निकम्मा (‘मनुहार भाभी’ की बाईसवीं/अन्तिम कहानी)



श्री बालकवि बैरागी के
प्रथम कहानी संग्रह
‘मनुहार भाभी’ की बाईसवीं/अन्तिम कहानी




निकम्मा  

सारा मित्र-मण्डल इस वात पर चकित था कि आखिर वल्लभ दादा ने एक असम्भव को सम्भव में कैसे बदल दिया? 

यह तो सभी जानते थे कि वल्लभ दादा अपनी धुन के पक्के थे और बीहड़ में भी रास्ता बनाने की कला में माहिर थे। पर विलीन बाबू के व्यक्ति को लेकर सभी आश्वस्त थे कि इस मोर्चे पर वल्लभ दादा जरूर मात खा जाएँगे। किन्तु वैसा हुआ नहीं और सफलता आज वल्लभ दादा के सामने साकार हो रही थी।

सरकार के सूचना अधिकारी बनकर जब से वल्लभ दादा जिले में आए थे, पत्रकारों में एक नई उमंग आ गई थी। एक तो वे हँसमुख, दूसरे गम्भीर और तीसरे, आज तक जितने भी सूचना अधिकारी आए, उन सबसे ज्यादा अनुभवी। उनकी टोपी में कई तुर्रे लगे हुए थे। सहज इतने कि सभी को सुलभ। सुलझे हुए इतने कि कलेक्टर साहब तक अपनी प्रशासकीय गुत्थियाँ सुलझाने में वल्लभ दादा के भरोसे निश्चिन्त। सरकार का काम समर्पित निष्ठा से करना और यार-दोस्तों के काम आना।

प्राथमिकता देकर पत्रकारों को, चाहे वह कैसा भी पत्रकार हो, वल्लभ दादा उसे बराबरी पर बैठाकर बात करते थे। उनके आने से सरकार की छवि तो बनी ही पर सूचना विभाग के जिला अधिकारी की छवि भी विशेष उभरकर सामने आई। जहाँ-जहाँ भी वल्लभ दादा रहे, वहाँ उन्होंने तो यश कमाया ही, सरकार को भी यश दिया और जिले के सभी अधिकारियों के परिवार भी आश्वस्त रहे। वल्लभ दादा का व्यंिक्तत्व और कार्यशैली सचमुच अनूठी थी। यह सब होने के बावजूद मित्र-मण्डल को पक्का भरोसा था कि विलीन बाबू वाले मामले में वल्लभ दादा भी चकरी खा जाएँगे। पर वैसा हुआ नहीं। परिणाम ठीक उल्टा निकला। वल्लभ दादा विजेता थे और विलीन बाबू जैसा आदमी आज वल्लभ दादा की चरखी पर चढ़कर चकरघिन्नी खा रहा था।

सचाई यह है कि जिला मुख्यालय का सारा पत्रकार परिवार विलीन बाबू के मारे तंग हो चुका था। वे किसी भी कारण से पत्रकार नहीं ये पर उनके पास ‘साप्ताहिक प्रवंचना’ नाम का अख़बार था। विलीन बाबू ही उसके मुख सम्पादक थे। चाहे उसकी दस कॉपी प्रति सप्ताह छपे, पर वह छपता जरूर था। चूँकि उसमें सम्पादकीय नहीं होता थीं, इसलिए  उस अखबार की वकत यहाँ से वहाँ तक रत्ती भर भी नहीं थी। ऐसा भाई लोग अक्सर विलीन बाबू से खुलकर कह भी दिया करते थे। विलीन बाबू का तर्क होता था कि पत्रकारिता और कविता से किसी डिग्री का क्या रिश्ता? हाँ, अगर ‘प्रवंचना’ पर पीत पत्रकारिता का कलंक लगा हो तो बताओ! चाहे जो करना पड़े पर प्रेस का बिल एक रुपए से लेकर एक लाख रुपए का भी है तो वह चुकाते तो विलीन बाबू ही हैं न!

