चमचम गली (कहानी संग्रह ‘बिजूका बाबू’ की तीसरी कहानी)




श्री बालकवि बैरागी के कहानी संग्रह
‘बिजूका बाबू’ की तीसरी कहानी

यह संग्रह, इन कहानियों के पात्रों को
समर्पित किया गया है।



चमचम गली

अब तो शायद ही किसी को याद हो कि नगरपालिका के रिकॉर्ड में इसका सही नाम क्या है? किसने, किसके नाम का प्रस्ताव रखा था और किस शहीद या भद्र आदमी के नाम पर तब कैसी, क्या बहस हुई होगी-ये सारी बातें न किसी को आज याद रही हैं, न कोई इन्हें याद रखेगा। पर न जाने कब और न जाने किसने ‘चमचम गली’ नाम रख दिया और वह चल भी गया। अब लोग यहाँ तक कहने लगे हैं कि कल अगर ‘चमचम चाचा’ खुदा को प्यारे हो गए तो भी इस गली का ज्ञाम ‘चमचम गली’ ही पुकारा जाएगा। मजा तो तब आता है जब खुद चमचम चाचा अपने आपको भी ‘चमचम गली’ का निवासी बताकर संकोच से सिर नीचा कर लेते हैं।

इस गली में समागम शर्मा जैसा विद्वान शास्त्री रहता है, पर समय की बलिहारी है कि गली का नाम ‘समागम गली’ नहीं हो सका। समागम शास्त्री को कष्ट तब होता है जब दूर या पास से आई हुई डाक चिट्ठियों पर उनके नाम के बाद ठिकाना लिखते समय लोग ‘चमचम गली’ लिख देते हैं। चिट्ठी समागम शास्त्री को मिलती है और वे चिट्ठी को पढ़ने से पहले शून्य क्षितिज को पढ़ने लग जाते हैं। इसेे कहते हैं किस्मत की बात। नगरपालिका ने जिसके नाम पर गली का नाम रखा, उस आदमी को लोग जानते भी नहीं। समागम शास्त्री जैसा उद्भट विद्वान् इस गली में जगजाहिर निवास करता है, पर गली का नाम उनके नाम पर हुआ नहीं। नाम पड़ा भी तो चमचम चाचा के नाम पर। 

चमचम चाचा मजेदार आदमी हैं। वक्त को पहचानते हुए चाचा के अब्बा जान ने उन्हें पढ़ाने की कोशिश की थी। वे जिस मदरसे में गए, वहाँ पूरी गली में से तब केवल समागम शर्मा ही स्कूल जाने वाला अकेला विद्यार्थी था। चमचम और समागम साथ-साथ स्कूल जाते, पर चमचम चाचा को पढ़ना नहीं था। नहीं पढ़े। साल-दो साल मास्टर साहब की किमचियाँ हथेली पर खा कर घर आए और बस, घर के ही हो गए। अब्बा जान ने सोचा शायद उर्दू पढ़ जाएगा, सो काजी साहब के पास भेजा चमचम को। पर काजी साहब खुद एक दिन चमचम के घर आकर अब्बा जान की अमानत अब्बा जान को सौंप गए। जाते-जाते इतना और कह गए, ‘तौबा करता हूँ आज से। या खुदा! इसकी माँ से जरा पूछो तो सही कि जचगी के वक्त उसने मिर्ची खाई थी या करेले! लानत है ऐसी औलाद पर।’ और चमचम चाचा के लिए हर मदरसे का दरवाजा हमेशा के लिए बन्द हो गया। अब्बा जान ने अपने खानदानी धन्धे साग-सब्जी की खरीद-बिक्री में चमचम को लगा दिया और चमचम चाचा सब्जी मण्डी के आदमी होकर रह गए। आज उनके नाम का जलवा यह है कि चमचम चाचा के घरवालों से पूछो तो उन तक को पता नहीं कि चमचम चाचा का असली नाम क्या है। यह भी खुदा ही जाने कि चमचम चाचा को ‘चमचम’ नाम किसने दिया। चमचम चाचा को किसी ने कभी भी गन्दे कपड़ों में नहीं देखा। चमचमाता सफेद बुर्राक कुरता, सफेद झक पाजामा और चमचमाती काली मखमली टोपी। हर कपड़ा चमकदार। बस, भाई लोगों ने नाम रख दिया ‘चमचम’। नाम चला भी खूब और जैसे-जैसे चमचम चाचा गाँव में आदर पाते गए वैसे-वैसे एक दिन किसी ने उस गली का नाम ही ‘चमचम गली’ कर दिया और नगरपालिका का रिकॉर्ड अपनी जगह धरा-का-धरा रह गया।

