‘मम्मी! ये मिनिस्टर है! सब खा जाएगा!’

गुजरात मन्त्रि मण्डल के पुनर्गठन में सारे पुराने मन्त्री हटा दिए गए। भाजपा हाई कमान भली-भाँति जानता था कि ‘पब्लिक सब जानती है’। ये बने रहे तो सरकार से हाथ धोना पड़ेगा। पार्टी हाई कमान द्वारा अपने मन्त्रियों को बेदाग, साफ-सुथरा न मानने की बात को इस तरह सार्वजनिक रूप से कबूल करने का यह अभूतपूर्व उदाहरण है।

मन्त्रियों की इस ‘लोक छवि’ को लेकर मुझे दादा श्री बालकवि बैरागी का एक रोचक और झनझना देनेवाला संस्मरण याद आ गया। यह संस्मरण दादा से कई बार सुना।

यह मई 1980 की बात है। दादा मध्य प्रदेश सरकार में खाद्य राज्य मन्त्री थे। राजनीति से परे, दादा के सामाजिक, साहित्यिक सम्पर्क व्यापक थे। उनसे मिलनेवालों में गैर-राजनीतिक लोग बड़ी संख्या में होते थे। ऐसे ही एक परिचित सज्जन ने एक दिन दादा को चौंका दिया। वे भले, मितभाषी, सर्वथा अहानिकारक व्यक्ति थे। उनसे सर्वथा औपचारिक परिचय ही था। प्रगाढ़ता बिलकुल नहीं थी। वे दादा से सचमुच में ‘मिलने के लिए’ ही मिलते-जुलते थे। उन्होंने न तो कभी अपना कोई काम दादा को बताया न ही कभी किसी की सिफारिश की। उन्होंने दादा से बिना लाग-लपेट, सीधे-सीधे इच्छा प्रकट की कि दादा, किसी एक शाम, लाल बत्ती वाली कार में, सरकारी लाव-लश्कर के साथ, उनके यहाँ ‘चाय पीने’के लिए आएँ ताकि वे मुहल्ले में छोटी-मोटी सामाजिक हैसियत हासिल कर लें कि मन्त्री से उनकी निकटता है। दादा को अटपटा तो लगा किन्तु उनकी सादगी और निश्छलता भा गई। उन्होंने, उन सज्जन से ही पूछ कर तारीख तय कर ली।

निर्धारित दिन, शाम 6-7 बजे के बीच दादा लाल बत्ती वाली कार में उनके यहाँ पहुँचे। निजी सचिव निरखेजी भी साथ ही थे। एक पुलिस जीप भी थी और एक दरोगाजी पायलेटिंग कर रहे थे। उनके पहुँचने से पहले ही, वर्दीधारी पुलिस दस्ता वहाँ पहुँच चुका था। सादे कपड़ों में भी दो-चार पुलिसकर्मी तैनात हो चुके थे। दादा के पहुँचने से पहले ही मुहल्ले में, मन्त्रीजी के आने की ‘मौन मुनादी’ पिट चुकी थी। परिचित के दरवाजे पर तो  चहल-पहल थी ही, मुहल्ले के अधिकांश घरों के बाहर भी लोग जमा थे। 

मेजबान परिवार ने भरपूर गर्मजोशी से दादा की अगवानी की। खूब हार-फूल किए। बैठक का कमरा विशेष रूप से सजा हुआ था। शुरुआती गहमागहमी के बाद वातावरण सामान्य हुआ। मेजबान ने अपने परिवार के सदस्यों से दादा का परिचय कराया। उनमें एक पाँच वर्षीय बच्चा भी था। उसे कहा गया गया - ‘इन्हें नमस्ते करो। ये मिनिस्टर हैं।’ बच्चे ने विस्फारित नेत्रों से आदेश का पालन किया। दादा ने जब भी यह संस्मरण सुनाया तब, हर बार कहा - ‘इस संस्मरण का नायक मैं नहीं, वह पाँच वर्षीय बच्चा ही है।’