विलीन बाबू पत्रकार कितने बड़े हैं और कैसे हैं, इस बहस को छोड़ भी दिया जाए तो उनके बारे में बहुत कुछ जाने बिना आप वल्लभ दादा की विजय का महत्व नहीं समझ सकेंगे।
आधी उम्र होने आई पर विलीन बाबू ने आज तक कोई काम या धन्धा नहीं किया। उनकी थीसिस बहुत सरल सी थी। वे कहते थे, ‘माँ-बाप ने पैदा किया, मैं पैदा हो गया। उन्होंने शादी की, मैंने अपना कौमार्य विलीन कर दिया। माँ-बाप चले गए, मैं भी चला जाऊँगा। उन्होंने सरकारी पाठशाला में पढ़ाने की कोशिश की, मैं वहाँ गया। फेल होने का जहाँ तक सवाल है मैं नहीं, वे ही फेल हुए। जब उनको पता था कि मैं पास होने वाला नहीं हूँ, तब फिर मुझे सीधा जीवन की पाठशाला में भेजना था। सरकारी शालाओं में से निकले लोग आज कहाँ पर क्या कर रहे हैं, आप अपने आप देख लो। तब भी जितना मैं वहाँ कर सका, मैंने किया। नाम किसी का डुबोया नहीं। भगवान ने एक बेटा दिया और फिर एक बेटी भी। मैं जैसे-तैसे दोनों को पाल ही रहा हूँ। माना कि इस काम में मेरी सहधर्मिणी की भूमिका विशेष है। अगर वो आज नर्स नहीं होती तो बच्चे पालना हम लोगों के लिए कठिन था। पर ‘प्रवंचना’ साप्ताहिक के मुख्य सम्पादक की पत्नी एक सड़ी सी, सरकार की तीन कौड़ी की नौकरी कर रही है, यह गौरव सरकार को मैंने दिया ही है, उससे लिया तो नहीं! अब बेटा जवान होगा तो अपने लायक लड़की ढूँढ़ ही लेगा और लड़की के लिए यह पक्का मान लीजिएगा कि वह कुँआरी नहीं मरेगी। भारत वह देश है जहाँ कुर्सी और कन्या कहीं कुँआरी नहीं रहती। इन दोनों चीजों के लिए तपस्या और तिकड़म करनेवाले लोगों की देश में कमी नहीं है।

जब-जब विलीन बाबू धाराप्रवाह होते, तब-तब उनके आसपास बैठे हर स्तर के पत्रकार सन्नाटे में आ जाते थे। विलीन बाबू खुद जानते थे कि उनके बारे में मित्र-मण्डल में राय क्या है। अक्सर वे यह कहते भी थे कि मेरी पीठ पर सभी मुझे निकम्मा कहकर मेरा अपमान करते, मेरा मखौल उड़ाते है। पर पत्रकारों के इतने बड़े इस रेवड़ में में अकेला वह पत्रकार हूँ जिसके पास चाहे कहने-भर को ही सही पर अपना खुद का अखबार है। अपना मालिक मैं स्वयं हूँ। शेष आप सभी केवल संवाददाता हैं। या तो किसी बनिए के नौकर हैं या फिर किसी संस्थान या फर्म के। बात थी भी सच। लोग जब चुप्पी लगा जाते तो विलीन बाबू कहते, ‘चलो! सबके सब परास्त हो गए हो, करो हमारी सेवा।’ और फिर वही होता कि जिसके भी यहाँ बैठक जमी हुई होती, वही चाय-समोसे करता। अपना हिस्सा विलीन बाबू पूरे आत्म-सम्मान के साथ खाते। एक डकार लेते। चाय का प्याला अपने पड़ोस में बैठे किसी बड़े पत्र के स्तरीय संवाददाता के ठीक सामने बाले स्टूल पर रखते। दूसरे पड़ोसी मित्र से अपने ब्राण्ड की सिगरेट माँगते। तीसरे से माचिस लेते और सुलगाकर खड़े हो जाते। सारा मित्र-मण्डल देखता रह जाता।

बैठक से बाहर आते ही विलीन बाबू अपनी बेहद पुरानी सायकल पर पैडल मारते और ‘साप्ताहिक प्रवंचना’ का मालिक शान से चल पड़ता। इस शान को सँवारने में विलीन बाबू को बहुत परिश्रम करना पड़ा था। सायकल तो उनको उनकी शादी के समय ससुराल से, यूँ कहिएगा कि एक तरह से दहेज में ही मिली थी। उसी को वे आज तक काम में लेते आ रहे थे। पर अपनी दिनचर्या को विलीन बाबू ने जिस तरह व्यवस्थित किया था, उसका कोई जोड़ आपको नहीं मिलेगा।

