आभारी (‘मनुहार भाभी’ की ग्यारहवीं कहानी)



श्री बालकवि बैरागी के
प्रथम कहानी संग्रह
‘मनुहार भाभी’ की ग्यारहवीं कहानी




आभारी 

राजवंश बाबू के लिए सब कुछ नया-नया था। न कभी वे इस गली से गुजरे थे न इन गलियों के चरित्र का उनको कुछ अता-पता ही था।

जन्मना तो वे एक निरे देहाती थे पर समय और स्थितियों ने उनको देस-परदेस का पानी पिला दिया था। जब-जब वे अपने गाँव जाते थे, सारा गाँव उनके आसपास इकट्ठा हो जाता था। लोग तरह-तरह से विदेशों के किस्से-कहानियाँ और भारत में और वहाँ में किन-किन बातों में, क्या-क्या फर्क है, यह सब पूछते रहते थे। वे बड़ी उमंग से सब-कुछ बताया करते थे। अमेरीका, इंग्लैण्ड और सारा यूरोप घूमने के बाद भी, राजवंश बाबू के भीतर का निश्छल भारतीय देहाती, जीवित था। यह शायद संस्कार की ही माया थी। लोग कहते भी थे कि घाट-घाट का पानी पीने के बाद भी, आदमी खुद को कितना बचाकर रखता है, यह देखना हो तो अपने राजवंश को देखो। उनकी पढ़ाई पूरी हुई थी कि घर से सूचना मिली-तत्काल उनको भारत आना है। यहाँ उनको एक जरूरी काम दिया जा रहा है, शकुन बहुत अच्छा है, फौरन लौेट आएँ। पहले जहाज से दिल्ली उतरे और गाँव के लिए रवाना हो गए। वहाँ जाने पर उनको पता चला कि उन्हें उन्हीं के इलाके से लाकसभा का चुनाव लड़ना है। पार्टी ने उनको टिकट दिया है। उनकी ढूँढ मची हुई थी। कोई पुराना पारिवारिक पुण्य फलित हुआ था। वे चुनाव लड़े और किसी लहर के माथे पर बैठकर सीधे संसद में जा बैठे। पढ़े-लिखे थे। बहस-मुबाहसों में वैसे भी दिलचस्पी रखते थे। जनता, प्रजातन्त्र, विकास, पार्टी और जनमत जैसे शब्दों का अर्थ गहरे तक समझते थे। विदेश में भारत की तरफ से यहाँ-वहाँ बोलते बतियाते थे। कई भाषाओं के अखबारों और पत्र-पत्रिकाओं में उनके पेपर छपते थे। यानी कि जो भी आदमी चुना है, सही चुना है। वे यह बात समझ नहीं पाए कि जनता ने उनके साथ न्याय किया या किसी लहर ने उनकी लाटरी खोल दी है। सब-कुछ नया-नया था। राजवंश बाबू बार-बार इन सारी बातों पर विचार करते और अक्सर सिहर-सिहर जाते। मनोलोक में तरह-तरह के ताने-बाने बुनते। कभी मुस्कुराते, कभी हँसते, कभी यूँ ही बुदबुदाते। अपने इलाके के लिए जरूरत से ज्यादा सक्रिय रहते। संसद के भीतर-बाहर जो भी बहसें होतीं, तो मात्र वे ही ऐसे संसद सदस्य माने जाते जो कि अण्डे से लेकर अणुबम तक पर बोल सकता हो। सदन में जब किसी भी विषय पर बुलवाने के लिए पार्टी को जरूरत पढ़ती, राजवंश बाबू शामिल हो जाते। 

