हरिया बाबा (‘मनुहार भाभी’ की आठवीं कहानी)



श्री बालकवि बैरागी के
प्रथम कहानी संग्रह
‘मनुहार भाभी’ की आठवीं कहानी



                           हरिया बाबा  

कमरु मास्टर जैसा नजर आता है वैसा है नहीं। नाम तो उसका कमरुद्दीन है, पर सब उसे कमरु मास्टर के नाम से ही जानते हैं। अच्छा भला खिलन्दड़ा लड़का था वह कभी, लेकिन जब से वह शिवपुरी ट्रेंड होकर आया है बहुत कुछ बदला-बदला-सा लगता है। लगता भी क्या है वह बदला-बदला-सा रहने लगा है। सारा घर आँगन गली-मुहल्ला, अरिजन-परिजन सब उसे कमरु मास्टर ही कहकर बुलाते हैं और वह बोलता भी इसी नाम से है। कभी उसे कमरुद्दीन कहकर या मास्टर साहब कहकर बुलाओ तो बोलता नहीं है। कमरु और मास्टर दोनों को मिलाकर कमरु मास्टर कहो तब ही वह बोलता है।

अक्सर उसे चुन्नी की दुकान पर देखा जा सकता है। जब से तबादला होकर वह यहाँ आया उसने चन्नी टी स्टॉल को ही अपनी बैठक का अड्डा चुना। तबादला भी उसका जानबूझकर किया गया है, ऐसा उसे विश्वास हो गया। अपने घर से दूर उसे इस तरह फेंक दिया गया इसका मलाल उसने कभी नहीं पाला, लेकिन वह जानता है कि इस तबादले के पीछे कौन सी ताकत काम कर रही है? स्कूल जाने के पहले भी कमरु मास्टर एकाध घण्टा चुन्नी टी स्टॉल पर बिताता है और स्कूल से आने के बाद घर जाकर हाथ-मुँह धोकर फिर शाम को वह अपने नियत स्थान पर आ बैठता है। लोगों की दिलचस्पी अक्सर रही है, लेकिन उसने किसी भी जिज्ञासा का समाधान नहीं किया। इने-गिने उसके दोस्त रहे और वह उन्हीं में अपना समय निकाल देना ठीक समझता है।

अक्सर वह चुप रहता है, पर उसकी यह चुप्पी भी जानलेवा होती है। वह मुँह से चुप रहता है, लेकिन मन से बहुत बोलता है। उसकी आँखों में हर क्षण एक सिकुड़न आती है। फिर वे विस्फारित होती हैं और फिर सिकुड़कर नॉर्मल हो जाती हैं। उसकी उँगलियाँ हमेशा एक-दूसरी में फँसी रहती हैं। लोग समझते हैं कि वह चुप है, लेकिन वास्तव में वह चुप होता नहीं है। उसका मन कहीं-न-कहीं उड़ान भरता रहता है। जब भी उसका मुँह खुलता है ऐसा लगता है वह लावा उगल देगा। समाज, सरकार, व्यवस्था और जाति-बिरादरी तथा धर्म-संस्कृति पर वह कस कर टिप्पणी करता है। उसकी इन बेलाग टिप्पणियों के कारण घर वाले उसे कभी-कभी काफिर तक कह देते हैं। वे उसे नास्तिक मानते हैं। निकट के दोस्त उसे कम्युनिस्ट समझकर उससे बहस में नहीं उलझते और उसका तबादला करके यहाँ फेंकने वाले लोग उसे पाकिस्तानी और लीगी कहकर कानाफूसी किया करते हैं। 