एक बात और भी हुईं चमचम चाचा की शोहरत में चार चाँद लगाने वाली। समागम शास्त्री हो-न-हो, इस मुद्दे पर सरेआम मात खा गए। चमचम चाचा के कारण सारी गली कच्ची-पक्की उम्र के बच्चों से क्रमशः जो भरती गई तो बस, समझ लो कि हल्ला मच गया। अब्बा जान ने और अम्मी ने अपने आधे जवान बेटे शकूर की शादी की थी खिदमत बी से। पूरी जवानी आते-आते शकूर भाई ने कमाल कर दिखाया। जिस वक्त अब्बा जान दुनिया से रुखसत हुए, उनके जनाजे के आस-पास खिदमत बी के दिए हुए चार बच्चे अपने दादा के जनाजे पाक को देख रहे थे। पाँचवाँ पेट में था। पहले चारों बेटे थे और खिदमत बी चाहती थी कि कम-से-कम एक तो बेटी हो ही जाए। यही वह समय था, जब लोगों ने शकूर का नाम ‘चमचम’ रख दिया था और जब खिदमत बी ने पाँचवीं बार बेटी को जन्म दिया तो चमचम चाचा ने कहा, ‘धत् तेरे की! तो अब मुझे भी दामाद ढूँढ़ने पड़ेंगे।’ और यह सोचकर चमचम चाचा मन-ही-मन दूसरे गुन्ताड़े में लग गए।

बाजार में चमचम चाचा से मुँहफट बात करनेवाला एक ही मर्द बचा था। किस्मत की बात है कि वह भी शुरुआती जमाने में चमचम चाचा का हमउम्र सहपाठी था। पूरा बाजार आज उस आदमी को रतन डैडी के नाम से जानता है। अंग्रेजी दवाइयाँ बेचने की रतन डैडी की दूकान धन्नाट चलती थी। चूँकि बाजार में एक चाचा पहले से ही था, इसलिए लोगों ने एक डैडी भी बनाया और ताज रतनलालजी के सिर पर फिट बैठ गया। खूब चोंचबाजी होती रतन डैडी और चमचम चाचा में।

‘क्या हाल है, खाँ साहब?’ डैडी पूछते।

‘सब अल्लाह का फजल है, सेठ साहब।’ चाचा का जवाब होता।

‘पाँच हो गए! अब क्या प्रोग्राम है?’

‘इसके दस पूरे हो जाएँ तो एक और लाऊँ। और उसके फिर.....।’

‘मर जाएगा! ले, ये गोलियाँ ले जा। खिदमत भाभी की खिदमत में देवर की तरफ से नजराना पेश कर देना।’ डैडी चिकोटी लेते।

और चमचम चाचा अपने ठेले के पास खड़े ही कहते, ‘रख ले अपनी गोलियाँ। सेठानी के काम आएँगी। भैंस मेरी दूध दे रही है, इधर पराए पाड़े का पेट फटा जा रहा है।’ चमचम चाचा का करारा जवाब होता।

और एक दिन घबड़ाकर खिदमत बी ने चाचा से साफ-साफ कह दिया -‘ये दस-वस मुझसे नहीं जने जाएँगे। इतना ही मन उफान पर है तो एक और ले आओ।’