पार्टी उनके भरोसे निश्चिन्त हो जाती कि वे दिए गये विषय पर सटीक बोलेंगे। देश-विदेश के समाचार पत्र उनकी बात को ससम्मान छापेंगे। पार्टी निश्चिन्त हो जाती थी, उनको काम सौंपकर। संसद की लॉबी में मित्र लोग उनकी इस क्षमता पर उनको बधाइ्याँ देते और उनके इलाके के लोग भी, इस बात से गर्वित होते थे कि उनका प्रतिनिधि कितना पढ़ा-लिखा, जागरूक और जुझारू है। बोलते समय राजवंश बाबू खुलकर बोलते थे। न इसका लिहाज ने उसका लिहाज। मर्यादाओं का पालन पूरी तरह करते और एक जागरूक सांसद की तरह, अपनी पहचान बनाने की दिशा में बराबर आगे बढ़ते चले जा रहे थे। यह सब-कुछ उनके लिए नया-नया अनुभव था। अपने विशेषाधिकारों का आकलन करने का समय वे कभी जुटा नहीं पाए थे। इसलिए कई बार दिल्ली के राजमार्ग पर अपने आपको अकेला भी पाते थे। जब-जब अकेले पड़ते, उन्हें अपने गाँव की पगडण्डियाँ याद आ जातीं। जिन्दगी की इस ऊँच-नीच को वे हँसकर टाल दिया करते और अपने काम से काम रखते। बिल्कुल पटरी पर चल रहे थे। उनका नियम था कि वे संसद की लाइब्रेेरी में जरूर घण्टा-आधा घण्टा रहेंगे। इस नियम का कड़ाई से पालन करने का सुख लेनेवाले इने-गिने सांसदों में उनका नाम लिया जाता था। सब-कुछ ठीक ही चल रहा था। लोग उनसे खुश थे। वे लोगों से खुश थे। योग्यता उनमें इतनी मानी जाती थी कि दिल्ली में ही उनके सामने बीस-पच्चीस हजार रुपए महीन का वेतन-भत्ते वाले प्रस्ताव आए दिन मँडराते मिलते थे। वे इन प्रस्तावा को टालकर एक नया सुख ले रहे थे। उनकी मानसिकता थी कि भगवान का दिया सब कुछ है तो अपने पास! जनता का काम निष्ठा से करना और पार्टी का काम समर्पित होकर करते रहना उनकी शैली थी। न ऊधो का लेना न माधो का देना। अपने काम से काम। सभी से हँसना, बोलना और सेण्ट्रल हॉल में गम्भीर विचार-विमर्श के साझीदार बनना उनका शगल हो चला था। पत्रकार और सभी दलों के सांसद उनके साथ निस्संकोच बैठते और विचारों का आदान-प्रदान बेखटके करत थे। उनके बोले का मतलब हुआ करता था और उनके सुने हुए को लोग समझा हुआ मानते थे। अगर कोई बात उन तक पहुँच गई तो पहुँचाने वाला मानता था कि राजवंश बाबू उस बात को ठेठ वहाँ तक शालीनता और गम्भीरता से पहुँचा देंगे जहाँ तक कि उस बात ने पहुँचकर परिणति पाना है। भारतीय प्रजातन्त्र और प्रजातन्त्र की पावनता पर राजवंश बाबू गर्वित-हर्षित रहकर दिनानुदिन आगे बढ़ रहे थे। बिल्कुल सहज, बिल्कुल अनासक्त। सब-कुछ उनके लिए नया-नया था।

पता नहीं था राजवंश बाबू को भी कि सुकुलजी महाराज इतने बड़े गणितज्ञ हैं। सेण्ट्रल हाल में एक दिन कॉफी का प्याला पीते-पीते सुकुलजी ने सहज हो राजवंशजी को कह दिया था, ‘श्रीमान् राजवंश महोदय, अपने हाथ की लकीरों को जरा हम जैसे लोगों को दिखा लिया करो।’ बात विनोद में कही जा रही थी, पर राजवंश बाबू ने सुकुलजी के सामने हथेली फैला दी।