कमरु मास्टर इन सबसे वाकिफ है। वह खूब समझता है कि उसके लिए किसकी क्या राय है। वह काफिर, कम्युनिस्ट और लीगी सबका मतलब गहरे तक समझता है। वह समझता है कि उसके देश का नाम भारत है। उसे पता है कि भगवान ने उसे मुसलमान पैदा किया है। पूरब और पश्चिम की दरार को उसने खूब जाना और समझा है। उसने सन्त-महन्त भी देखे हैं और वह पीर-मुर्शिदों से भी मिला है। बचपन उसका हिन्दुओं में ही बीता। उसके साथी-संगाती सब उसे ‘करमू’ कहकर बुलाया करते थे। वे उसे कभी भी ‘कमरु’ नहीं मान सके। जिस दिन उसे पहली बार उसके दोस्त अर्जुन ने ‘कमरु’ कहकर पुकारा तो उसे एक झनझनाहट हुई थी और उसे लगा था कि वह अब मुसलमान माना जाने लगा है। बचपन गुजरने का अहसास भी उसे तभी हुआ। उसने पाया कि उसका कुछ वैसा खो गया है जो उसका कभी आधार था। अर्जुन को यह कभी समझ नहीं पड़ा कि उसने अगर एक गलत नाम को सही कर दिया तो उससे कौन-सी भूल हो गई? स्कूल में पढ़ते-पढ़ते कमरु ने हर क्षण महसूस किया कि उसे मुसलमान माना जा रहा है और आगे जाकर वह देश का नम्बर दो का नागरिक ही बन पाएगा। शायद वह कभी नम्बर एक वाला दर्जा नहीं पा सकेगा। यह सब अनजाने, अपने-आप होता रहा और कमरु पढ़-पढ़ाकर किसी-न-किसी तरह मास्टर हो गया। मास्टर के बाद वह शिवपुरी ट्रेनिंग के लिए चुना गया। उसने अपने गाँव और अपने स्कूल का नाम वहाँ खेलकूद में रोशन किया और प्रशिक्षित होकर वापस अपनी शाला में आया ही था कि उसे तबादला करके यहाँ भेज दिया। कमरु को इस तबादले से लगा कि वह धकेल-धकेलकर नम्बर दो का नागरिक बनाया जा रहा है। तबादला होना सरकारी नौकरी की नियति है। कमरु मास्टर को इसका मलाल नहीं था, पर उसे यह दर्द हमेशा सालता रहता था कि जो वह नहीं है, उसे वैसा समझा जा रहा है। खैर।

नई पाठशाला में उसे हेड मास्टर सुलझे हुए मिले। मनोविज्ञान में वे एम. ए. थे और दो-चार दिन में ही उन्होंने कमरु की काठी और उसके कद तथा मिट्टी-पानी को भली-भाँति समझ लिया। उन्होंने पाया कि एक सही नवयुवक उनकी संस्था में है। वे कमरु मास्टर की चुप्पी के अर्थ परत-दर-परत लगाने में व्यर्थ नहीं उलझे। आगे बढ़कर कमरु को काम देना और उसे दोयम दर्जा महसूस नहीं हो इसका ध्यान रखते हुए एक दिन वे कमरु के जिम्मे एक मौज-मस्ती का काम दे बैठे। 

लगातार दो दिन की छुट्टियाँ पाकर स्कूल के कुछ गिन-चुने विद्यार्थियों की एक पिकनिक उन्होंने कमरु मास्टर के जिम्मे लगा दी। साथ ही सुझाव भी दे दिया कि यदि वह ठीक समझे तो बच्चों को पास वाली पहाड़ी पर हरिया बाबा से मिलवा लाए। कमरु मास्टर यहाँ नया-नया आया था। न भूगोल जानता था न इतिहास। पर वह बच्चों को साथ लेकर चल पड़ा। चूँकि जंगल-पहाड़ का मामला था इसलिए पूरे दल के पास दो-तीन कुल्हाड़ियाँ भी जरूरी सामान में शामिल करके एक कुल्हाड़ी ख़ुद कमरु ने ली और पिकनिक पार्टी हरिया बाबा की पहाड़ी के लिए चल पड़ी।