जल्दी ही ‘मन्त्रीजी’ की खातिरदारी का उपक्रम शुरु हो गया। मेजबान गृहिणी ने छोटी टेबल पर, एक के बाद एक, बिस्किट, मिठाई, नमकीन, कटे  फल, गरम-गरम हलवे की प्लेटें सजा कर रख दीं। वह बच्चा चकित भाव से सारा उपक्रम देखे जा रहा था। दादा ने कहा - “टेबल पर सारी प्लेटें सजा कर गृहिणी चाय की तैयारी के लिए रसोई में जाने लगी तो बच्चे ने लगभग चिल्ला कर कहा - ‘मम्मी! मम्मी!! कहाँ जा रही है? ये सारा सामान उठा ले!’ गृहिणी ठिठकी। बच्चे की बात उसे समझ नहीं आई। कौतूहल से पूछा - ‘क्यों? सामान क्यों उठा लूँ?’ बच्चे ने ताबड़तोड़ जवाब दिया - ‘पापा ने कहा है कि ये मिनिस्टर है। सब सामान उठा ले मम्मी नहीं तो ये मिनिस्टर सब खा जाएगा।’

“बच्चे का यह कहना था कि कमरे में सनाका छा गया। कमरे में मौजूद तमाम लोग ही नहीं, दरवाजे के बाहर खड़े पुलिसकर्मी-कारिन्दे, घर में काम कर रही नौकरानी, याने जिसने भी बच्चे की बात सुनी, सकते में आ गए। ‘राजा’ की हकीकत जानते तो सब हैं लेकिन चुप रहने की ‘भद्रता’ ओढ़ लेते हैं। लेकिन बच्चे ने बच्चे ने ‘राजा’ की लोक छवि एक झटके में व्याख्यायित कर दी थी। मेजबान-दम्पति की दशा देखी नहीं जा रही थी - मानो गौ हत्या कर दी हो! कहाँ तो वे, पूरे मुहल्ले पर मन्त्रीजी से अपनी निकटता की धाक जमाना चाह रहे थे और कहाँ इस बच्चे ने एक झटके में सब कुछ ‘गुड़-गोबर’ कर दिया! सब हक्के-बक्के, ठगे हुए से कभी बच्चे को तो कभी मुझे देख रहे थे। अच्छे-भले गृहस्थ-घर में मसान का सन्नाटा बिराजमान हो गया था।”

सन्नाटे  और असहज दशा को अन्ततः दादा के आसमान-फाड़ ठहाके ने ही भंग किया। चाय-नाश्ता भी हुआ और बातें भी हुईं। रस्मी तौर पर मुस्कुराहटें भी तैरीं लेकिन दूधिया वातावरण तो दही बन चुका था। दादा की तमाम कोशिशों के बाद भी मेजबान दम्पति सहज, सामान्य न हो पाया। जैसे-तैसे ‘मन्त्रीजी का आना’ पूरा हुआ। लेकिन लौटने से पहले दादा ने बच्चे का माथा सहलाते हुए कहा - ‘बेटा तुमने ठीक ही कहा था।’

दादा कहते थे - ‘इस घटना के बाद वे झेंपने लगे थे। जब भी मिलते, अपराध-बोध से ग्रस्त ही मिलते थे। मैंने अपनी ओर से सम्पर्क बनाए रखा लेकिन वे ही संकुचित होते गए। मैं उन्हें कभी नहीं समझा पाया कि बच्चे तो ईश्वर-रूप होते हैं। उनके मुँह से ईश्वर बोलता है। बच्चे ही दुनिया को सच से वाबस्ता बनाए रखते हैं।’

गुजरात के सारे पुराने मन्त्री हटा दिए गए हैं। जो आए हैं, सब के सब नए हैं। हालाँकि यह आशा-अपेक्षा मासूमियत ही है लेकिन उम्मीद करें कि न केवल गुजरात के इन नये मन्त्रियों के लिए बल्कि देश के किसी भी मन्त्री के लिए, देश के किसी भी बच्चे को कहने का मौका न मिले - ‘खाने का सारा सामान हटा लो! ये मिनिस्टर है! सब खा जाएगा।’

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