे बुझना शुरू कर दिया था। जैसे-तैसे दो दिन उसने रोज जैसा रहने की कोशिश की पर अब लगता है, मन पर बोझ बढ़ गया है। देखो न इन दिनों बात-बात पर झल्ला कर वह केशू पर हाथ तक उठा देती है। ठीक समझो तो मैं उससे मंगल की चिट्ठी पढ़ने को माँग लूँ। कहो तो....’ राजी भाभी अपना बोल पूरा भी नहीं कर सकीं कि रामा दादा ने उसे रोक दिया, ‘ना-ना! बेटे-बहू की चिट्ठी पढ़ना ठीक नहीं है। समझो, सयाने बच्चे हैं। कोई खटपट हो गई होगी। तू अगर माँग लेगी तो बहू जरूर दे देगी। सास-ससुर ही तो उसके माँ-बाप हैं ससुराल में। क्यों नहीं देगी? बराबर दे देगी। घर में उदास बच्चे मुझे नहीं सुहाते। ठीक है! माँग लेना, पढ़ कर लौटा देंगे। वह आखिर इस घर की बहू है, लछमी है। उसका मन अगर भारी है तो हमारी खुशी किस काम की?’ रामा दादा ने बात को सफाई दे दी।

दोनों पति-पत्नी अपने खेत में काम करते मजदूरों को जरूरी हिदायतें देने के लिए अलग-अलग मेड़ों पर चले गए। सूरज माथे पर से तिरछा हो चला था। हालाँकि उसे पश्चिम में जाने की कोई जल्दी नहीं थी तब भी सभी जानते हैं बस्ती की बनिस्बत खेतों पर सूरज उगता भी जल्दी है और डूबता भी कुछ जल्दी ही है।

रामा दादा ने अपनी सब्जी की बाड़ी पर एक आशा-भरी नजर डाली। राजी भाभी मजदूरिनों को मूली, मटर, गोभी और खासकर टमाटरों के लिए विशेष हिदायतें दे रही थी। रामा दादा मन ही मन हिसाब लगा रहे थे कि अगर भाग्य, भगवान और मण्डी का स्वास्थ्य ऐसा ही रहा तो टमाटरों से लदालद यह बाड़ी ही उन्हें इस एक ही साल में लाख-सवा लाख की थप्पी दे देगी। दूसरी सब्जियों का गणित अलग। 

साँझ ढलते-ढलते रामा दादा ने सारी शाक-सजियाँ ट्रेक्टर की ट्रॉली में डालीं। बराबर वाली सीट पर राजी भाभी को बैठाया। ट्राली में मजदूर-मजदूरनियों को बैठाकर ट्रेक्टर स्टार्ट किया और गियर डाल दिया। अपनी धड़ाधड़ धाड़-चिंघाड़ और ट्राली की भनभनाहट के साथ ट्रेक्टर गाँव की ओर चल पड़ा।

कब तक छिपाती सोमा बहू? सास के जरा से दुलार और ममता-भरे बोल से वह बह चली। केशू उसकी गोद से मचलता-उछलता अपनी दादी की गोद में जा बैठा और दादा जी को तुतली बोली में आवाजें लगाने लगा। सात दिनों से छिपाई चिट्ठी सोमा ने अपनी सासू माँ को थमा दी। राजी भाभी ने एक बार सोमा को देखा फिर चिट्ठी के फटे लिफाफे को। फिर केशू का सिर सहलाया। उसे सोमा की गोद में सरकाया। खड़ी हुई और चुपचाप वह लिफाफा अपने पति को दे दिया।