इस जिला मुख्यालय की आबादी एक लाख के आसपास चल रही थी। विलीन बाबू ने बड़ी कारीगरी से अपनी डायरी में उन साठ-सत्तर लोगों के नाम-पते नोट कर लिए थे जिनके यहाँ वे महीने में केवल एक दिन या तो सुबह के भोजन के समय जा निकलते थे या फिर शाम के। ऐसा ही क्रम उन्होंने अपनी डायरी में शाम-सुबह की चाय का भी बना रखा था। यह संख्या कभी सौ-सवा सौ से ज्यादह नहीं बढ़ी। उनका मुख्य लक्ष्य होता था-या तो चाय या फिर नाश्ता या फिर भरपेट भोजन। गणित हमेशा विलीन बाबू के पक्ष में ही रहा। एक का नम्बर महीने-सवा महीने में आता था। कभी-कभी उनमें क्रम-भंग के कारण हेरफेर भी हो जाता पर वे उपकृत सभी को करते थे। बख्शते किसी को भी नहीं। उनके हाथ में ताजा अंक की दो-तीन प्रतियाँ होतीं। एक प्रति वे उस परिवार मैं उपहार स्वरूप अवश्य छोड़ देते। इस समीकरण को देखते हुए उन्हें ‘प्रवंचना’ की प्रति सप्ताह पचास प्रतियाँ भी नहीं छपवानी पड़ती थीं। पर चार पेज का यह छोटा सा साप्ताहिक उनका हजार सवा-हजार रखने में सहायता कर ही देता था। दोपहर के बाद वे नियम से चले जाते थे सूचना विभाग के मुख्यालय में। वल्लभ दादा वहाँ झेलते ही क्या, ढोते तक थे। विलीन बाबू का सबसे बुरा दिन रहा करता था रविवार। छुट्टी का यह दिन फिर वे किसी न किसी तरह क्रम-भंग करके तीन-चार परिवारों में बाँट लेते थे। तब एक परिवार उस दिन वल्लभ दादा का होता ही था। वे चूँकि अपने घर से बहुत दूर तबादले पर थे, सो जाते भी कहाँ?

मित्र-मण्डल ने वल्लभ दादा पर यह भार डाला कि किसी तरह विलीन बाबू से  उनका और उनके शहर का पीछा छुड़ाने की व्यवस्था कर देें। यह एक चुनौती थी। विलीन बाबू पकड़ में आने वाले थे नहीं और वल्लभ दादा छोड़नेवाले लोगों में बिलकुल नहीं थे। उनके सामने स्तरीय पत्रकारिता का सवाल अलग था। विलीन बाबू के बारे में शहर में तरह-तरह की चर्चाएँ जिस तरह से होती थीं, उससे गम्भीर पत्रकारिता पर तो ऊँगली उठती ही थी। और इसी ऊहापोह में एक दिन मानसिक अस्तव्यस्त विलीन बाबू वल्लभ दादा की सँडासी की पकड़ मे फँस गए।

‘आपके लिए मेरे पास एक पूरे दस साल का यशस्वी प्रोजेक्ट है विलीन बाबू!’ कहते हुए वल्लभ दादा ने दो समोसों से भरी प्लेट आगे सरकाकर चाय की प्याली भी पेश कर दी। विलीन बाबू दस साला प्रोजेक्ट का नाम सुनते ही जमीन पर आ गए। चौंककर बोले, ‘आप मेरे सच्चे हितैषी हैं। आपका कहा मेरे लिए ऋषि-वचन होगा। हुक्म कीजिएगा।’

‘देश की आज की हालत आप देख ही रहे हैं। ऐसे में आप जैसा सम्पादक, विचारक, लेखक, चिन्तक और खासकर जमीन से जुड़ा हुआ मैदानी आदमी घर में ही बैठा रहे तो आखिर देश चलेगा कैसे? कभी आपने अपनी ऊर्जा और तेजस्विता के बारे में सोचा है विलीन बाबू? आपको कहाँ पैदा होना था और आप कहाँ पैदा हो गए! आपको कहाँ पत्रकारिता करनी थी और आप किस नरक में उलझ गए? रोज आप जिन लोगों के बीच उठते-बैठते और खाते-पीते हैं, क्या वे आपके नाखून तक भी पहुँचने के योग्य हैं? क्या बराबरी है आपकी और उनकी!’