लकीरों को उड़ती नजर देखते हुए, सुकुलजी ने कहा, ‘समय वह आ रहा कि मित्र लोग आपको दगा देंगे। अपनी ही परछाईं दोगली हो जाएगी। यहाँ तक कि आपका अपना ही खून आपका दुश्मन हो जाएगा।’ एक क्षण को राजवंश बाबू सिहरे। सुकुलजी की ओर सकपकाते हुए देखा। तभी दूसरे सदन की कोरम की घण्टी बजी। सुकुलजी काफी का प्याला आधे-अधूरे में ही छोड़कर चल पड़े। 

‘कुछ और बातें हैं, जो बाद में बता दूँगा। हथेली आपकी दिलचस्प है।’ यह सुकुलजी का उड़ता-उड़ता वाक्य था, जो राजवंश बाबू की चेतना पर चस्पा होकर रह गया।

ज्योतिष को राजवंश बाबू एक मानव हितकारी विज्ञान मानते आए हैं। उनकी मान्यता रही कि, ज्योतिष हमें सावधान करता है। सचेत रखता है। विश्वास-अविश्वास का सवाल ही नहीं है पर मनुष्य, जीवन में सावधान रहे, इसमें बुराई क्या है? वे ऐसा ही कुछ सोच रहे थे कि संसद के कर्मचारी ने स्वागत कार्यालय का चिर-परिचित रुक्का उनके हाथ में थमा दिया और अपनी तटस्थ मुस्कान होठों पर चिपकाए सम्मान सहित नमस्कार करके आगे बढ़ गया। राजवंश बाबू ने रुक्का पढ़ा। उनके अपने इलाके से कोई दिल्ली आया था। संसद की कार्वाई देखना चाहता था। रुक्के पर फुटनोट भी था-‘आप तो पहचान नहीं पाएँगे, पर मैं आपको पहचानता हूँ। कृपया द्वार पर आकर मेरा पास बनवा दें।’ बिना किसी देरी के राजवंश बाबू बाहर की ओर लपके। यह उनका रोज का काम था। गति उनकी यही थी।  सब-कुछ उनके लिए नया-नया जो था। द्वार पर विशेष परेशानी नहीं हुई। अपरिचित युवक को तो वे बेशक नहीं पहचानते थे, पर युवक उनको पहचानता था। रोज-रोज अखबार और टेलीविजन पर राजवंश बाबू छाए जो रहते थे! हल्का-सा परिचय हुआ। राजवंश बाबू ने यथा नियम एक घण्टे का पास बनवाकर युवक को दिया और दूसरे दिन यदि वह दिल्ली में ही है तो आवास पर मिलने का आग्रह किया। राजवंश बाबू संसद में चले गए और युवक दर्शक-दीर्घा के लिए चल पड़ा।

दूसरा दिन राजवंश बाबू के लिए चौंकाने वाला दिन था। युवक निश्चित समय पर उनके आवास पर पहुँच गया। राजवंश बाबू के कल वाले व्यवहार पर उसे प्रसन्नता दर्शाई। जिस समय वह दर्शक-दीर्धा में था, उस समय राजवंश बाबू ने संसद में छोटा सा भाषण दिया। उस पर उसने गर्व किया । अपना विशद परिचय दिया। साथ ही यह भी नहीं छिपाया कि उसने गए चुनावों में राजवंश बाबू का विरोध किया था। उन पर ‘पश्चिमपरस्त’ और ‘अनगढ़ नेता’ होने का इल्जाम लगाया था। पर दिल्ली में उनका व्यवहार, आचरण और संसदीय भूमिका देखकर वह अभिभूत है और राजवंश बाबू के लिए उसका मन बिल्कुल बदल चुका है। उसने यह भी कहा कि लोग गलत कहते हैं कि दिल्ली जाकर राजवंश बाबू बदल गए हैं। एक सर्वथा विरोधी और अपरिचित मतदाता से इस तरह का अयाचित-अनपेक्षित प्रमाणपत्र पाकर राजवंश बाबू मन-ही-मन प्रसन्न थे। उनको लगा कि उनका आज का सवेरा सही-सही शुरु हुआ है। वे भगवान को धन्यवाद दे रहे थे। अपने शैलीगत आचरण के साथ उन्होंने युवक से पूछा, ‘और कोई मेरे लायक काम?’ 