बिजली की तेज रोशनी में रामा दादा ने चिट्ठी के लिफाफे का हाल देखा। टी.वी. पर चलने वाले कृषि दर्शन कार्यक्रम का स्वर धीमा किया और तख्त पर सीधे बैठते हुए लिफाफे के कागजों को बाहर निकाला। कागजों को फैलाया। मंगल के अक्षर वे पहचानते थे। उलट-पलट कर देखते हुए उन्होंने पाया कि पूरा खत जगह-जगह स्याही फैलने से गड़बड़ हो गया है। वे समझ गए। खत की खस्ता हालत और फैली स्याही बता रही थी कि एक हफ्ते में ही इस पत्र को बार-बार खोला और पढ़ा गया है। सोमा बहू के आँसुओं ने स्याही को बुरी तरह फैला दिया उन्होंने मान लिया कि खत में जरूर ही कोई गहरी निजी और मर्म को छूने वाली बातें लिखी होंगी। एक बार उनके भीतर बैठा बाप उठ खड़ा हुआ मानो कह रहा हो तुम्हारे बेटे का खत है रामा! लिखा भी बहू के नाम है। मत पढ़ो, बस! समाचार पूछ लो और जो कुछ करने लायक हो वह कर दो। मियाँ-बीवी की बातों की भाषा की गोपनीयता को गोपनीय ही रहने दो। पर खत की हालत बता रही भी कि हो न हो, पढ़ने वाले से ज्यादह लिखने वाला रोया हो। सोमा से पहले ही मंगल के आँसुओं की झड़ी की कल्पना-भर से रामा दादा सिहर उठे। इस बीच राजी भाभी दो चक्कर सामने से काट कर निकल गई। शायद है कि अब तक मंगल के पिता ने अपने बेटे का पत्र पढ़ लिया होगा। पर जब आँखों पर चश्मा ही नहीं चढ़ा हो तो खत पढ़ा कहाँ गया होगा। पास वाले कमरे से केशू के मचलने की आवाजें आ रही थीं। दो-एक बार बहू के हाथों की चूड़ियाँ इस तरह बजीं मानो केशू को हल्की-भारी चपतें जड़ दी हों। 

एक तो वैसे ही बड़ा घर और फिर बड़े आदमी का घर। रामा दादा विचारों में डूबते चले गए। गाव तकिए के पीछे टटोल कर चश्मा निकाला। कुरते के पल्ले से उसके शीशे साफ किए। उसे आँखों पर चढ़ाया। अब पत्र का घुँधलापन कुछ कम लगा। उन्होंने पढ़ना शुरू किया। खत मंगल का ही था और सोमा बहू के नाम पर लिखा गया था। तारीख के हिसाब से यही कोई एक पखवारे पहले लिखा गया पत्र था। सोमा के नाम लिखे सम्बोधन पर ही रामा दादा अटक गए। मन में उथल-पुथल मच गई। उनका सात्विक संस्कार उन्हें झकझोरने लगा, ‘बेटे-बहू का खत पढ़ रहा है रामा! तू नक्की नरक में जाएगा।’ कोई उनके मन में बोला। उन्होंने चश्मा उतारा। पहले गमछे से आँखों को पोंछा फिर चश्मे के शीशे साफ किए। आसमान की तरफ देखा। हाथ जोड़े। कुछ बुदबुदाए। भगवान से कातर बोलों में माफी माँग कर फिर से चश्मा चढ़ा कर पढ़ने लगे। मंगल ने लिखा था- “सोमू राजा! प्यार ढेर सारे! भगवान पर मेरा भरोसा है कि पिताजी पहले से बेहतर होंगे। माँ बराबर काम-काज में लगी होगी। केशू खूब ऊधम-मस्ती करता होगा। तुझे नोचता-काटता और झिंझोड़ता होगा और तू? तू सुखी ही होगी। माँ-बाप के पास भला कौनसी कमी है तुझे? खेती लहलहा रही होगी। मैं यहाँ इस अनजान शहर में आज कितना टूट कर तुझे यह सब लिख रह हूँ, यह कैसे बताऊँ?  इस शहर में रहते-रहते मुझे यह छठा साल है। पर मई मन करता है और माहौल भी कहता है कि सब कुछ छोड़छाड़ कर यहाँ से भाग निकलूँ। उसी तरह जैसे दूर, किसी खूँटे से बँधा कोई बछड़ा अपनी रस्सी तुड़ा कर अपनी माँ के थनों से लिपट जाता है। रह-रह कर पिताजी और माँ के वे बोल मुझे याद आते हैं। तेरी बरसती आँखें मुझे ठेठ अन्तर तक भिगो देती हैं। आज मेरी नजर में तेरी वो सूरत जस की तस रची-बसी है। कितना रोका था तूने भी कि ‘भगवान का दिया सब कुछ यहाँ अपने पास है। अपनी राजी माँ और धरती माता को छोड़कर मत जाओ किसी इन्द्र की अलकापुरी में। रूखी-सूखी यहीं पर खा लेंगे और हँस-बोल कर जिन्दगी गुजार लेंगे। मत छोड़ो अपना गाँव।’ पर मैं कच्चा निकला। इरादे के नाम पर मैंने कच्चा घरौंदा बना लिया। माँ बराबर कहा करती थी, ‘मंगल बेटे! घरौंदों की कोई नींव नहीं होती। उनसे खेला जा सकता है, उनमें बसा नहीं जाता।’ मैं माँ की इस बात पर हँसा करता था। पर आज लग रहा है कि मैं तो घरौंदा भी नहीं बना रहा था। मैं जो कुछ बना रहा था वह महज एक ताशमहल था। रात-दिन बनाते रहो। अपने हाथों और अपनी चेतना को उसमें लगाए रहो। हवा का एक हल्का-सा झोंका ही उसे ढहा देता है। मुझे याद है सोमू! पिता-माता ने अपनी बाप-दादाओं की महँगी जमीन मुझे पढ़ाने के लिए बेची थी। आज उनके पास दो-सवा दो एकड़ से ज्यादह ज्यादह जमीन नहीं है। पिताजी बराबर कहते थे, ‘गाँव में जो मदरसा है उसमें जितनी पढ़ाई है वह कर ले। मत भाग शहर की ओर। मर जाएगा। अजगर के जबड़ों मे फँस जाएगा। मंगल! अजगर के पेट में जिन्दा जाया तो जा सकता है पर उसमें से जिन्दा निकलने के मामले आज तक सौ-पचास भी नहीं बने हैं। ये तुम्हारे शहर अजगर हो गए हैं। हमारे गाँवों-देहातों को सारा का सारा निगल रहे हैं। अजगर की भूख को भगवान भी नहीं मिटा सकता। तू खूब सोच ले बेटे! में अपनी बची-खुची जमीन भी बेच दूँगा। तेरी माँ और मैं मजदूरी करके पेट पाल लेंगे। पर राजा भैया! तू अपने सपनों को बस में रख। हिरन कितना ही कूद ले, छलाँगें लगा ले, पर अन्ततः आता वह जमीन पर ही है। आज तू जिसे फटी धोती-गन्दी धोती-कहकर उतार फेंकना चाहता है उसे उतार कर, सँभाल कर रख ले। वक्त जरूरत काम आएगी। पर मेरे मुन्ना! जिस दिन तेरी टॉँगों में यह अंग्रेजी पतलून फँसी कि तू न खेत का रहेगा न खलिहान का। पतलून पहनी बेशक पाँवों-टाँगों में जाती है पर यह कमबख्त अपनी कमरपेटी से दिमाग को बाँध लेती है। तू शौक से कॉलेज-स्कूल कर ले पर इस सब से पहले तेरा घर छिनेगा, फिर तेरा मुहल्ला छिनेगा, फिर तेरी गलियाँ और तेरा गाँव छिनेगा। आज भले ही मान-मत मान पर एक दिन तू खुद अपने आपसे छिन जाएगा।’