विलीन बाबू लम्बी साँस छोड़ने लगे। जिन्दगी में यह पहला आदमी मिला था जिसने उनको समझा था। वे विनम्र होकर बोले, “आप वह दस साला प्रोजेक्ट मुझे दे दीजिए। मैं आपको निराश नहीं करूँगा। मुझे उसके लिए चाहे जो करना पड़े मैं करूँगा। अगर देश का काम है तब तो आप समझ लो कि विलीन देशमाता के लिए संसार तक से विलीन होने को तैयार हैं। हुक्म कीजिए।’

“करना आपको कुछ नहीं है। बस इस नारकीय नगर को, आपका खून रात-दिन पीनेवाले इन कीट-पतंग तुल्य तथाकथित मित्रों को दस साल के लिए एक ही झटके में छोड़ कर समूचे देश को जगाने के लिए अलख जागरण की यात्रा पर निकल पड़ना चाहिए। आपकी वाणी और आपकी ऊर्जा देश को नया चेतना संसार सिरजकर उपहार में देगी। आप भारत माता की सेवा करनेवाले सच्चे सपूत साबित होंगे। आपके कारण यह भी सिद्ध जाएगा कि भारत माता सचमुच ‘रत्न-प्रसूता’ है।” हालाँकि पहलेवाले दो समोसों में से विलीन बाबू ने अभी तक एक ही खाया था पर वल्लभ दादा ने दो समास और उसमें परोस दिए ।

विलीन बाबूके लिए यह खुराक हर तरह से ज्यादह थी। वे कुछ सोचने लगे। वल्लभ दादा यही क्षण विलीन बाबू से छीनने का गुणा-भाग मन ही मन कर रहे थे। बोले - ‘कलेक्टर साहब से मेरी सारी बात हो चुकी है। नगर के कुछ कद्रदान और आपके भक्त आपको नई सायकल भेंट कर रहे हैं। कल के अखबार आपकी तस्वीरों के साथ आपकी जीवनी छाप रह हैं। परसों सुबह सारे जिले के बड़े से बड़े अधिकारी एक समारोह करके आपको तिलक-नारियल- शाल अर्पण करेंगे। सायकल भेंट होगी, उस पर आगे जो बोर्ड लगेगा, उसका मैटर कलेक्टर साहब खुद तैयार कर रहे हैं। पूरे दस साल का आपका प्रवास चार्ट तैयार किया जा रहा है । देश का कोई क्षेत्र ऐसा नहीं है, जहाँ कि कोई कलेक्टर, कोई विधायक, कोई सांसद, कोई तहसीलदार, कोई पटवारी, कोई समाजसेवी, कोई छोटा-बड़ा क्लब, कोई संस्था वगैरह नहीं हो। सभी को यहाँ से सूचना भेजने की अनौपचारिक जिम्मेदारी कलेक्टर साहब ने मुझ पर डाली है। यह काम पहली किस्त में मुझे करना है और अगर साल-दो साल में यहाँ से मेरा तबादला हो गया तो मेरे बाद यहाँ जो भी अधिकारी आएगा, यह उसका काम होगा। यह प्रवास प्रोजेक्ट सरकार को सौंपने पर भी विचार चल रहा है। पर ये सारी बातें बहुत बाद की हैं। भ्रमण कार्यक्रम में आप अपने हिसाब से फेर-बदल कर सकते हैं पर इसकी सूचना अपने घर के साथ-साव यहाँ जिला मुख्यालय को भी देते रहिएगा ताकि उस सबकी जानकारी प्रचार और पब्लिसिटी के द्वारा देश को मिलती रहे । दिल्ली में राष्ट्रपति जी, उपराष्ट्रपति जी, प्रधान मन्त्रीजी और हजारों वी.आई.पी. आपकी वाणी का लाभ लेंगे। प्रदेशों की राजधानियों में राज्यपाल, मुख्य मन्त्री, मन्त्रि-मण्डल के साथी और हर जगह छोटे-बड़े अखबारों से जुड़े लोग, फिर गाँव-गाँव सांस्कृतिक संघ और पंचायतें। यानी कि देश में आप ऐसी लहर बनाकर व्यापेंगे कि आपका मखौल उड़ानेवाले ये टटपूँजिए मारे जलन के हाय-हाय नहीं कर पड़ें तो मेरा नाम वल्लभ नहीं।’