युवक जैसे इस प्रश्न की प्रतीक्षा ही कर रहा था। उसने अपने फाइल कव्हर में से कुछ कागज निकाले और उनके सामने मेज पर फैला दिए। ये सारे कागजात युवक की एक जानलेवा बीमारी को लेकर थे। करीब-करीब एक छोटी-सी पुस्तिका जितनी सामग्री थी। राजवंश बाबू ने कागजों को उलटा-पलटा और युवक से बीमारी का लक्षण पूछा। जो कुछ उनकी समझ में आया वह यह था कि महीने-बीस दिन में युवक को कमजोरी का एक दौरा ऐसा पड़ता है कि वह मरने को हो आता है। हर बार कुछ न कुछ खर्च होता है। गाँव-कस्बे का डॉक्टर परेशान है। खर्चा करना युवक के बूते के बाहर की बात होती जा रही है। सुना है कि दिल्ली के मेडिकल इंस्टीट्यूट में युवक को दाखिला मिल जाए और वहाँ के संसार प्रसिद्ध डॉक्टर उसका चेक-अप कर लें तो निदान हो सकता है। गए बीस दिनों से उसे बीमारी का दौरा पड़ा नहीं है, पर उसे शक है कि गाँव जाते-जाते कहीं रास्ते में रेल में ही यह नौबत न आ जाए। राजवंश बाबू की बड़ी कृपा होगी, यदि वे युवक की इस दिशा में कुछ मदद कर सकें। युवक करीब-करीब हताशा के सुरों में बोलने लग गया था। यह उसके जीवन-मरण का सवाल है। युवक ने यह भी कहा कि आपके चुनाव क्षेत्र की आबादी ही अठारह-बीस लाख के करीब होगी। आप किस-किस को पहचानें और किस-किस को अटेण्ड करें? पर जब वह दिल्ली तक आ ही गया हैं और उन्होंने इतनी आत्मीयता के साथ उसको अपना ही लिया है, तो जरा-सी कृपा और करें। युवक उनका आजन्म आभारी रहेगा। राजवंश बाबू के सामने यह वह क्षण था जबकि वे एक जनप्रतिनिधि या सांसद नहीं होकर, मात्र मनुष्य के तौर पर कसौटी पर परखे जाने की आशंका में डूब-उतरा रहे थे। शोक और बीमारी में मनुष्य, मनुष्य के काम नहीं आए, यह कैसे हो सकता है? वे पिघल गए। फोन उठाया ओर मेडिकल इंस्टिट्यूट के सक्षम डॉक्टों से सम्पर्क करके, युवक के परीक्षण और परीक्षण के बाद भरती तथा इलाज की व्यवस्था करके, उन्होंने युवक को आवश्यक निर्देश दिए। दूसरे दिन सुबह फिर से उस युवक को आने को कहा। युवक ने धन्यवाद दिया और दूसरे दिन सुबह आने का कहकर कमरे से बाहर निकल गया।

यह तीसरे दिन की सुबह थी। राजवंश बाबू ने अपनी गाड़ी ली, युवक को बैठाया, खुद चलाकर मेडिकल इंस्टीट्यूट गए। डॉक्टरों से बात की और युवक को दाखिल कर दिया। उस विशाल संस्थान में यह रोज का काम था। एम.पी. और मन्त्रियों की सिफारिश पर यहाँ आए दिन लोग आते-जाते रहते थे। कमरों की तंगी होने के बावजूद समझदार और चतुर प्रशासक डॉक्टर रास्ता निकाल ही लेते थे। युवक का एक तरह से वी. आई. पी. इलाज शुरू हो गया। जाँच-परख हुई। दो-तीन दिनों में परीक्षण की रिपोर्ट आई। वह एक दिलचस्प केस सिद्ध हुआ। डॉक्टरों ने तय किया कि युवक को प्रायोगिक तौर पर एक सप्ताह अस्पताल में रोक लिया जाए।

