आसमानी सुलतानी (कहानी संग्रह ‘बिजूका बाबू’ की सातवीं कहानी)




श्री बालकवि बैरागी के कहानी संग्रह
‘बिजूका बाबू’ की सातवीं कहानी

यह संग्रह, इन कहानियों के पात्रों को
समर्पित किया गया है।



आसमानी सुलतानी

अब आप ही करो इनसाफ। एक आदमी है। अपने घर के बरामदे में बैठा-बैठा अपना काम कर रहा है। धूप भी ले रहा है और काम भी वही कर रहा है जो उसकी घरवाली ने उसे बताया। और ऐसे में कुछ हो-हुआ जाए तो उसे आप क्या कहेंगे? न वो शख्स कहीं गया, न किसी को उसने बुलाया। हबीब भाई के साथ बस जो कुछ हुआ, उसे पता नहीं आप क्या कहेंगे। पर अगर भगवान के घर न्याय है तो फिर क्या वह यही है? किसी का आज तक हबीब भाई ने कुछ बिगाड़ा नहीं। रास्ते जाना और रास्ते आना, जिसे कहते हैं-ऊधो का लेना, न माधो का देना। पर अपने बरामदे में बैठे-बिठाए आदमी बदशकल हो जाए! लोग समझ ही नहीं पाए कि हँसा जाए या रोया जाए। तो फिर आप ही कीजिएगा इनसाफ। न कोई कहानी, न कोई किस्सा। न किसी अफसाने का हिस्सा।

हुआ यह कि दिसम्बर की एक सुबह, जरा सी थरथराती सुबह बरामदे में उतरी कि हबीबन चाची ने हबीब भाई के सामने, रुई भरी, नई-नकोर रजाई रख दी। बोली, ‘अभी नमाज में थोड़ा वक्त है। पहली तो पढ़ ही आए हो। बैठे-बैठे जरा इस रजाई में टाँके ही मार दो। दिन ढलते-ढलते इसका ग्राहक आ जाएगा और अपनी रजाई माँगेगा। शाम पड़ते-पड़ते सर्दी हो ही जाती है। तब तक दूसरा काम निपटा लेती हूँ।  धूप भी लेते रहना और मेरा काम भी हलका कर देना।’

हबीब चाचा का मन हुआ कि एक बार मना कर दें। पर सोचा कि सुबह-ही-सुबह घरवाली का दिमाग खराब हो गया तो सारा, दिन सूली पर टाँगकर रखेगी। ‘हाँ’ कर ली और सुई में डोरा डालकर बैठ गए रजाई फैलाकर। मुहल्ले के लोगों में हलकी सी कानाफूसी हुई। वही रोजवाला जुमला हवा में उड़ा, ‘लो भई! बैल जुत गया है।’ पर रोज की तरह हबीब भाई ने हवा की बात को हवा में ही रखा। 

आदमी बहुत संजीदा हैं हबीब भाई। बिला नागा पाँचों बार को नमाज पढ़ते हैं। अस्ता-बस्ता लेकर गरीब-गुरबों के बच्चे अगर आ जाएँ तो जितनी खुद जानते हैं उतनी उर्दू पढ़ाने लग जाते हैं। कभी-कभी तो हबीब-भाई का बरामदा अच्छे-भले मदरसे की रौनक दे बैठता है। पर सब पर अख्तियार है हबीबन चाची का। अगर वे खुश तो सब ठीक, अगर वे झल्ला पड़ीं तो सबकी ऐसी-तैसी। हबीब भाई सारे जमाने को समझा सकते हैं, पर अपनी घरवाली को नहीं। आए दिन वाज में शामिल होते हैं। अनीस के मर्सिये गा-गाकर हबीब भाई ने सारे गाँव और गाँव ही क्या, मुहर्रम के आस-पास जुटी, सारे इलाके की भीड़ का कलेजा पिघलाकर बता दिया। पर गए चालीस साल से वे अपनी घरवाली का कलेजा टस से मस नहीं कर सके। समय आ जाए तो चाची जान दे दे, पर हबीब भाई कहते हैं कि इसका उलटा भी होता आया है। अगर वह लेने पर तुल जाए तो जान ले भी लेती है। दोनों में खूब लगती भी है और खूब पटती भी है। ऐसा नहीं होता तो भला चालीस साल यों खिलखिलाते निकल सकते थे? और अगर दिन इस तरह निकल भी जाते तो भी तीन बेटों और एक बेटी का हँसता-खिलता गुलशन घर में महकता क्या? हबीब भाई इन सबको खुदा की नेअमत मानते और अल्लाह-अल्लाह करते एकदम ठाट से अपनी घर-गिरस्ती चलाते दुनियादारी के फर्ज निबाह रहे थे। अगर उनको चिढ़ होती थी तो बस सुबह-ही-सुबह हबीबन चाची के ऊल-जलूल हुक्मों से। पर वे मन मारकर बरामदे में आ बैठते और सिर नीचा करके वह सारा काम चुपचाप करने लग जाते जो उनकी घरवाली उनको बता दिया करती थी। लड़के-बच्चे अपने-अपने काम पर निकल जाते। हबीब भाई पूरी पाबन्दी से नमाज अदा करते। बचे हुए वक्त में नियम से पवित्र कुरान शरीफ की आयतें खुद पढ़ते और मेल-जोलवालों को उसकी सीख देने की कोशिश करते। जैसा इस पवित्र ग्रन्थ में लिखा है वैसा ही वे बताते। किसी को वाज या उपदेश नहीं देते।

