एक निमन्त्रण हवा में



श्री बालकवि बैरागी के कविता संग्रह
‘रेत के रिश्ते’ 
की ग्यारहवीं कविता 

यह कविता संग्रह
श्री पं. भवानी प्रसादजी मिश्र को 
समर्पित किया गया है।


एक निमन्त्रण हवा में

उम्र के भटकाव पर बेहोश भीड़ जहाँ लगाती है नारा,
उस गाँव में कर रहा हूँ
इन्तजार मैं तुम्हारा।
मुझसे मिलनेवालों! आओ
मुझसे मिलो और देखो कि
मैं कहाँ जी रहा हूँ, कैसे जी रहा हूँ
बेहोश भीड़ के इन कसैले नारों को
अपने नष्ट नीड़ में
कितने इत्मीनान से पी रहा हूँ।

इस बस्ती से मेरा प्यार सनातन है
क्योंकि यहीं मेरी माँ, मेरी बीवी और मेरे खुद के सिवाय
मेरा हर ‘अपना’ पैदा हुआ है
इसके बिना मैं जी नहीं सकता
इसके कँटीले बगीचों और कंकरीले रास्तों ने
मुझसे हर इन्द्र-धनुष पर थुकवाया है
मैं यहाँ बार-बार जन्म लेना चाहता हूँ
इस बस्ती से मेरा प्यार सनातन है।

हालाँकि यहाँ दफ्तरों के दलाल
और कारिन्दों के दरिन्दे
देवदूतों की भाषा बोलते हैं
हालाँकि यहाँ के धूर्त अपने आपको
फरिश्तों से तौलते हैं।
बिना बात के ‘बन्द’ का नारा और हड़ताल का सहारा
यहाँ के स्थायी भाव ‘ईर्ष्या’ से भी आगे बढ़ गया है
हालाँकि यहाँ का कौमार्य, कमीनों और कुत्तों के
हाथों निचुड़ गया है।
पर, मैं यहाँ बार-बार जन्म लेना चाहता हूँ
इस बस्ती से मेरा प्यार सनातन है
मुझसे मिलनेवालों! आओ, और देखो कि मैं
कहाँ जी रहा हूँ,
कैसे जी रहा हूँ।

हालाँकि यहाँ सत्ता निरर्थक
कानून अपंग और नेता निकम्मे हो गये हैं,
हालाँकि यहाँ के राजनीतिज्ञ और गरीब सब-के-सब
चापलूसों के जिम्मे हो गये हैं
पर मैं यहाँ बार-बार जन्म लेना चाहता हूँ
इस बस्ती से मेरा प्यार सनातन है
मुझसे मिलनेवालों! आओ, और देखो कि
मैं कहँं जी रहा हूँ,
कैसे जी रहा हूँ।

चुनाँचे, किसी को चिन्ता नहीं है यहाँ
किसान की, गरीब की, मजदूर की
गोया कि व्यक्तित्व का मतलब यहाँ हो गया है पद
और पदों के माने डाक-बँगले
और डाक-बंगलों का अर्थ बोतल
बोतल के बाज़ू में मुर्गा या बकरा या फिर मछली
याने कि गोश्त
फिर चाहे वह जानवर का हो या जोबन का
चारों दिशाओं के इमलिया बाग
जहाँ बेचैन हों इस बदबू से
निराश हो गया हो जहाँ का व्यापारी
टूट रहा हो जहाँ का संस्कार
स्कूल जाती लड़कियाँ हों जहाँ असुरक्षित
और सरस्वती मन्दिरों से लौटते लड़कों की आँखों में
भविष्य के बदले बैठ गई हो लड़की-केवल लड़की
तब भी मैं यहाँ बार-बार जन्म लेना चाहता हूँ
इस बस्ती से मेरा प्यार सनातन है
मुझसे मिलनेवालों! आओ, और देखो कि
मैं कहाँ जी रहा हूँ,
कैसे जी रहा हूँ।

हालाँकि यहाँ अवैध गर्भ के नाना और मामा बन कर लोग
आसमान सिर पर उठा रहे हैं
पर कोई आगे बढ़कर नहीं कहता
मैं हूँ इसका बाप
या कोई स्वीकार नहीं करता सूरज की तरह कुन्ती को
बारात नहीं सजती किसी पाण्डु की
किसी को चिन्ता नहीं है कुन्ती के भविष्य
और कर्ण के वर्तमान की, 
फिर भी मैं यहाँ बार-बार जन्म लेना चाहता हूँ
इस बस्ती से मेरा प्यार सनातन है
मुझसे मिलनेवालों! आओ, और देखो कि
मैं कहाँ जी रहा हूँ
कैसे जी रहा हूँ।