जब-जब भी समय मिलता, राजवंश बाबू अपना कामकाज छोड़कर युवक का हाल पूछने संस्थान में आते। दवा, खुराक और फलों की व्यवस्था भी यथाशक्ति खुद करते। युवक के आरोग्य की मंगल कामना करते, उससे बतियाते, बैठते। युवक बहुत प्रसन्न था। उसने कई बार कहा भी कि वह आजीवन राजवंश बाबू का आभारी रहेगा। बीमारी से वह निजात पाए या नहीं, पर उसे सन्तोष इस बात का है कि राजवंश बाबू ने उसकी तरफ पूरा ध्यान दिया। साथ ही यह भी व्यक्त किया कि यदि इतने मनोयोग से सारे एम.पी. लोग अपने इलाके की तरफ ध्यान दें तो फिर चाहिए ही क्या!

राम-राज उसे बित्ता-भर दूर नजर आता था। हँसी-ठिठोली भी चलती। डॉक्टरों-नर्सों से विनोद भी हो जाता। अस्पताल का प्रशासन इस बात से प्रसन्न था कि एक महत्वपूर्ण सांसद से ‘निःस्वार्थ निकटता’ बढ़ती जा रही है। अगर इस व्यवस्था  का जिक्र राजवंश बाबू कभी संसद में अपने भाषण के बीच कर दें तो उनकी बड़ी कृपा हो जाएगी।

और परीक्षण काल में ही युवक पर कमजोरी का वह दौरा पड़ गया जिसकी कि उसेे आशंका थी। डॉक्टर सचेत थे। राजवंश बाबू बिस्तर के पास ही कुर्सी पर बैठे थे। हल्का सा इशारा मिला कि युवक को तत्काल खून की जरूरत पड़ेगी। संस्थान के ब्लड बैंक से खून लाने के लिए कहा जाने लगा। और लो, राजवंश बाबू ने उमंग और निष्ठा के आवेग में कह दिया ‘यदि मेरा खून लगता हो तो वहाँ से क्यों मँगाते हैं? यहीं से ले लीजिए!’ युवक बिस्तर में पड़े-पड़े ही धन्य हो गया। खून लगे, लगे, न लगे, एक जनप्रतिनिधि ने आगे बढ़कर इतनी बात तो की! सारा वातावरण रोमांच में डूबा हुआ था। ना-ना के बीच भी राजवंश बाबू ने अपने खून के ग्रुप का मिलान करने का आग्रह जारी रखा। संयोग की बात थी कि युवक का ब्लड ग्रुप और राजवंश बाबू का ब्लड ग्रुप एक ही निकल आया। अस्पताल में जिसने भी सुना, वह राजवंश बाबू का भक्त हो गया। युवक के भाग्य से सभी को ईर्ष्या हो आई। कहानी चल पड़ी कि राजवंश बाबू अपने विरोधी तक को खून दे रहे हैं। कहानी को किंवदन्ती बनने में समय ही कितना लगता है! राजवंश बाबू के शरीर से पूरी दो बोतल खून लेकर किसी उपन्यास के नायक की तरह युवक, अस्पताल में भला-चंगा होकर दस-बारह दिनों में बाहर आ गया।

