गायत्री-गर्भ



श्री बालकवि बैरागी के कविता संग्रह
‘रेत के रिश्ते’ 
की अठारहवीं कविता 

यह कविता संग्रह
श्री पं. भवानी प्रसादजी मिश्र को 
समर्पित किया गया है।


गायत्री-गर्भ

पाण्डुरोग का रोगी
तुम्हारा यह सूरज
न तो फसलें पकाता है
न बादल बनाता है।
इसके कारण ऋतुएँ
नहीं होतीं ऋतुमती
उजाला तो खैर इसके पास
कभी था ही नहीं।
वह गर्भ, गर्भ ही नहीं था
जिसमें इसका भ्रूण बना,
वह कोख, कोख ही नहीं थी
जिसने इसे जना।
ढाक के सूखे पत्ते सा
टाँक तो दिया है इसे तुमने आकाश में
पर अब यह रोक नहीं पा रहा है रात को।
लोग गालियाँ दे रहे हैं सूरज की जात को।
ब्राह्मण कैसे करें त्रिकाल सन्ध्या?
क्षत्रिय कैसे कहें खुद को सूर्यवंशी?
वैश्य कैसे करें सूर्याेपासना?
और शूद्र कैसे लें शकुन?
धरती पर कोलाहल
और आकाश में सन्नाटा
चुम्बन के नाम पर तुम्हारा यह चाँटा
भूल नहीं पायेंगे तुम्हारे ही बन्दीजन
बेसुरी प्रभातियाँ गानेवाले
इस रोग-काल में
टटपुँजिये तारे सड़ियल सूरज को
जितना भुनाना चाहें भुना लें।
दूर कहीं शुरु हो गई है गायत्री
तुम परेशान मत होओ इस हलचल पर
शायद सही सूर्य का रथ लेकर
अरुण पहुँच ही रहा है उदयाचल पर।।
-----

रेत के रिश्ते - कविता संग्रह
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - साँची प्रकाशन, बाल विहार, हमीदिया रोड़, भोपाल
प्रथम संस्करण - नवम्बर 1980
मूल्य - बीस रुपये
मुद्रक - चन्द्रा प्रिण्टर्स, भोपाल
-----
 
 

 




















5 comments:

  1. Replies
    1. टिप्‍पणी के लिए बहुत-बहुत धन्‍यवाद।

      Delete
  2. चयन हेतु बहुत-बहुत धन्‍यवाद।

    ReplyDelete
  3. न जाने क्यों यह सूरज, सूरज कहे जाने पर इतरा जाता है। अपने ही किए वादो से मुकर जाता है।
    गज़ब लिखा है बैरागी जी ने... वाह!
    आपको साधुवाद।
    सादर

    ReplyDelete
    Replies
    1. टिप्‍पणी के लिए बहुत-बहुत धन्‍यवाद। आपकी टिप्‍पणी ने मेरा हौसला बढाया।

      Delete

आपकी टिप्पणी मुझे सुधारेगी और समृद्ध करेगी. अग्रिम धन्यवाद एवं आभार.