रामा दादा ने खत को अभी तक जितना पढ़ा था वह ही उनका कलेजा चीरने को काफी था। वे हमेशा मानते चले आ रहे थे कि माँ के लाड़-प्यार और दुलार ने मंगल को एक बिगड़ैल बेटा बना दिया है। संगत-सोहबत ने उसे भटका दिया है पर इतना पढ़ते-पढ़ते वे खुद पसीज गए। मंगल का सारा बचपन उछल-कूद, उसके नटखट खेल-तमाशे किरन-किरन उनके दिल-दिमाग में कौंधने लगे। उन्हें मंगल का वह किशोर काल याद आया जब उसने अपने इसी खेत की मेड़ पर अपनी सातवीं की किताबें फेंकते हुए कहा था, ‘माँ! मैं शहर जाऊँगा। खूब पढूँगा, बड़ा आदमी बनूँगा। ये खेती-वेती नहीं करूँगा।’ और राजी माँ ने तब उसे बाँहों में भर कर चूमते हुए अपने पति की ओर देखते हुए समझाया था - ‘हाँ बिट्टू! हाँ! तू खूब पढ़ना, बड़ा आदमी बनना, अच्छा पहनना-खाना। पर यूँ मत बोल कि मैं खेती-वेती नहीं करूँगा। धरती हम सभी की माँ है और माँ का सच्चा बेटा ऐसे बोल नहीं बोलता।” 

और गाँव की पढ़ाई पूरी करके मंगल पहले कस्बे के छोटे कॉलेज में गया। बी.ए. करते ही उसने अपने सपनों का सोना माँ-बाप के मनों में बिखेर दिया। माँ भावना में बहती चली गई। रामा दादा जिन्दगी के कड़वे और कठोर यथार्थ को समझ रहे थे। माँ-बेटों की जिद थी कि मंगल अब शहर के बड़े कॉलेज में पढ़ने जरूर जाएगा। एकाएक बेटे के सपनों ने घर की आधी जमीन बिकवा दी।