जब-जब राजवंश बाबू अस्पताल वालों से फोन पर युवक के बारे में पूछताछ करते थे, डॉक्टर लोग हँसकर उत्तर देते थे, “राजवंश बाबू, आपका ‘आभारी’ बिलकुल ठीक है। निश्चिन्त रहिए।” जान-पहचान वाले डॉक्टरों ने उस युवक का नाम ही ‘आभारी’ रख दिया और गलियारों में यह नाम प्रचलित भी हो गया था। खुद युवक इस नाम पर मुस्कराते हुए बोलने लगा था। यह सम्बोधन उसे सुहाना लगने लगा।

अपने कार्यालय में राजवंश बाबू संसद के कागजात देख ही रहे थे कि उनके सहायक ने ‘आभारी’ के आने की सूचना दी। राजवंश बाबू चलकर दरवाजे तक गए। आभारी को कमरे में लाए और सादर बैठा दिया। अगला कार्यक्रम पूछा। आभारी की इच्छा थी कि वह अगले दिन तक दिल्ली छोड़ दे और अपने परिवार में परसों-नरसों तक पहुँच जाए। उसकी यात्रा सौ फीसदी ही नहीं एक हजार फीसदी सफल रही थी। उसने यह कहने में कोई संकोच नहीं किया कि, अब से वह राजवंश बाबू का ‘रक्त-पुत्र’ भी हो चुका है और वक्त आने पर इस रक्त की बूँद-बूँद का कर्ज चुकाने की कोशिश करेगा। राजवंश बाबू ने अपनी विनम्रता के साथ उसको यह सब कहने से रोका।

शाम को संसद से जब राजवंश बाबू वापस आए तो उनके हाथ में आभारी के वापसी यात्रा का सेकण्ड क्लास एयर-कण्डीशन स्लीपर का आरक्षित टिकट था। पैसा खुद उन्होंने ही चुकाया था। आज राजवंश वाबू के लिए इतनी खुशी का दिन था, मानो अपने इलाके के लिए केन्द्र सरकार से कोई प्रोजेक्ट पा लिया हो। एक बीमार आदमी अच्छा और आश्वस्त होकर उनके यहाँ से जाए, इसे वे अपनी सफलता मानते थे। भगवान को धन्यवाद दे रहे थे, कि वह इतना दयालु है। डॉक्टर को फोन पर शुक्रिया अदा करते-करते वे अघाते नहीं थे।

पूरे उल्लास के साथ राजवंश बाबू ने आभारी को रेल में बैठाया। रास्ते के खर्च के लिए सौ का नोट हाथ में थमाया। गाँव और घरवालों को अपना आदर अर्पित करने का आग्रह किया। वहाँ पहुँचते ही कुशल यात्रा और सुसमाचारों का पत्र लिखने का अतिरिक्त आग्रह करना वे नहीं भूले। सीट पर बैठाकर राजवंशजी ने कस्बे के डॉक्टर के नाम पहले से ही टाइप किया हुआ अपना पत्र, आभारी को सौंपा और हिदायत दी, कि वह उपचार और आराम का पूरा ध्यान रखे। दिल्ली में रहते हुए यदि कोई अवज्ञा, अवमानना या अशिष्टता उनसे हुई हो, तो उन सभी की और सारी असुविधाओं की माफी माँगी।

आभारी का सिर गर्व से ऊँचा उठा हुआ था। राजवंश बाबू की विनीत मुद्रा उसे अधिक उल्लसित कर रही थी। आसपास के सहयात्री इस सारे नजारे को जिज्ञासा के साथ देख रहे थे। राजवंश बाबू ने एक सहयात्री को आभारी की सार-सम्हाल करने का एक अनुरागी आग्रह और कर दिया। आभारी ने हाथ जोड़े, प्रणाम किया। राजवंश बाबू ने वात्सल्य भाव से उसके दोनों हाथों को पकड़ा, सहलाया और शुभ-यात्रा का मंगल बोल बोलते हुए, वे नीचे उतर गए। गाड़ी ने प्लेटफार्म छोड़ा। राजवंश बाबू ने कुली का पैसा चुकाया। एक भारी मन लेकर वे घर आए। उन्होंने महसूस किया कि, उनके खून में आज एक नई गुदगुदी-सी चल रही है। उनको लगा कि, मानो आज उनकी वंशबेल पर नया पल्लव निकल आया है। सहज होने की कोशिश में वे अपनी, दूसरे दिन की तैयारियों में खो गए। 