चमचम चाचा ने इस फिकरे को ‘लाइन क्लीयर’ माना। जल्द ही एक दिन पूरे गाँव ने देखा, चमचम चाचा ने खिदमत बी की बराबरी पर लाकर एक विधवा को बैठा ही दिया। चाचा ने बाकायदा काजी साहब से पूछकर शादी की, निकाह पढ़ा, सारे रिवाज पूरे किए, रस्म-अदायगी की। बेशक चमचम चाचा की यह पसन्द, खूबसूरती के मामले में अब्बा जान और अम्मी की पसन्द से बीस थी।

‘अब खिदमत में जिसे लाया है, उसका नाम क्या है खाँ?’ डैडी ने अपनी दूकान पर बैठे-ही-बैठे सवाल दागा।

‘देखेगा तो गश खा जाएगा, पतली दालवाले! डॉलर लाया हूँ, डॉलर! घर आ कभी। उसके हाथ की भरवाँ मिर्ची खा। जन्म तर जाएगा।’ चमचम चाचा ने दावत दे दी, पर नाम नहीं बताया।

और डैडी ने फौरन नई बीवी का नाम ‘डॉलर’ रख दिया। डैडी ने रख दिया और चाचा ने मुसकराते हुए घर जाकर दूसरीवाली से कहा, ‘खिदमत की खिदमत में कसर मत रखना। पूरा बाजार तुझे डॉलर समझता है।’

यही वह मुकाम था, जहाँ समागम शास्त्री चमचम चाचा के कहीं नहीं लगते थे। हो-न-हो, इस गली का नाम ‘चमचम गली’ रहने के पीछे एक यह भी कारण बन गया हो। चमचम चाचा ने अगले बारह बरसों में बड़ी और छोटी-दोनों से मिलकर तेरह बच्चे और बना दिए। चार खिदमत बी के और नौ डॉलर बीवी के। इस तरह बीस बरस में चमचम चाचा ने एक से लेकर सत्रह बरस तक की उम्र के अठारह बच्चों से गली को गुलजार कर दिया। रतन डैडी की गोलियों का रंग बदलता रहा।

गली का हाल यह हुआ कि दूसरे लोगों के बच्चे भी जब चमचम चाचा के बच्चों के साथ खेलते तो पूरी गली घनघोर कोलाहल और शोर-शराबे में डूब जाती तथा अजीब-अजीब नजारे देखने को मिलने लगते। आते-जाते लोग ‘चमचम गली’ के बच्चे कहकर यहाँ-वहाँ उनकी चर्चा करते। बच्चे भी जब दूसरे गली-मुहल्लों में खेलने जाते तो अपने आपको चमचम गली के बच्चे कहकर अपना परिचय देते। चमचम गली के बच्चों की एक अलग ही पहचान हो गई दूर-दूर तक।

समय बीतता गया और एक दिन ऐसा आया कि ‘चमचम गली के बच्चे’ कहलाते-कहलाते ‘चमचम चाचा के बच्चे’ जैसा परिचय काम में आने लगा और अन्ततः हुआ यह कि सभी बच्चे चमचम चाचा के बच्चे कहे जाने लगे। चमचम चाचा भी सभी बच्चों पर एक जैसा अधिकार मानकर जो भी पूछता, उससे हाँ भरते हुए कहते, ‘जी हाँ! मेरा ही बच्चा है। कहिए, आपको क्या कहना है?’ वक्त-ब-वक्त चमचम चाचा अपनी गली के बच्चों के लिए उन सभी माँ-बापों से वैसी ही लड़ाई मोल ले बैठते, मानो वह उनका अपना ही बच्चा हो। चमचम चाचा सभी के चाचा थे और गली के सारे बच्चे चमचम चाचा के ही थे। गली की माँएँ इस भरोसे आश्वस्त होती थीं कि कहीं कुछ खरा-खोटा हुआ तो चमचम चाचा सब सँभाल ही लेंगे।

