....इसलिए नीरजजी अपनी ही कविता पर दाद देते रहे

रचनाओं की मौलिकता और नकल को लेकर विवादों की

लम्बी परम्परा है। मूल रचनाकार बिलबिलाने लगता है और ‘नकल नहीं, प्रेरणा ली है’ का ब्रह्मास्त्र उसकी बिलबिलाहट को सौ-गुना बढ़ा देता है। यह विवाद सनातन के समानान्तर है। आदिकाल से चला आ रहा है और प्रलय तक चलता रहेगा।

जब मैं मन्दसौर में दैनिक ‘दशुपर दर्शन’ का सम्पादक था तब, एक उत्साही किशोर, स्व. सुमनजी की, ‘तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार’ कविता अपने नाम से छपवाने के लिए लेकर आया था। मैंने पूछा था - ‘यह तुमने लिखी है?’ उसने भरपूर आत्म-विश्वास से कहा था - ‘हाँ। इसका एक-एक अक्षर मैंने ही लिखा है।’ वह अपना, ऐसा सच बोल रहा था जो कविता का सच नहीं था। बरसों बाद, जब मैं उस अखबार का सम्पादन छोड़ चुका था तो उसके मुख पृष्ठ पर, अज्ञेय की ‘पहचान कविता’ ‘साँप तुम सभ्य तो हुए नहीं.....’ मन्दसौर के ही एक रचनाकार के नाम से,  ‘बॉक्स’ मे छपी देखी थी। एक का अज्ञान अनेक अज्ञानियों को ज्ञानी होने का प्रमाण-पत्र दे देता है। दादा श्री बालकवि बैरागी की अनेक रचनाएँ मैंने दूसरों के नाम पर छपी देखी हैं।

लेकिन इस समय मुझे जबलपुर की एक घटना बेतरह याद आ रही है। कुछ इस तरह मानो मेरे पेट में मरोड़ें उठ रही हों उस घटना को नहीं सुनाऊँगा तो गम्भीरावस्था में मुझे अस्पताल में भर्ती होना पड़ जाएगा।

किसी जमाने में जबलपुर के साहित्यकारों-संस्कृतिकर्मियों का बड़ा तबका, दादा श्री बालकवि बैरागी पर अपनी सम्पूर्ण आत्मीयता से ‘लट्टू’ था। वहाँ की संस्था ‘मिलन’ तो मानो ‘मौसी’ की तरह दादा पर ममता न्यौछावर करती थी। वहाँ के एक प्रख्यात, स्थापित, प्रतिष्ठित और लोकप्रिय केमरा-कलाकार (मुझे उनका नाम पोपट भाई याद आ रहा है) दादा पर फिदा थे। दैनिक नव-भारत के प्रमुख नगर प्रतिनिधि श्री मोहन शशि, दादा के आत्मीय थे। इसी कारण शशि भाई मुझे भी दुलार करते थे।

व्यापारिक काम-काज के सिलसिले में, इस घटना के दिन मैं जबलपुर में ही था। शहीद स्मारक भवन में कवि सम्मेलन आयोजित था। नीरजजी मुख्य कवि थे। शशि भाई के कारण मुझे श्रोताओं की अगली पंक्ति में जगह मिल गई थी। कवि सम्मेलन का शुरुआती दौर था। तीन-चार कवि पढ़ चुके थे। इसी क्रम में एक कवि ने कविता पाठ किया। खूब वाह-वाह होने लगी। यह देख शशि भाई असहज होने लगे। लेकिन जब नीरजजी बढ़-चढ़कर वाह-वाह कर, मुक्त-कण्ठ, थोक में दाद देने लगे तो शशि भाई का पारा चढ़ गया। अपनी मालवी में कहूँ तो शशि भाई ‘ऊँचे-नीचे’ होने लगे। मैंने हिम्मत करके पूछा - ‘क्या हो गया शशि भाई?’ झल्लाकर शशि भाई ने जवाब दिया - ‘क्या हो गया? अरे! पूछ कि क्या नहीं हो गया? ये स्साला सरे आम नीरजजी की कविता अपने नाम से पढ़ा जा रहा है! और बाकी सबकी छोड़ो लेकिन नीरजजी को क्या हो गया है? वे तो खुद ही सबसे ज्यादा दाद दिए जा रहे हैं। हद है यह तो!’ मुझे शशि भाई की बात पर भरोसा नहीं हुआ। भला ऐसा कैसे हो सकता है कि खुद नीरजजी अपनी कविता न पहचान पाएँ? खैर