और उसके बाद.....उसके बाद.....।

उसी पार्टी ने राजवंश बाबू को नए सिरे से, उसी इलाके में अपना प्रत्याशी बनाया। वे चुनाव के लिए फिर से इलाके में गए। पहले वहाँ से एक बार लड़ चुके थे। सब कुछ जमा-जमाया था। नया कुछ करना नहीं था। पाँच साल का अपना हिसाब और देश-विदेश की आज की स्थिति पर, उन्हें मतदाताओं से बात करनी थी। करने को वे बहुत कुछ कर चुके थे। कहने को उनके पास बहुत कुछ था। इस महासमर में इस बार उनके पास नया-नया कुछ नहीं था। पूरे पाँच साल का अनुभव था। उनका कामकाज और संसद में उनकी भूमिका को देखते हुए पार्टी ने बिना माँगे अपने आप ही पार्टी का टिकट दे दिया था। 

चुनाव अभियान के दौरान वे उस कस्बे में भी पहुँचे जहाँ का रहने वाला युवक आभारी था। सोचा था कि, सारा काम इस बार उसी के हाथों में सौंप देंगे। अपने चुनाव कार्यालय में बैठे-बैठे वे कुछ मशवरा कर ही रहे थे कि, सामने से लाउड स्पीकर लगी हुई, तरह-तरह के नारे उछालती हुई, प्रतिपक्ष का झण्डा लगाए हुए, विरोधी उम्मीदवार की जीप निकली। चश्मा पोंछते हुए उन्होंने जीप पर सवार लोगों को देखा। वे करीब-करीब बेहोश जैसे हो गए। आँखें विश्वास नहीं कर रही थीं। कलेजा मुँह को आ गया था। वे देख रहे थे कि, आकाश चीरते हुए नारे लगाकर, राजवंश बाबू और उनकी पार्टी को हराने का हल्ला करने वाला वह और कोई नहीं, उनका अपना ‘आभारी’ ही था।

उनका हलक सूख आया। कण्ठ में काँटे पड़ गए। ओंठ पपड़ा गए। मनुष्य और राजनीति के बिलकुल नए रूप उनके सामने थे। उनके लिए सबकुछ नया-नया था। यह उनका पहला अनुभव था। ‘आदमी को क्या हो गया है?’ सवालों का एक पूरा पहाड़ भरभरा कर उनकी चेतना पर गिर पड़ा। सेण्ट्रल हाल में सुकुलजी की कही हुई बातों के पहले से लेकर आज तक का, एक-एक दृश्य, एक-एक फ्रेम उनकी आँखों के सामने कौंध गया। वे समझ ही नहीं पा रहे थे, कि बात का सिरा कहाँ से कहाँ पकड़ें।

राजवंश बाबू ने उठने की कोशिश की। दीवाल का सहारा लेकर वे खड़े हुए। कार्यालय के दरवाजे तक आए। अपने एक कार्यकर्ता को भेजकर उन्होंने आभारी को बुलाने की पेशकश की। उनके निष्ठावान कार्यकर्ताओं ने इस पेशकश को रोकने की कोशिश की। राजवंश बाबू को समझाया, कि इस युवक से बात करना बेकार है। पर राजवंश बाबू का मन नहीं माना। वे खुद बाहर निकले और सड़क पर जाकर जैसे-तैसे चिल्लाकर आभारी को जीप से नीचे उतारने में सफलता प्राप्त कर ली।