शौक के नाम पर चाचा को बस एक ही शौक था। वे बाजार से दस-ग्यारह बजे आते, खाना खाते और दोनों हाथ पोंछते-मसलते सीधे पान खाने के लिए वापस बाजार की ओर चल पड़ते। जाते-जाते किसी-न-किसी तरह का एक झटका समागम शास्त्री को रास्ते में खड़े-खड़े ही सही, पर जरूर देते और पान खाने के बाद गटर में थूकते हुए रतन डैडी के सामने जाकर खड़े हो जाते। दो-एक मिनट रतन डैडी से हँसते-बोलते। गोलियों से बात कितनी आगे बढ़ी, इसकी जानकारी लेते और बाजार में अपने परिवार के सभी सदस्यों को सब्जी बेचते हुए देखते, डॉलर चाची पर एक हसरत भरी नजर डालते और रतन डैडी का हाथ मसलकर खँखारते हुए ऊँची आवाज में पूरे बाजार को सुनाते हुए कहते, ‘देखा आज का अखबार? छपा है-डॉलर मजबूत।’ बाजार के जाते-आते लोग चमचम चाचा के विनोद का जी भरकर आनन्द लेते। खिदमत चाची कुछ बोलती, तब तक चाचा चल पड़ते। उनकी तरफ से पूरा जवाब रतन डैडी को सुनना पड़ता।

चमचम चाचा इतना होने के बाद चैन से घर आते, खिदमत चाची से कुछ बोलते, ठिठोली करते और लम्बी तानकर घण्टा-सवा घण्टा सोते। करीब तीन बजे वापस बाजार जाते तो फिर दीया-बत्ती के बाद ही अपना माल-असबाब समेटकर घर आते। आते समय वे समागम शास्त्री से फिर एकाध नई फेंट करते। चमचम चाचा की यह चुहल उनका चरित्र थी। आते-जाते गली भर के बच्चे, पाँच-पचास कदम तक चाचा के आगे-पीछे झूमते-झमते अपने शिकवे-शिकायत करते उनका कुरता-पाजामा खींचते और नारा लगाते - ‘चमचम चाचा जिन्दाबाद! हमारी गली,  चमचम गली! हमारा चाचा, चमचम चाचा!’

ऐसे में किसी ने एक दिन पानी पर लकीर खींचने की पहली कोशिश की। 

दोपहर का खाना खाकर हाथ पोंछते-मसलते चमचम चाचा पान खाने के लिए निकले। वह गली में पच्चीस-तीस कदम ही चले थे कि एक लडके ने रोते हुए शिकायत की, ‘चाचा, देखो तो इसने मुझे मारा।’ शिकायत करनेवाला चमचम चाचा का पाँच बरस का बेटा था। जिसकी ओर उसने इशारा किया वह बच्चा रहा होगा यही छह-सात बरस का।

‘किसने मारा तुझे? इसने?’ कहकर चाचा ने उस बच्चे को एक झापड़ रसीद कर दिया जिसने मारा था और सहज ही अपनी काली टोपी को सिर पर जमाते हुए बाजार की. ओर चल पड़े। बच्चे फिर खेलने में लग गए। जिस बच्चे को झापड़ पड़ा, वह जोर से रोता-रोता चमचम चाचा के दरवाजे की तरफ चल दिया। उसका रोना चमचम चाचा गली के मोड़ तक सुनते रहे।

गली के लोगों के लिए यह रोजमर्रा की बात थी। अपने बच्चों को चमचम चाचा आए दिन इसी तरह की नसीहत देते रहे हैं, जब छोटे-बड़े अठारह हैं तो एकाध रोज पिटेगा ही! पर आज के झापड़ ने गली में हंगामा खड़ा कर दिया। हालात की नजाकत को सबसे पहले समझा कस्तूरी बुआ ने। भागी- भागी बाजार गई और रतन डैडी की दूकान पर जा पकड़ा चमचम को। हाँफते- हाँफते बोली, ‘चमचम! कहीं दूर चला जा, लोग तुझे मार डालेंगे। तेरा घर घेर रखा है लोगों ने। वे तेरा खून पी जाएँगे।’ और कस्तूरी बुआ आँख बचाती हुई दूसरी दूकान पर कुछ खरीदने का बहाना करके खड़ी हो गई।

चमचम चाचा और रतन डैडी भागे सीधे चमचम गली की ओर।

गली के मोड़ पर से ही देखा कि सारी गली में नारेबाजी हो रही है।

‘आज इसका सारा नशा उतार दिया जाएगा।’

‘इसकी हिम्मत कैसे हुई एक बच्चे पर हाथ उठाने की?’