एक मनभायी शर्त पर यह सब हुआ। रामा दादा ने शर्त लगा दी कि ‘चलो! मैं तुम्हें शहर भेज देता हूँ पर शर्त यही है कि शहर जाने से पहले तुझे शादी करनी पड़ेगी। बहू यहाँ रहेगी, तू कॉलेज में। मैं अपनी बहू को घर में ही थोड़ा-बहुत पढ़ा लूँगा।’

राजी माँ के लिए यह शर्त मनभायी थी। उसने भी कहा, ‘हाँ मंगल! खूँटा यहाँ गड़ा रहेगा। रस्सी तू चाहे जितनी लम्बी बँधवा ले। इसी बहाने तू महीने-दो महीने में घर आता-जाता तो रहेगा? बाप-माँ की सुधि लेता तो रहेगा। गाँव-गली की धूल को भूलेगा तो नहीं।’ और मंगल शहर जाने की उमंग में अपने आँगन में ही अपना खूँटा गाड़ बैठा। सोमा बहू घर में आ गई। मंगल को लगा, जैसे उसके सपनों को सहारा मिल गया है।

मंगल के वेश में, परिवेश के साथ-साथ बदलाव आता चला गया। ज्यो-ज्यों उसके सपने जवान होने लगे, उनके पंखों की उड़ान भी ऊँची होती गई। उसके माँ-बाप उसे जो पेसा देते या भेजते वे उसे कम पड़ने लो। गाँव एक तरह से उसकी चेतना में से ही निकल गया। पहले शहर उसके दिमाग में घुसा और एक दिन रामा दादा, राजी भाभी और सोमा को भी लगा कि मंगल, पहले वाला मंगल नहीं रह गया है। वह शहराती हो गया है।

शहर के कॉलेज होस्टल में रहते-रहते भी मंगल अक्सर भाग-भाग कर गाँव आता रहता था। सोमा में एक तरह से वह समा ही गया था। रामा दादा की साँस दिन-दिन कसती चली गई। राजी भाभी अक्सर मंगल को खेत पर जा कर कुछ देख-रेख करने का आग्रह करती तो वह जाता जरूर पर वह खेती का मखौल उड़ाता। फसलों पर फब्तियाँ कसता और अपने कपड़ों पर आ बैठे धूलकणों को झटकता रहता।

गनीमत थी कि उसने जैसे-तैसे अपनी एम.ए. की परीक्षा पास कर ली। तीसरे बरस वह बाप बन गया। घर में केशू आ गया। एम. ए. करने के बाद रामा दादा ने, राजी माँ ने और सोमा ने भरपूर कोशिश की कि अब मंगल वापस अपने गाँव लौट आए! अपनी खेती-बाड़ी सँभाले, घर-गृहस्थी का बोझा बाँटे, माता-पिता को सहारा दे, पर उन्होंने महसूस किया कि पहले तो मंगल के सपने सोने-चाँदीवाले ही थे, अब तो उन पर हीरे-मोती भी जड़ गए हैं। उसे अपने एम. ए. होने पर घमण्ड था। शहर का आकर्षण उसे नए तौर से खींच रहा था। गाँव और शहर की सुविधाओं की वह तुलना करता और गाँव पर लानतें मारता। ‘ले-देकर एक बिजली ही तो मिली है गाँव को! सिवाय इसके और क्या है यहाँ?’ जैसी बातें करके वह शहर की ओर भागने की तैयारी करता।

और इस बार रामा दादा ने फिर कमाल कर दिया। ज्यों ही मंगल ने जाने के लिए अपना सूटकेस तैयार किया कि उन्होंने राजी माँ, सोमा बहू और केशू के बीच में बैठकर पहले केशू को मंगल के कन्धों पर बैठाया। फिर अबोध केशू के