आभारी ने सड़क पर खड़े राजवंश बाबू को सिर से पैर तक, गहरी नजर देखा। एक उड़ती हुई ‘नमस्ते’ मारी और धाराप्रवाह शुरु हो गया, “देखिए एम.पी. साहब! यह चुनाव है। देश का सवाल है। आपके-मेरे सामने निजी रिश्तों की कोई बहती नदी भी नहीं है। देश बदलाव चाहता है, पीढ़ियाँ तबाह हैं। आपकी पार्टी ने देश को जिस मुकाम पर लाकर खड़ा किया है, उसे आप खूब देख रहे हैं। आप अपनी खुद की हैसियत देख लें। चुनाव से पहले आप क्या थे और इन पाँच सालों में आप कहाँ-से-कहाँ जा पहुँचे। यह सब कैसे हो गया? आप कहेंगे कि आपने मुझे खून दिया है। आज वहीं खून मेरी रगों में बहकर बोल रहा है कि मैं उस विद्रोह का स्वर ऊँचा उठाऊँ, जो कि आप अपनी ओर से नहीं उठा पा रहे थे। अगर कहीं आप या आपके किसी मित्र की कोई दुर्घटना हो जाए और मेरा खून उसे मैच कर जाए, तो में दो की जगह तीन बोतल खून दे दूँगा। पर यह सवाल मेरे उसूलों का है। यहाँ पार्टी का सवाल है। किसी राग-रिश्ते का कोई सवाल ही नहीं है। आप किसी गलतफहमी में मत रहिए। हाँ, दिल्ली में आपने मेरे लिए कुछ पाई-पैसा खर्च किया हो, तो आप उसका बिल मुझे अभी दे दें। मैं आपकी पाई-पाई चुका दूँगा। पर आप मुझसे यह कहने की मेहरबानी नहीं करें, कि मैं आपके लिए काम करूँ। यह देश का सवाल है। यह मेरे मूल चरित्र का मुद्दा है। यह जनता की क्रान्तिकारी बदलाव लाने की इच्छा के आदर का मौसम है......। और आभारी बराबर धाराप्रवाह बोले जा रहा था।

एकाएक न जाने कौन-सी जयजयकार का नारा उठा और लाउड स्पीकर के कोलाहल में, सारा वातावरण डूब गया। धूल का एक गुबार उड़ा। आकाश में उठा और पूरा आसमान यहाँ से वहाँ तक धूल-धमार और हो-हल्ले में खो गया। उस सबमें घिरे राजवंश बाबू सड़क पर अकेले खड़े थे। कार्यालय में उनके कार्यकर्ता उनका इन्तजार कर रहे थे। वे समझ नहीं पा रहे थे, कि इस क्षण को कैसे जीएँ। जीना उनकी विवशता थी। आभारी की आवाज उनके जेहन में गहरे उतरती जा रही थी। वे कोशिश कर रहे थे, कि आभारी का चेहरा और चरित्र भुलाया जा सके ।
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मनुहार भाभी - कहानियाँ
लेखक - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - नीलकंठ प्रकाशन, 1/1079-ई, महरौली, नई दिल्ली-110030
प्रथम संस्करण 2001
मूल्य - 150/- रुपये
सर्वाधिकार - लेखक
मुद्रक - बी. के. ऑफसेट, नवीन शाहदरा, दिल्ली-110032



रतलाम के सुपरिचित रंगकर्मी श्री कैलाश व्यास ने अत्यन्त कृपापूर्वक यह संग्रह उपलब्ध कराया। वे, मध्य प्रदेश सरकार के, उप संचालक, अभियोजन  (गृह विभाग) जैसे प्रतिष्ठापूर्ण पद से सेवा निवृत्त हुए हैं। रतलाम में रहते हैं और मोबाइल नम्बर 94251 87102 पर उपलब्ध हैं।

 

  
 
 
  

  
 
   
 
 
   
 
 
   
  
 
 
 
 
  
 

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