हवा में नारे, लाठियाँ और घूँसे लहरा रहे थे।

चमचम चाचा कुछ समझ नहीं पाए; पर रतन डैडी ने एक पल में भाँप लिया कि जहर की जड़ कहीं और है। उन्होंने आव देखा न ताव, चमचम चाचा का हाथ पकड़कर सीधे समागम शास्त्री की बैठक में घुस गए। तब तक चमचम चाचा समझ ही नहीं पाए कि माजरा क्या है।

भीड़ समागम शास्त्री के घर को घेरकर खड़ी थी। आसमान अफवाहों से ठस्स था। पूरी बस्ती चमचम गली की तरफ मुड़ रही थी।

‘शास्त्रीजी! आप इस कमीने को बाहर निकाल दो, इसको शरण मत दो। आज इस पार या उस पार हो ही जाए।’ लगा कि धरती चमचम चाचा के खून से तो लाल हो या नहीं हो, पर आज हर गली में किसी-न किसी का खून जरूर बह चलेगा। हल्ला उठा, ‘डालो घासलेट, लगा दो आग ! निकालो।’

तब तक चमचम चाचा ने मन-ही-मन मान लिया कि बस अब मरना ही है। गलियों से निकलकर चमचम चाचा के धर्मवाले भी वहाँ जुटने लगे।

हाथ जोड़कर चमचम चाचा दरवाजे पर आए। जोर से बोले, ‘जान लेना हो तो आपके सामने एक-दो नहीं, हम इक्कीस लोग अपनी जान लेकर हाजिर हैं। एक तो मैं, मेरी दो बीवियाँ और अठारह मेरे बच्चे। इस गाँव और इस मिट्टी से हम सबका तन-बदन और मन बना है। पहले मेरा कसूर बताओ। सच होगा तो मैं हाँ कर लूँगा और दण्ड-सजा भुगत लूँगा। मेरी गलती नहीं हुई तो सब लाठीवालों को माफ कर दूँगा।’

शास्त्रीजी और डैडी जैसे दो-चार बाहोश लोग और बीच में पड़े। पुलिस पहुँची, जैसे कोई इजलास शुरु हुआ हो।

‘तूने इस बच्चे को झापड़ मारा?’ भीड़ में कई लोग एक साथ चिल्लाए।

दस-पाँच लोगों ने उस हक्के-बक्के बच्चे को आगे सरकाते हुए चमचम चाचा के आस-पास घेरा कसने की कोशिश की। 

भीड़ में एक क्षण के लिए सन्नाटा छा गया। चमचमम चाचा ने बच्चे को गौर से देखते हुए कहा, ‘हाँ भैया! मैंने इस बच्चे को झापड़ मारा।’

‘क्यों मारा? क्या यह तेरे बाप का है?

हैरान होते हुए चमचम चाचा ने शास्त्रीजी से पूछा, ‘महाराज! आप ही बताओ! क्या, मेरा एक बेटा दूसरे बेटे को मारे और मुझ तक शिकायत आए तो मुझे इतना हक नहीं है कि मैं अपने बच्चे को एक चाँटा रसीद कर दूँ?’

‘पर यह बच्चा तेरा नहीं है।’ कुछ लोग चिल्लाए।

‘कौन कहता है यह बच्चा मेरा नहीं है? अगर यह खिदमत का नहीं होगा तो डॉलर का होगा। है मेरा ही बच्चा।’

भीड़ में दोनों चाचियाँ भी खड़ी थीं। माथा ठोका खिदमत बी ने, ‘हाय अल्लाह! तुम तो अपने बच्चों को पहचानते भी नहीं! यह बच्चा न मेरा है न डॉलर का।’

‘फिर किसका है?’