चंचल हाथों में एक हजार रुपए के नोट थमाए। केशू उन नोटों को बार-बार फेंकता और सारा घर उसकी किलकारियों से भर उठता। पर रामा दादा ने केशू को लाड़ से पुचकारते हुए कहा, ‘केशू बेटा! ये एक हजार रुपये अपने बाप को दे दो और इनसे कह दो पिताजी, ये लो आपका शहर का खर्चा-पानी। ये खत्म हो जाएँ तो अपना बन्दोबस्त वहीं और कुछ कर लेना। मेरी और मेरी माँ की चिन्ता मत करना। हम दादा-दादी के पास सुख से रह लेंगे। अगर और कोई जुगाड़ वहाँ नहीं होे तो अपना सामान लेकर वापस हमारे पास आ जाना। हम तब तक हमारी खेती-बाड़ी को सुधार कर सँभाल लेंगे। आगे आगे आप सम्हाल लेना। अगर वहाँ खाने-कमाने की व्यवस्था हो जाए तो मुझे और माँ को बुलवा लेना या आकर ले जाना। इन हजार रुपयों के बाद आपको टा टा! हमें कुछ देना मत और हमसे कुछ माँगना मत। आप एम.ए. हो गए। आपने अपना घर बसाया या नहीं पर अपना शहर जरूर बसा लिया है। आपको आपका शहर मुबारक, हमें हमारा घर भला। यह घर आपका, यह जमीन आपकी, ये माँ-बाप भी आपके, हम माँ-बेटे आपके पर जब हमारा किसी का वर्तमान और भविष्य आप अपना नहीं मानते हो तो फिर आप अपना खाओ-कमाओ और पहली ही बस से अपने इन्द्रलोक के लिए रवाना हो जाओ।’ 

सारे घर में एक तनाव, उदासी और एक परायापन जैसा पसर गया। राजी भाभी हक्की-बक्की अपने पति की जोर देखती ही रह गई। सोमा बहूँ ऑखें पोंछती भीतर रसोई में चली गई। केशू रामा दादा के सीने से चिपटा, धरती पर बिखरे नोटों को टुकुर-टुकुर देख रहा था। मंगल बदहवास और अवाक् खड़ा था। रामा दादा केशू को राजी भाभी के हाथों में देकर बाहर चबूतरे पर आ गए। 

राजी भाभी ने नोटों को बटोरा। एक बार फिर मंगल को समझाया। पर इस सारे प्रकरण को मंगल ने अपना, अपनी पढ़ाई का और विशेष कर अपने शहर का और उससे भी आगे बढ़ कर अपने सपनों का अपमान समझा।

रामा दादा ने अपने आपको सँभाला। आँखों का गीलापन पोंछा। चश्मे के काँच पोंछे। उसे आँखों पर चढ़ाया और खत को आगे पढ़ने लगे। मंगल ने लिखा था - ‘सोमू! मैं उस दिन पहली बार माँ और पिताजी के पाँव छुए बगैर मर्माहत होकर घर से निकल आया था। आते समय न मैंने केशू को चूमा न तुझसे प्यार ही माँगा। माँ ने मुझे वे हजार रुपए तो दिए ही पर पिताजी से चोरी-छिपे पाँच सौ रुपए और भी दिए थे। कितना रोई थी माँ उस दिन। सिवाय केशू के उस दिन सारा घर रोया था। खुद पिताजी बाहर जाते-जाते रुँआसे हो गए था। उन्होंने कितनी लम्बी साँस छोड़ते हुए मुझे देखा था!  इस शहर में मैं यह छठा साल जी रहा हूँ। पर मुझे एक पल मुझे चैन नहीं है। उन डेढ़ हजार रुपयों से कुदरत के इस कड़ाह में कौन-सा बघार लग सकता था? होस्टल में रह नहीं सकता था। मकान मिलने की गुंजाइश ही कहाँ थी? यहाँ के किराये, यहाँ के बाजार, यहाँ के फुटपाथ, यहाँ की सड़कें, यहाँ इंच-इच पर फैले अलगाव और अपरिचय के महासागर और पग-पग पर परायापन, जानलेवा शोर-शराबा, दमघोंटू दोगलापन, बदहवास जिन्दगी और लावारिसों जैसी मौत! उफ्! सोमू राजा!! राम जाने लोग यहाँ कैसे जी लेते हैं?

मुझे एक आठ बाय दस का यह कोटर कितनी मुश्किल से मिला! पिताजी का दिया एक हजार रुपया पेशगी लेकर जब कोटर के ठेकेदार ने मुझे सामान रखने की इजाजत दी तो मैं मारे ग्लानि और अपमान के सन्न रह गया। उस कोटर में जाते ही तू सोच ले, मैंने पहला काम क्या किया होगा? मैं फूट-फूट कर रोया। मेरी जिन्दगी में यह पहला अवसर था जबकि मेरे आसपास  मेरे आँसू पोंछनेवाला कोई नहीं था। न माँ, न पिताजी, न तू और न केशू........’