आज हालाँकि वे एकदम ताजे थे, पर जब हबीबन चाची ने उनको रजाई में टाँके डालने का काम बताया तो भीतर-ही-भीतर वे बहुत झल्लाए। पर सवेरे-सवेरे रिजक के टाइम पर कौन मुँह लगे! यही सोचकर बरामदे में चटाई बिछाकर सूरज की तरफ मुँह करके रजाई में टाँके लगाने की शुरुआत कर बैठे। बरसों हो गए थे सुई को हाथ लगाए। कौन पड़े इस किच-किच में? खुदा से डरनेवाले एक नेक और नमाजी आदमी के तौर पर पहचाने जानेवाले हबीब भाई को इस तरह काम करते देखना वैसे कोई विशेष दिलचस्पी का मामला नहीं था, पर रास्ते चलते लोग फिकरेबाजी से चूकते कब हैं? कहनेवाले कह ही देते हैं। सो किसी ने कह ही दिया, ‘लो भई! जुत गया बैल।’ हबीब भाई ने सुनी-अनसुनी कर दी। एक तो कुनकुनी धूप, फिर सुबह का टाइम। लिया नाम अल्लाह का और टाँके लगाने का काम चालू।

अब आप ही करना इनसाफ। आदमी अपने बरामदे में बैठा हुआ अपना काम कर रहा है। एक नमाज पढ़ चुका है, दूसरी पढ़ने के पहले उसे उसकी बीवी ने अपनी मजदूरी में लगा दिया है। न वह किसी के रास्ते में पड़ रहा है, न किसी से बोल रहा है। मन-ही-मन ‘अल्लाह-अल्लाह’ करता हुआ टाँकों की दूरियाँ नाप रहा है। टाँकों की डिजाइन उसके दिमाग में घुमड़ रही है। उसकी बीवी मकान के भीतर चूल्हे से बातें कर रही है, यह वह साफ सुन रहा है। बेटी उसकी मदद करने के लिए आटे पर छलनी चला रही है। बेटे दिन भर के काम को तरतीब देने के लिए अपनी-अपनी दिशा में जा चुके हैं। आते-जाते के सलाम झेलने के सिवाय हबीब भाई को सिर उठाने की फुरसत तक नहीं है। अच्छा-भला सवेरा है और ऐसे में दूर गली में कहीं दो कुत्तों के भौंकने और फिर लड़ने की आवाजें सुनाई पड़ने लगती हैं। लड़ते-लड़ते दोनों कुत्ते गली के मोड़ पर मुड़ते हैं। अब आप ही करना इनसाफ। हबीब भाई को फुरसत नहीं है इस कुत्तेपने को देखने की। पर लड़ते-लड़ते वे दोनों कुत्ते ठीक हबीब भाई के सामने आ जाते हैं। दोनों की आवाजे सारे रास्ते का अमन तबाह कर देती हैं। आते-जाते लोग बच-बचकर निकलने लगे हैं। एक पल को हबीब भाई सिर ऊपर को उठाते हैं, एक उड़ती नजर दोनों कुत्तों पर डालते हैं और बुदबुदाकर.....‘सवेरा तबाह कर दिया हरामियों ने। तौबा है। लाहौल वला कूवत।’ जैसा कुछ उनके मुँह से निकलता है और वे फिर सिर नीचा करके टाँका मारने की कोशिश करते हैं। पर तब तक..... अब आप ही करना इनसाफ। कुत्ते आखिर कुत्ते हैं। लड़ते हैं तो भी पूरी तबीयत से लड़ते हैं। कोई एक-दूसरे को चाट तो रहे नहीं थे! आखिर काट ही रहे थे! आस-पास के मकानों में से कच्ची-पक्की उम्र के बच्चे बाहर निकल आए। अपनी-अपनी तहजीब से सभी उनको भगा रहे थे। सभी के अपने-अपने फिकरे और अपने-अपने जुमले थे। हबीब भाई ने एक बार सिर ऊँचा करके देखने का पाप कर लिया, सो कर लिया। पर कुहराम इतना था कि सारा मुहल्ला भौं-भौं और हो-हल्ले में डूब सा गया था। आखिर हुआ वही.....अब आप ही कीजिए इनसाफ। हबीब भाई का आखिर क्या कसूर था?