हालाँकि तफरत, निराशा, नीचता और नशे की
नामुराद भट्टी में
जल रही है हर सयाने की शिराएँ
हालाँकि हर सम्वेदना को दुत्कार रही है
यहाँ की दानिशमन्द दयालुता
हालाँकि यहाँ सलामों, दुआओं, राम-रामों
और नमस्कारों के सन्दर्भ बदल गये हैं,
पर मैं यहाँ बार-बार जन्म लेना चाहता हूँ
इस बस्ती से मेरा प्यार सनातन है
मुझसे मिलनेवालों! आओ, और देखो कि
मैं कहाँ जी रहा हूँ,
कैसे जी रहा हूँ।

एक घूँट मेरे साथ पीकर तो देखो कि
इस हलाहल को मैं किस तरह पी रहा हूँ।
मेरी जगह तुम होते तो
बदल लेते बस्तियाँ या फिर बस्ती को बदल देते
पर एक मैं हूँ जो केवल जी रहा हूँ
इस लालच में कि
शायद मुझे यहाँ मौत-मेरी प्रियतमा
हँसती-गाती मिले।
मैं हर कड़ुवाहट को गा-गाकर पी रहा हूँ
इस बस्ती से मेरा प्यार सनातन है
मझसे मिलनेवालों! आओ, और देखो कि
मैं कहाँ जी रहा हूँ,
कैसे जी रहा हूँ।

तुम कहोगे
या तो बदल दो बस्ती को या फिर खुद
को बदल दो
पर ‘नहीं, कदापि नहीं’
मैं छोड़ नहीं सकता इस मिट्टी को
बदल नहीं सकता अपने संस्कार को
जड़ें बहुत गहरी हैं मेरी आस्था की
नींव बहुत पुख्ता है मेरे विश्वास की
मैंने कहा न
यहाँ मेरी मां, मेरी बीवी, और मेरे खुद के सिवाय
मेरा हर ‘अपना’ पैदा हुआ है
यही कारण है कि मेरा कवि
इस ‘ईर्ष्या के आँवे’ पर भी शैदा हुआ है
क्योंकि जहाँ मेरे बच्चे, नहीं-नहीं! मेरा ‘भविष्य’
नहीं-नहीं! मेरा ‘पुनर्जन्म’ पैदा हुआ हो
वह मिट्टी किसी माने में दीन नहीं हो सकती
और जहाँ मेरा बाप-मेरा ‘अतीत’ -याने कि मेरा ‘पुण्य’
पैदा हुआ हो
वह बस्ती चरित्रहीन नहीं हो सकती
इस बस्ती से मेरा प्यार सनातन है
मैं यहाँ बार-बार जन्म लेना चाहता हूँ
मुझसे 
मिलनेवालों! आओ, और देखो कि
मैं कहाँ जी रहा हूँ और कैसे जी रहा हूँ।

बेहोश भीड़ के इन कसैले नारों को अपने नष्ट नीड़ में
कितने इत्मीनान से पी रहा हूँ।
आओ, मुझसे मिलो, मेरे शहर को देखो
अपने आपसे मत डरो
इस गरल का एक घूँट पीकर
मेरी प्रतीक्षा को सार्थक करो ।
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संग्रह के ब्यौरे

रेत के रिश्ते - कविता संग्रह
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - साँची प्रकाशन, बाल विहार, हमीदिया रोड़, भोपाल
प्रथम संस्करण - नवम्बर 1980
मूल्य - बीस रुपये
मुद्रक - चन्द्रा प्रिण्टर्स, भोपाल
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2 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल बुधवार (22-09-2021) को चर्चा मंच       ‘तुम पै कौन दुहाबै गैया’  (चर्चा अंक-4195)  पर भी होगी!--सूचना देने का उद्देश्य यह है कि आप उपरोक्त लिंक पर पधार करचर्चा मंच के अंक का अवलोकन करे और अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया से अवगत करायें।

    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' 

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    1. यह मान देने के लिए बहुत-बहुत धन्‍यवाद।

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