और रामा दादा ने पाया कि उनकी आँखों से भी खारा पानी चश्मा फोड़ कर खत पर गिर जाना चाहता है। साफ करने के लिए उन्होंने ज्यों ही चश्मा उतारा कि बेटे-बहू के आँसुओं से तरबतर खत पर उनके आँसू भी बरस पढ़े। मानो बाप के आँसू अपने बच्चों के आँसुओं से कह रहे हों, ‘ना! ना!! मेरे बच्चों! अभी तो पहाड़ जैसा मैं जिन्दा हूँ। रोओ मत। जिन्दगी वो नहीं है जो तुम जी रहे हो। जिन्दगी वह है जो तुम जीना चाहते हो!’

रामा दादा न तो खत को आधा-अधूरा छोड़ सकते थे और न पूरा ही पढ़ सकते थे। पर वे यह जरूर जानना चाहते थे कि आखिर पिछले दो-ढाई बरस उनके मंगल बेटे ने ऐसे अजगर के पेट में कैसे काटे? उन्होंने सामने खड़ी राजी भाभी को अपने पास बैठने का इशारा किया। चश्मा फिर से चढ़ाया और खत पर नजरें गड़ा दीं। मंगल मानो सामने खड़ा-खड़ा बोल रहा था -‘जब-जब मैं यहाँ रोया सोमा! तब-तब आँसू पोंछने वाला तो ठीक है पर मुझसे यह पूछने वाला भी कोई नहीं था कि आखिर मैं रो क्यों रहा हूँ। खैर, मैंने जैसे-तैसे जुगाड़ करके एक प्रायवेट स्कूल में छोटे मास्टर की नौकरी जुटाई। मैं अपने घमण्ड, अपने दम्भ और अपने झूठे अभिमान पर लानत मार कर यह नौकरी आज तक कर रहा हूँ। मुझे इस नौकरी में मैनेजमेंट हर महीने सूखे पाँच सौ रुपए देता है और टिकट लगी पक्की रसीद पर 1500 (डेढ़ हजार) लिखवाता है। अपने विद्यार्थियों को मैं किस मुँह से नैतिकता, ईमानदारी और संघर्ष का पाठ पढ़ा दूँ? मैं खुद बेईमानी कर भी रहा हूँ और सह भी रहा हूँ। अपने आपको धिक्कारते-धिक्कारते मैं अधमरा हो गया हूँ। जब-जब ढाबे में खाना खाने जाता हूँ तब-तब मुझे माँ के दिए निवाले और तेरे परोसे पराठे याद आने लगते हैं। निवाले कण्ठ में फँस जाते हैं। सच सोमा! मैं जिस तरह का खाना यहाँ खा रहा हूँ उस खाने का एक निवाला अपनी कल्पना में भी मैं केशू को देने की हिम्मत नहीं कर सकता। जिन एक हजार रुपयों से मैंने वह कमरा ले रखा है, मुझे लगता है, वे हजार रुपए वे ही हैं जो कि केशू ने मुझे दिए थे। मेरा कलेजा मुँह को जाता है जब मैं इन बातों को याद करता हूँ।’ 

रामा दादा की विह्वलता को देख-देख कर राजी भाभी भी पल्लू से आँखें पोंछती जा रही थी। अपने आपको वह रोक नहीं सकी । चिल्ला कर पूछ ही बैठी, ‘कोई मुझे भी तो बताओ, इस चिट्ठी में ऐसा क्या लिखा हुआ है? मेरा मंगल कैसा है? हे भगवान! तू मुझे आधी घड़ी के लिए ही तेरी सरस्वती उधार दे दे। मैं अपने बेटे की चिट्ठी पढ़ कर तेरी सरस्वती तुझे वापस लौटा दूँगी।’ और राजी भाभी फफक-फफक कर रोने लगी।

इशारे से रामा दादा ने राजी भाभी को चुपाया, ‘सब बता दूँगा भागवान्। जरा सब्र कर! यह पहाड़ पहले मुझे झेल लेने दे। इतना वजन तू नहीं उठा सकेगी। सोमा बेटी को भगवान अचल सुहाग दे जिसने कि इस बिजली को बर्दाश्त कर लिया। पूरे एक हफ्ते तक।”