वे चाहे बेमन से ही सही, पर कर रहे थे अपना काम। एक कुत्ता, जो कि कुछ कमजोर पड़ रहा था, रास्ते से उछलकर हबीब भाई के ठीक सामने उनकी ही चबूतरी पर चढ़ आया। उसका ऊपर चढ़ना था कि नीचेवाला पूरी ताकत से उसको भँभोड़ने के लिए ऊपर उछला और लपककर उसके ऊपर चढ़ बैठा। नीचेवाला अपनी जान बचाने के लिए.......अब आप ही करना इनसाफ। आखिर हबीब भाई की इसमें कौन सी गलती थी? तो, वह नीचेवाला अपनी जान बचाने के लिए भरपूर ताकत लगाकर ऊपरवाले की पकड़ से छूटकर तीर की तरह भागने के चक्कर में जोर से उछला और हवा में गोता खाते ही सीधा हबीब भाई के मुँह से जा टकराया। आनन-फानन हबीब भाई ने अपने दोनों हाथों से अपना मुँह ढाँपकर चोट से बचने की कोशिश की। वे उसमें कामयाब भी हो गए। पर आखिर चालीस किलो वजनवाला कुत्ता तीर की तेजी से टकरा जाए तो कुछ-न-कुछ तो होगा ही! तो अब आप ही कीजिए इनसाफ।

इस सीन को देखते ही नीचेवाला कुत्ता भौंकता हुआ अगलेवाले मोड़ की तरफ भाग गया। हबीबन चाची चूल्हे में से जलती हुई लकड़ी लेकर हबीब भाई की मदद पर लपकी। मुहल्लेवाले लोग जैसा मजा ले सकते थे वैसा लेते रहे। आदमी तो पचासों इकट्ठे हो गए, पर हमदर्दी किसे थी! सभी ठहाके लगा रहे थे। टकरानेवाला कुत्ता भी जमीन छूते ही जान बचाकर मुहल्ले के दूसरे सिरे की तरफ भाग खड़ा हुआ। पर अब आप ही करिए इनसाफ! भला हबीब भाई क्या इन कुत्तों को न्योता देने गए थे? क्या उनके वहाँ कोई दावत होने जा रही थी, जो हबीब भाई दावतनामा देते? पर हद हो गई। हबीब भाई ने अपने दोनों हाथ ज्यों ही अपने मुँह पर से हटाए तो देखते क्या हैं कि उनके हाथों में सामनेवाले दोनों दाँत जड़ समेत पड़े हुए हैं। मुँह सेखून बह रहा है और खून के छींटे उस नई रजाई पर नए-नए आकार ले रहे हैं। एक लमहा भर तो हबीब भाई कुछ समझे ही नहीं, पर फिर उनकी आँखों के सामने कुछ काले-पीले धब्बे उछले और वे अचेत होकर आधे मुँह रजाई पर ही गिर गए। गिर क्या गए, एक तरह से बिछ गए।

हबीबन चाची भागकर भीतर गई और जलती लकड़ी को वापस चूहे में डालकर ‘या अल्लाह’ कहती हुई हबीब भाई को सँभालने लगी । जरा होश आने पर जो नजारा सामने आया तो.....लो, अब आप ही कर लो इनसाफ! हबीब भाई की नाक में से भी तब तक खून बह चला। भाग-दौड़ करके मुहल्लेवालों ने हबीब भाई को अस्पताल पहुँचाया। न रोने के, न हँसने के। एक पाक-साफ और नेक नमाजी आदमी पर आखिर बड़ी सुबह-ही-सुबह दूर मुहल्ले से लड़ते-लड़ते आवारा कुत्ते इस तरह बैठे-बिठाए गिर पड़ें, दो दाँत हमेशा के लिए जबड़ों की जगह हाथ में आ जाएँ! इस सबको आप कहेंगे क्या? एक तो हबीब भाई के मुँह में वैसे ही इने-गिने दाँत बचे थे, पर सामनेवाले ये दोनों दाँत हबीब भाई को वाज पढ़ने में, मर्सिया गाने में और हलका-फुलका खाना-वाना खाने में कितनी मदद करते थे, यह बस हबीब भाई ही जानते थे।