यूँ कहकर वल्लभ दादा अपनी जगह से उठे और पास की आलमारी खोलकर उसमे से एक अलबम निकालकर विलीन बाबू के बिल्कुल पास आ बैठे। उस बड़े से अलबम का पहला ही पृष्ठ वल्लभ दादा ने खोला तो विलीन बाबू की आँखें फटी की फटी रह गईं। उस पृष्ठ पर विलीन बाबू के युवा काल का एक खूबसूरत सा फोटो करीने से चिपका हुआ था। वल्लभ दादा ने प्रोजेक्ट को आगे बढ़ाया - ‘इसका सारा खर्च कलेक्टर साहब ने खुद किया है। शेष सारे पृष्ठ इसलिए खाली रखे हैं कि यह अलबम आपको सायकल के साथ ही भेंट किया जाएगा ताकि आप जगह-जगह महत्वपूर्ण लोगों के साथ अपने फोटो निकलवा कर पब्लिसिटी के लिए अपने पास रख सके।

विलीन बाबू के हाथ की चाय ठण्डी हो चुकी थी। समोसे जस के तस पड़े थे। अपनी यादों में वे शायद सायकल पर पैडल मारते हुए किसी स्वप्नलोक की यात्रा कर रहे थे। उन्होंने छोटा-सा सवाल किया, ‘मुझे क्या करना है?

एक मुक्का टेबुल पर मारते हुए वल्लभ दादा ने उनसे कहा, ‘बस यही वह मुकाम है जहाँ आपको ध्यान रखना है। आपको करना बस यही है कि परसों तक यह बात किसी से कहनी नहीं है। अपनी घरवाली से भी नहीं, बच्चों से भी नहीं। कल जब अखबारों में सब कुछ छपेगा तब लोगों को अपने आप मालूम पड़ जाएगा। आपके आवास  पर बधाई देनेवालों का ताँता लगेगा। आप मुस्कुराते हुए फूलहार स्वीकार कर लीजिएगा। अगर आप फूट गए तो परसों सुबह तक लोग इस प्रोजेक्ट को लँगड़ी मार सकते हैं। कान से जरा से कच्चे हैं हमारे कुछ लोग। वे लोग इसके आर्थिक पक्ष पर विचार करने लग जाएँगे। साफ लग रहा है, इस यात्रा में आपको गाँव-गाँव नकद राशि भी मिलने की सम्भावना है। ऐसा नहीं हो कि प्रोजेक्ट आपकी जरा-सी लापरवाही से ध्वस्त हो जाएँ। पूरे 48 घण्टे तक आपको इस योजना को इस तरह सँभालना है जैसे एक गर्भवती सद्गृहिणी अपनी कोख में अपना वंश-पल्लव सँभालती है। आप बस चुप्पी लगा लीजिए। मैं कलेक्टर साहब से बात करता हूँ।’

विलीन बाबू उठने लगे तो वल्लभ दादा ने उनके हाथ में उनकी ब्राण्ड की सिगरेट का पूरा पैकेट थमा दिया। गम्भीर मुद्रा में विलीन बाबू उठ खड़े हुए। उन्होंने वल्लभ दादा के पाँव छुए। कहने लगे, ‘आपका एहसान मैं जीवन-भर नहीं भूलूँगा आपने मेरे जीवन का रास्ता ही बदल दिया है। मैं आज्ञा लेता हूँ।’

उनको गले से लगाते हुए वल्लभ दादा ने कहा, ‘इस ससुरालवाली सायकल पर आप बस अन्तिम बार सवारी कर लो। इसके बाद इसे दस साल के लिए सम्भाल कर रखने का निर्देश, परसों विदा होते समय अपने स्वागत भाषण में दे दीजिएगा। हम लोग कोशिश करेंगे कि इस सायकल को पुरातत्त्व वाले अपने जिला संग्रहालय में रख लें। वापस आकर आप चाहें तो लिखा-पढ़ी करके इसे ले लेना या फिर यह राष्ट्र की सम्पत्ति हो ही जाएगी। आपको अग्रिम बधाई।’