रामा दादा फिर पढ़ने लगे - “पर मैं मरा नहीं हूँ सोमा! हाँ टूट जरूर गया हूँ। कल मुझसे मैनेजर-मालिक कह रहा था-‘मंगल मास्टर! ये रोज-रोज का कर्फ्यू, रोज-रोज के जुलूस, रोज की 144, बिना बात के हंगामे, बेवजह के दंगे और अन्धी विनाशलीला के चलते इस शहर में हम-तुम कैसे जियेंगे। तुम तुम्हारे बाप से कह कर मेरा यह 7 कमरों वाला मकान खरीद लो। इसे मैं गए 30 सालों से ऐसी बेईमानियाँ कर-करके बना रहा हूँ। मैं अपना पैसा लेकर अपने उस छोटे-से गाँव में चला जाऊँगा। अपने बाप-दादा की जमीन पर खेत की मेड़ पर कच्चा-पक्का झोंपड़ा बनाकर खेती करूँगा। यह मदरसा, बच्चों का यह बूचड़खाना तुम्हें सौंप दूँगा। मैं इस शहर को छोड़ देना चाहता हूँ। एक अधमरी जिन्दगी जीने के बाद मैं अब शान्ति और सुख के साथ मरना चाहता हूँ। यहाँ मर गया तो मंगल मास्टर! नफरत के मारे तुम भी मुझे कन्धा नहीं दोगे। अपने गाँव में  मरूँगा तो कोई रोए न रोए मेरी गली के कुत्ते तो रोनेवाले होंगे?’ और सोमा! तू ही बता, पिताजी की बातों में और इस मालिक मैनेजर की बातों में कहाँ फर्क है? सच बोलता है मेरा मैनेजर। यह शहर है। यहाँ निगम साहब के कुत्ते को पड़ोसी पहचानते हैं पर निगम साहब को सिवाय उनके कुत्ते के कोई नहीं पहचानता। कल पास वाली गली में मुझे जैसा एक जवान लड़का पता नहीं कैसे मर गया! मेरी ही तरह अकेला था। हालत मुझसे भी ज्यादा खस्ता रही होगी। उसकी लाश को नगरपालिका-नगर निगम वाले कामगार मुर्दागाड़ी में ढो कर ले गए। कोई कन्धा देने वाला नहीं मिला। सच कहूँ! जब वे लोग उस जवान लाश को उठा  रहे थे तब मैं उस लाश की जगह अपने आपको देख रहा था।”

‘नहीं! नहीं! मंगल! नहीं!’ रामा दादा एकाएक जोर से चीखे। सोमा बहू बदहाल सामने आकर खड़ी हो गई। राजी भाभी ‘माँ! माँ!!’ चीख पड़ीं। रामा दादा एकाएक सँभले। खत को उन्होंने अपनी मुट्ठी की कसावट में ढील देकर फिर से फैलाया। मंगल बराबर बिखरा-बिखरा बोलता-सा सुनाई पड़ रहा था। अगली पंक्ति थी - ‘पिताजी से कहना, माँ से कहना, अपने आपसे कहना और हाँ, केशु बेटे से कहना कि मैं मरा नहीं हूँ। उन्होंने मुझे ममता के कमल में पाला और रखा। अपनी नागफणी पर आज मैं खुद करवटें नहीं बदल पा रहा हूँ। खुद को लहूलुहान पा रहा हूँ। कंक्रीट के इन जंगलों में प्राणवायु के अभाव में लम्बी साँसें ले-लेकर जीने की कोशिश कर रहा हूँ। मैंने अजगर के पेट में मौत को मंजूर नहीं किया है। यह मेरे पिताजी के खून और मेरी माँ के दूध की ही ताकत रही होगी कि मैं इस अजगर के पेट से घायल ही सही पर जिन्दा निकलने के लिए संधर्ष कर रहा हँू।