खैर साहब, अस्पताल में कोई ज्यादा लम्बा-चौड़ा काम तो था नहीं। पॉँच-पच्चीस आदमी वहाँ मिजाजपुर्सी के बहाने पहुँचे, पर वे भी हबीब भाई का मजाक उड़ाकर चले आए। सबने अपनी-अपनी नसीहत दी। डॉक्टर ने दो-एक घण्टे के बाद अस्पताल से हबीब भाई को वापस घर भिजवा दिया। हबीब भाई गए थे ठेले में, लौटे तो पैदल-पैदल। पर अब आप ही कीजिए इनसाफ। इसमें हबीब भाई की कौन सी गलती थी? पर टूटे दाँतोंवाला ताजा-ताजा सूजा मुँह लेकर हबीब भाई घर लौटे तो उनको हबीबन चाची ने सहारा देकर, उसी रजाई से सटाकर, दीवार से टिकाक़र बैठाया और आस-पास खड़े अपने तीनों बेटों और बिटिया को परे सरकाते हुए, मुहल्ले के लोगों को आवाज देकर अपने पास बुलाते हुए हबीब भाई से कहा, ‘पाँच बार नमाज पढ़ते हैं, पचास बार कुरान शरीफ को चूमते हैं, वाज सुनाते हैं, खुदा से डरते हैं, किसी को नसीहत नहीं करते, पर तुम्हारे मन में जो है न, उसे खुदा खूब समझता है। आखिर दस कोस दूर से लड़ते-लड़ते दो फालतू कुत्ते सारा शहर छोड़कर आप ही के मुँह से क्यों टकराए? चलो, दो नहीं और एक टकराया। पर आखिर आपके ही चेहरे पर ऐसा कौन सा नूर था, हुजूर? मैं तो साफ-साफ कहूँ। दाँत तो वापस आने से रहे, पर इतना सा नुकसान खाकर भी आदमी खुदा का खौफ खा ले तो मेहरबानी है। सवेरे-सवेरे रिजक के टाइम पर मैंने हाथ में सुई-डोरा ही तो दिया था! कोई जिन्दा साँप तो नहीं दे दिया था! मैं समझ गई थी कि मियाँजी झल्लाने वाले हैं। जो आग मेरे चूल्हे में जलनी थी, वह जनाब के कलेजे में जल रही थी। रिजक की टेम मरे मन से जो भी काम हाथ में लेगा खुदा उसका यही हश्र करेगा। बोलो रे बोलो मुहल्लेदारों! तुम्हारी चाची ठीक बोल रही है कि नहीं ?’

अब आप ही करो इनसाफ। किसकी हिम्मत थी जो चाची को मना करे! हर कोई बोल रहा था, ‘चाची बिलकुल ठीक कहती हैं।’

हबीब भाई ने एक नामुराद नजर यहाँ से वहाँ तक खड़े रहनेवाले सभी तमाशबीनों पर डाली। हताश होकर वे अपने बड़े बेटे से कहते सुने गए, ‘मैं सारा हरजाना म्युनिसिपेलिटी से वसूल करूँगा। तू जा वकील साहब के पास।’ अब आप ही करो इनसाफ।

इसपर भी चाची भीतर से दहाड़ती हुई बोली, ‘म्युनिसिपेलिटीवाले इनपर एक कुत्ता और भिड़ा देंगे और बचे-खुचे दाँत भी जब टूट जाएँगे तो फिर हरजाने में नई बत्तीसी बनवा देंगे। खबरदार है जो तू कहीं गया। उस रजाई पर से सुई ढूँढ़कर दे दे मियाँजी को। बैठे-बैठे टाँके मार देंगे। रजाई का मालिक दो-एक घण्टे के बाद आने ही वाला होगा। आसमानी सुलतानी और किसे कहते हैं? आखिर दाँत ही तो टूटे हैं, हाथ तो सलामत हैं।’

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‘बिजूका बाबू’ की छठवी कहानी ‘रतिराम एण्ढ संस’ यहाँ पढ़िए।

‘बिजूका बाबू’ की आठवी कहानी ‘शिखर सम्मान’ यहाँ पढ़िए।


कहानी संग्रह के ब्यौरे -

बिजूका बाबू -कहानियाँ
लेखक - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - प्रभात प्रकाशन, 4/19, आसफ अली रोड़, नई दिल्ली-110002
संस्करण - प्रथम 2002
सर्वाधिकर - सुरक्षित
मूल्य - एक सौ पचास रुपये
मुद्रक - नरुला प्रिण्टर्स, दिल्ली

 

  

 


 

 

 


 

 



 

 

 

 


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