और विलीन बाबू जिला सूचना मुख्यालय से विदा हो गए।

आगे कहानी बहुत छोटी-सी है। विलीन बाबू से पीड़ित दोस्तों ने तत्काल चन्दा किया। एक ब्राण्ड न्यू सायकिल खरीदी। यात्रा का बढ़िया बोर्ड लिखवाया। रात भर यहाँ-वहाँ भागकर फोन-फून करक दूसरे दिन के अखबारों में विज्ञापन मैनेज किए। तरह-तरह के विशेषण और अलंकारों के साथ विलीन बाबू का जीवन-वृत्त छपने की व्यवस्था की। अगले दिन वाले -समारोह के शामियाने और फूलहार की व्यवस्था की। अखबारों में विज्ञापन आने के बाद सारा दिन विलीन बाबू के घर पर तरह-तरह के लोगों को भेजकर फूलहार और गुलदस्तों के साथ बधाइयाँ देने वालों की लिस्ट बनाकर उनको सावधान किया। रहस्यमय चुप्पी की हरएक ने कसम खाई। जैसे-तैसे एक महीने के भ्रमण का चार्ट बनाया। उस बोगस परिपत्र का मसविदा बनाया जो कि इस यात्रा को लेकर सारे देश में प्रसारित किया जाने वाला था। स्थानीय और प्रादेशिक पब्लिसिटी की व्यवस्था की। कलेक्टर साहब को समझा-बुझाकर विदाई-समारोह में मुख्य अतिथि बनने के लिए सहमत किया। श्रीमती विलीन को इस विदा बेला में आश्वस्त करने के लिए एक हजार रुपयों का चन्दा अलग से किया। दस सालों तक ‘प्रवंचना’ का काम कौन देखे और विलीन बाबू का मानस-पुत्र यह अखबार बन्द नहीं होने देने का वादा कौन करेगा, यह तय किया। विदाई समारोह के निमन्त्रण पत्र किस संस्था के नाम से छपेंगे। इसकी सावधानी बरती। सीधा-सा गणित था कि अगर आज चार-पाँच हजार रुपया सालाना पड़ता है। यानी कि पचास रुपया खर्च करके पूरे दस साल तक की राहत मिलती है तो यह खर्च कुल मिलाकर पाँच सौ रुपया महीना भी नहीं हुआ। दो रुपए रोज से भी कम में एक प्रोजेक्ट सफल हो रहा है। सौदा घाटे का नहीं है। विलीन बाबू के बीवी-बच्चे क्या करेंगे, इसके लिए एक ‘विलीन हितैषी सभा’ का नियमन करके, समय-समय पर सुविधा, बाल-बच्चों को प्रवास के दौरान पड़ावों पर ले जाकर मिलवाने और दो-एक दिन साथ रखवाने का आश्वासन तैयार किया गया। यानी कि भाई लोग रात-भर इसी काम में लगे रहे।

दूसरे दिन सारा शहर अखबार देखकर भाैंचक था। विस्तार से विलीन बाबू की यात्रा के समाचार शहर से निकलने वाले सभी अखबारों में थे। एक-दो में विलीन बाबू का फोटो भी था। प्रदेश के बड़े शहर से आने वाले एकाध बड़े अखबार ने भी इस समाचार को प्रमुखता से छापा। विलीन बाबू की पत्नी और बच्चे अचकचाए, परेशान, सारे दिन बधाई देने वालों को देखते रहे। समय का अन्तराल देखकर पत्नी ने पूछा भी सही कि पूरे दस साल का मामला है। यह क्या कर रहे हो?