“तेरा प्यार और केशू की ममता भी मेरा सहारा है। कभी-कभी मेरा झूठा अहम् मुझे छलता है। मुझे भटकाता है। कहता है-अगर तू वापस गाँव लौट गया तो लोग तुझे क्या कहेंगे? तेरी ठिठोली होगी। दोस्त-हमजोली तुझे हारा और असफल मानकर मुँह चिढ़ाएँगे। पर सच मान सोमा! अब मैंने सारे उत्तर ढूँढ़ लिए हैं। पिताजी का तो खैर मैं क्या सामना कर पाऊँगा पर माँ के आँचल से लिपटने की ललक, माँ वसुन्धरा की शस्य श्यामला हरियाली में सिर उठाकर जीने की प्यास, तेरे हँसते-मुस्कराते चेहरे को आँखों में छिपा कर उम्र गुजारने की कोशिश और केशू के नन्हे हाथों के दो लाड़-भरे तमाचे खाने की भूख से मैं इतना बेहाल हो गया हूँ कि आज पिताजी, माँ और तू तो दूर, अपना केशू भी मुझसे कह दे कि ‘घर चलो पापा’ तो मैं यहाँ से नंगे पाँव दौड़ कर अपनी धरती माँ की गोद में आ बैठूँगा। इन सालों में मैंने ‘घर’ का मतलब समझ लिया है। ‘धरती’ का अर्थ मैंने खोज लिया है। ‘गाँव’ कीे गरिमा मैंने पहिचान ली है। फसल का फलसफा मैं सीख चुका हूँ। वर्तमान और भविष्य जैसे शब्दों से मेरी नई मित्रता हुई है। मैं समझ गया हूँ कि ‘शहर’ में ‘देहात’ का दम घुटता है। मैं पूरी आस्था से कह रहा हूँ कि साँप की आँखों के सम्मोहन और शहरी सुविधाओं के आर्कषण से बच कर ही मनुष्य जिन्दा रह सकता है।”

रामा दादा ने छत को इस तरह देखा मानो वे भगवान के किसी सिंहासन को देख रहे हों। एक पल उन्होंने राजी भाभी को देखा। फिर उनकी आँखें सोमा बहू पर गड़ गईं। वे हल्के से मुस्कराए। पत्र का आखिरी पन्ना उनके सामने फैला हुआ था। मंगल की लिपि स्पष्ट थी - “शायद पिताजी और परिवार मेरी वापसी की व्याख्या करे। मुझे अपने साथ रखना पसन्द करें। मेरी तरह लाखों मंगल इन अजगरों के पेट में छटपटाते संघर्ष कर रहे हैं। झूठा अहम् उन्हें रोकता रहता है। वे अपने-अपने आकाश के नीचे खुला और बेहतर जीवन जीना चाहते हैं। पर हो न हो वे भी मेरी ही तरह अपने किसी न किसी केशू के बुलावे का इन्तजार कर रहे लगते हैं। तू केशू को जल्दी यहाँ भेज दे। मैं उसके साथ वापस गाँव आ जाऊँगा। तब तक तू ‘गाँव’ को ‘गाँव’ ही बनाए रखना। उसे ‘शहर’ मत बनने देना। गाँव एक भोलापन है, मासूमियत है। ‘शहर’ एक मनोवृत्ति है, सुविधाओं का कमलवन है, जानलेवा आकर्षणों का रेशम जाल है।

मेरा यह पत्र पिताजी को मत बताना। माँ को मत सुनाना। बस।

तेरा-मंगल।”

और रामा दादा एकाएक पुलक से भर गए। ललक के साथ बोले-‘पगला कहीं का। सोमा बेटी! कल तू, तेरी माँ और केशू चले जाओ।’ और फिर अपने गाव तकिए के नीचे से कुछ नोट निकाल कर नन्हे केशू के हाथों में थमाते हुए बोले, “लो केशू बेटे! ये एक हजार रुपए सँभालो। जाकर अपने पिता श्री मंगल कुमार जी को देना और कहना, ‘चलिए पिताजी! दादाजी ने आपको लेने मुझे भेजा है। चलिए अपने घर चलिए।”

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कहानी संग्रह के ब्यौरे

मनुहार भाभी - कहानियाँ
लेखक - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - नीलकंठ प्रकाशन, 1/1079-ई, महरौली, नई दिल्ली-110030
प्रथम संस्करण 2001
मूल्य - 150/- रुपये
सर्वाधिकार - लेखक
मुद्रक - बी. के. ऑफसेट, नवीन शाहदरा, दिल्ली-110032



रतलाम के सुपरिचित रंगकर्मी श्री कैलाश व्यास ने अत्यन्त कृपापूर्वक यह संग्रह उपलब्ध कराया। वे, मध्य प्रदेश सरकार के, उप संचालक, अभियोजन  (गृह विभाग) जैसे प्रतिष्ठापूर्ण पद से सेवा निवृत्त हुए हैं। रतलाम में रहते हैं और मोबाइल नम्बर 94251 87102 पर उपलब्ध हैं।


 


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