‘यह बच्चा भवानीराम का है।’

चमचम चाचा ने भीड़ में भवानीराम को ढूँढने की कोशिश की। आवाज देकर चाचा बोले, ‘भवानीराम दादा! मैं खड़ा हूँ सामने। जो भी सजा देनी हो, दे दो।’

तीन-चार लोग चिल्लाए, ‘भवानीराम बेचारा खेत में है, बच्चे की माँ तालाब पर नहाने गई है। तूने इसे बिना माँ-बाप का समझकर झापड़ जड़ दिया?’

चमचम चाचा हाथ जोड़कर रतन डैडी को गवाह बनाते हुए बोले, ‘रतन सेठ! तू मेरा यार है। मैं अल्लाह को गवाह मान कर कहता हूँ कि हाँ, मैंने इस बच्चे को झापड़ मारा है। पर शास्त्रीजी! कसम खुदा की, मैं अभी तक यही समझ रहा था कि यह मेरा अपना बच्चा है। मैंने अपनी औलाद समझ कर हाथ उठा लिया है। मुझे पता होता कि यह मेरा अपना बच्चा नहीं है तो भला मैं.....’

भीड़ की कसावट कम होने गली। घेरा पतला पड़ने लगा। लोग एक-दूसरे को कनखियों से देखकर इधर-उधर होने लगे। पुलिसवालों ने कुछ लोगों को डाँटा, ‘चलो! दफा हो जाओ यहाँ से! बात न बात का नाम, बच्चों की लड़ाई में....।’ लोग बिखरने लगे। 

रतन डैडी अपनी मस्ती भूल गए, चिन्ता में पड़ गए। शास्त्रीजी क़ुछ समझ ही नहीं पा रहे थे। बच्चे खेल-कूद में मगन हो गए। चमचम चाचा बहुत उदास और करीब-करीब रुआँसे होकर शास्त्रीजी के घर से बाहर निकले। गली का वातावरण बोझिल-सा हो गया। लगता था, कोई अनहोनी मँडरा रही है।

अकेली कस्तूरी बुआ की आवाज थी, जो सुनाई पड़ रही थी, ‘जाओ रे, जाओ, अपना-अपना काम देखो। आज मेरी चमचम गली को नजर लग गई है किसी काली नजरवाले की। राम-राम! ऐसा इस गली में आज तक नहीं हुआ। भगवान जाने, कहाँ-कहाँ से लोग आ जाते हैं लाठियाँ ले-लेकर लड़ने।’

चमचम चाचा तब से आज तक रतन डैडी से एकदम निश्छल सवाल करते हैं, ‘यार सेठ! तू ही बता, उस दिन मेरा ऐसा कौन सा कसूर था, जो.....?’ 

गली के मोड़ पर ही बच्चों का हुजूम उनको घेर लेता है। नारे लगने लगते हैं--

‘चमचम गली जिन्दाबाद! हमारा चाचा चमचम चाचा!’

इन दिनों चमचम चाचा इन नारों के प्रति एकदम विरक्त, एकदम निर्विकार, एकदम उत्साहहीन हो चले हैं। अब तो कस्तूरी बुआ भी चमचम चाचा को समझ नहीं पा रही है, समागम शास्त्री की भला क्या बिसात! वे आज तक पता नहीं लगा पा रहे हैं कि उस दिन झगड़ा करनेवाले लोग कहाँ से आ गए थे? चमचम गली के लोग तो वे थे नहीं!

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‘बिजूका बाबू’ की दूसरी कहानी ‘आस्था सतवन्ती’ यहाँ पढ़िए।

‘बिजूका बाबू’ की चौथी कहानी ‘रामकन्या’ यहाँ पढ़िए।



कहानी संग्रह के ब्यौरे -

बिजूका बाबू -कहानियाँ
लेखक - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - प्रभात प्रकाशन, 4/19, आसफ अली रोड़, नई दिल्ली - 110002
संस्करण - प्रथम 2002
सर्वाधिकर - सुरक्षित
मूल्य - एक सौ पचास रुपये
मुद्रक - नरुला प्रिण्टर्स, दिल्ली
 


 

  

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

   

   

   

   

   

   

   

   

   

   

     

   

   

  

 








 



 

  


   

 


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