विलीन बाबू वल्लभ दादा को दिए गए वचन के अनुरूप चुप थे। छोटा सा उत्तर देते रहे - ‘मालूम पड़ जाएगा। जरा तसल्ली रखो। यह छोटा सा सवाल नहीं है। घर-परिवार क्या होता है? सारा देश मेरा घर है।’ पत्नी ने माथा ठोक लिया।

तीसरे दिन निर्धारित समय पर विलीन का विदाई समारोह बहुत ही शानदार ढंग से सम्पन्न हुआ। सारा पैंतरा नपातुला था। कहीं, कोई चूक नहीं हुई। यारों ने विलीन बाबू को फूलमालाओं से लादकर इतने फोटो निकलवाए कि विलीन बाबू निहाल हो गए। आधा दर्जन फोटो विलीन बाबू की पत्नी के साथ, उनके, अकेले के अलग से खिंचवाए गए, ताकि वक्त जरूरत काम आएँ। कुंकुम तिलक लगाया गया। नारियल, शाल, सायकल और तरह-तरह की भेंटंे। एक से एक आला भाषण, विलीन बाबू गद्गद। दोस्त लोग अश्-अश्। शहर के हजारों लोग समारोह के साक्षी। तरह-तरह की बातें विलीन बाबू के लिए। कोई उन्हें ‘शहर की शान’ कह रहा है, कोई ‘मिट्टी का सच्चा सपूत’ तो कोई ‘गुदड़ी का लाल’, किसी को उनमें ‘विश्व सायकल चैम्पियन’ नजर आ रहा है तो कोई ‘त्यागी-बैरागी’ और ‘संन्यासी’ तथा ‘ब्रह्मचारी’ से उनकी तुलना कर रहा है। कुछ लोग बतियाते सुनाई पड़े, “देखो! यार लोग इसे ‘निकम्मा’ और ‘रोटीराम’ कहकर मजाक उड़ाया करते ये। पर आखिर देश की चिन्ता में सारे शहर में एक ही पट्ठा निकला!” तभी तरह-तरह के नारे लगने लगे। ‘विलीन बाबू जिन्दाबाद!’, ‘भारत माता की जय!’,  ‘शहर का सपूत अमर रहे!’ यानी कि तरह-तरह के नारे। नारों में एक मरा-मरा सा नारा उछला, ‘वल्लभ दादा जिन्दाबाद’। विलीन बाबू ने सायकल पर पैडल मारना चाहा, पर दौड़कर वल्लभ दादा ने उनको गले से लिपटाते हुए बाँहों में भर लिया। खींचते हुए भीड़ से जरा-सा एक तरफ ले जाकर विलीन बाबू के कान में फुसफुसाए - ‘यात्रा संभल कर करना। तबीयत का ध्यान रखना। समाचार बराबर देते रहना, इधर की चिन्ता मत करना, वक्त-वक्त पर प्रेस नोट इधर भी भेजना और हाँ, यह कलेक्टर जरा टेढ़ा आदमी है। इसकी चपेट से दूर रहना। दस साल से पहले अगर आपने इस यात्रा को भंग कर दिया तो जो यहाँ कलेक्टर आएगा, वह तो आप पर मुकदमा चलाएगा ही, पर यह जहाँ भी रहेगा, वहाँ कुछ न कुछ करेगा जरूर। तो यह यात्रा दस के बदले ग्यारह बरस की कर लेना।’ और विलीन बाबू की पीठ सहलाते हुए भरी-भरी आँखों से वल्लभ दादा ने यात्रा की सफलता की शुभ-कामना देते हुए विलीन बाबू को सायकल पर चढ़ा दिया। 

मित्र-मण्डल चकित था कि आखिर वल्लभ दादा ने असम्भव को सम्भव में कैसे बदल दिया!
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मनुहार भाभी - कहानियाँ
लेखक - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - नीलकंठ प्रकाशन, 1/1079-ई, महरौली, नई दिल्ली-110030
प्रथम संस्करण 2001
मूल्य - 150/- रुपये
सर्वाधिकार - लेखक
मुद्रक - बी. के. ऑफसेट, नवीन शाहदरा, दिल्ली-110032



रतलाम के सुपरिचित रंगकर्मी श्री कैलाश व्यास ने अत्यन्त कृपापूर्वक यह संग्रह उपलब्ध कराया। वे, मध्य प्रदेश सरकार के, उप संचालक, अभियोजन  (गृह विभाग) जैसे प्रतिष्ठापूर्ण पद से सेवा निवृत्त हुए हैं। रतलाम में रहते हैं और मोबाइल नम्बर 94251 87102 पर उपलब्ध हैं।
  

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