कवि सम्मेलन के मध्यान्तर की घोषणा होते ही शशि भाई लपक कर मंच पर पहुँचे और इससे पहले कि नीरजजी अपनी जगह छोड़ें, वे गुस्से में काँपते हुए नीरजजी के ऐन सामने खड़े हो गए। नीरजजी जी शायद उनसे व्यक्तिशः परिचित थे। बोले - ‘कैसे हो शशि?’ इतने गुस्से में क्यों हो भाई?’ शशि भाई का तो मानो ‘प्रेशर सेफ्टी वाल्व’ ही खुल गया। बोले - ‘आप तो कमाल कर रहे हो गुरुदेव! ये आदमी आपकी कविता, आपकी मौजूदगी में, अपने नाम से पढ़े जा रहा है और आप हैं कि उसे रोकने-टोकने के बजाय उसे दाद दिए जा रहे हैं! झूम-झूम कर वाह-वाह किए जा रहे हैं! ये सब क्या है?’ सुनकर नीरजजी खिलखिलाकर हँस पड़े। शशि भाई के दोनों कन्धों पर अपने हाथ रखते हुए बोले - ‘तुम जानते हो कि यह मेरी कविता है। मैं जानता हूँ कि यह मेरी कविता है। सारा जमाना जानता है कि यह मेरी कविता है। सबकी छोड़ो! यह खुद जानता है कि यह मेरी कविता पढ़ रहा है। लेकिन वो क्या है प्यारे शशि! मुझे तो कोई फर्क नहीं पड़ना। लेकिन मेरी कविता से यदि किसी को दो पैसे मिल जाते हों, किसी की गृहस्थी का गाड़ा गतिवान रह पाता हो तो इससे अधिक सौभाग्य और क्या होगा? किसी जरूरतमन्द की दुआएँ बहुत ज्यादा फलवती होती हैं। गुस्सा छोड़ो। इस बेचारे पर नाराज मत होओ। मेरी मौजूदगी में मेरी कविता, अनजाने में या नादानी में नहीं, किसी मजबूरी में ही पढ़ रहा होगा। चलो! बहुत हो गया भाषण। अब चाय पी लो।’ और यह कहकर नीरजजी, शशि भाई को लगभग खींचते हुए मंच के पीछे लिए चले गए।

इसके बाद क्या हुआ, क्या नहीं, यह नीरजजी जानें या शशि भाई। लेकिन वे दोनों ही अब हमारे बीच नहीं हैं। जहाँ तक मेरा सवाल है, तो, नीरजजी और शशि भाई के, मंच के पीछे जाने के बाद मैं चाय की तलाश में शहीद स्मारक भवन के बाहर चला आया।

पता नहीं ऐसा क्या हुआ कि यह घटना अचानक ही, बेतरह याद हो आई और मैं इसे यहाँ, आपके सामने परोस बैठा।

-----

(नीरजजी का चित्र गूगल से साभार।)


3 comments:

  1. नमन नीरज जी और उनकी सोच को |

    ReplyDelete
    Replies
    1. टिप्पणी के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद।

      Delete
  2. इतनी उदारता तो अच्छी बात नहीं है। गलत को बढ़ावा देने जैसी बात हैं।बड़े और प्रतिष्ठित कवियों की नकल होने पर तो पकड़ी भी जा सकती है लेकिन नए और उभरते कवियों पर तो प्रश्नचिन्ह भी लग जाता है।उनकी सच्चाई तो साबित भी नहीं हो पाती।

    ReplyDelete

आपकी टिप्पणी मुझे सुधारेगी और समृद्ध करेगी. अग्रिम धन्यवाद एवं आभार.