आलिंगन के बाहर भी प्रिय!

 
  


श्री बालकवि बैरागी के कविता संग्रह
‘ओ अमलतास’ की दसवीं कविता 

यह संग्रह श्री दुष्यन्त कुमार को
समर्पित किया गया है।



आलिगन के बाहर भी प्रिय !


आलिगन के बाहर भी प्रिय !
बहुत बड़ा संसार पड़ा है

बाहों के घेरे में केवल, कंचन तन का ताजमहल है
बहुत हुआ तो तट से छूता, जमुना तल का राजमहल है
लेकिन उसके आगे भी प्रिय!
गोकुल का विस्तार पड़ा है
आलिगन के बाहर भी प्रिय! बहुत बड़ा संसार पड़ा है।

यह सच है मादक आलिंगन, सुधबुध सारी हर लेता है
एक सनातन रूप पिपासा, रोम-रोम में भर देता है
किन्तु रूप के आगे भी प्रिय!
सत्, शिव अपरम्पार पड़ा है
आलिगन के बाहर भी प्रिय! बहुत बड़ा संसार पडा है।

काया कभी न कर पायेगी, भूख प्यास से कड़ा बहाना
यह भी सच है बड़ा कठिन है, प्यासे मरुथल को समझाना
किन्तु परिधि के बाहर भी प्रिय!
रस का पारावार पड़ा है
आलिंगन के बाहर भी प्रिय! बहुत बड़ा संसार पड़ा है।
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‘ओ अमलतास’ की नौवीं कविता ‘यौवन के उत्पात वसन्ती’ यहाँ पढ़िए

‘ओ अमलतास’ की ग्यारहवीं कविता ‘ओ अमलतास!’ यहाँ पढ़िए 




संग्रह के ब्यौरे
ओ अमलतास (कविताएँ)
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - किशोर समिति, सागर।
प्रथम संस्करण 1981
आवरण - दीपक परसाई/पंचायती राज मुद्रणालय, उज्जैन
सर्वाधिकार - बालकवि बैरागी
मूल्य - दस रुपये
मुद्रण - कोठारी प्रिण्टर्स, उज्जैन।
मुख्य विक्रेता - अनीता प्रकाशन, उज्जैन
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