वहीं खाना बनाना था और शाम तक वापस आना था। एक तो वैसे भी कमरु मास्टर को इन पीर-मुर्शिदों, सन्त-महन्तों और बाबा-जोगियों से चिढ़ थी, दूसरे उसके जिम्मे हरिया बाबा से भेंट का काम जुड़ गया। वह वैसे ही खीजा हुआ था। अनमने मन से अपना दल लेकर वह चल पड़ा। लगता था एक ज्वालामुखी किसी पहाड़ी पर चढ़ रहा है। किलकारियाँ भरते बच्चे अपनी सहज जिज्ञासाओं और प्रश्नों को कमरु मास्टर के सामने रखते। जितना होता उतना कमरु मास्टर उत्तर देता, आश्रम के सामने जा खड़ा हो गया।

हरिया बाबा कमरु मास्टर को किसी भी तरह से बाबा नहीं लगे। हाँ, उनका व्यक्तित्व जरूर आकर्षक था। पर न उसके पास फकीरों जैसे हरे कपड़े थे न नाथ-गुसाइयों जैसे भगवा चोगे। न कोई कण्ठी माला न तिलक छापा। साठ के ऊपर की उम्र होते हुए भी बाबा चालीस-पैंतालीस के आसपास दिखाई पड़ते थे। बात-बात पर बाबा हँसते और बच्चों की तरह तालियाँ बजाते। कमरु मास्टर ने जब उनका अभिवादन किया तो बाबा ने उत्तर दिया, ‘मेहमान आप हैं। पधारे आप लोग हैं। अभिवादन तो मुझे करना चाहिए।’

‘सरासर ढोंगी है।’ कमरु ने मन-ही-मन कहा। बाबा पर एक तीखी नजर गड़ाकर वह देखता रहा।

झोंपड़े के पास ही एक ढलान पर बच्चों ने खाने का सामान निकाला और कुछ बच्चे खाना बनाने तथा कुछ नहाने और लकड़ियाँ लाने का उपक्रम करने लगे।

‘आपको खाना बनाने के लिए जो भी आवश्यक लगे वह यदि यहाँ आपको नजर आता हो तो आप खुद ले लें। किसी से पूछने की जरूरत नहीं है।’ बाबा ने कमरु से कहा।

‘शुक्रिया। जो भी लगेगा वह ले लेंगें। आज आपका खाना भी हमारे हो साथ होगा।’ कमरु ने बाबा को न्योता देते हुए कहा।

‘ऐसा नहीं होगा। मैं किसी का छुआ नहीं खाता हूँ।’ बाबा ने सारे न्यौते ऐसी तैसी कर दी।
कमरु का खून खौल गया। बच्चे अपनी तैयारियों में व्यस्त थे, पर कमरु मास्टर अब चुप नहीं रह सकता था। उसने सीधा सवाल किया, “आपको नहीं खाना है तो मत खाइए पर यह ‘किसी का छुआ नहीं खाता’ जैसी घटिया बात कहते आपको विचार करना चाहिए था। आपको जात-पाँत से क्या मतलब?”

हरिया बाबा बिल्कुल शान्त रहे। मुस्कराते हुए बोले, ‘क्या नाम है आपका?’

‘नाम जानकर क्या करेंगे। सीधे अपनी जात ही बता देता हूँ। मैं मुसलमान हूँ।’ कमरु की कनपटियाँ गरम होती जा रही थीं।

‘मैंने नाम पूछा था जाति नहीं। क्या आप इन बच्चों के मास्टर हैं?’

‘जी हाँ। मैं इनको पढ़ाता हूँ। मेरा नाम कमरु मास्टर है।’

‘शायद पठान हो।’

‘जी हाँ।’

‘अच्छा, आप लोग खाना बनाओ और अपने हिसाब से खा लेना में आपके लिए कु्छ कन्द-मूल, फल वगैरह ले आता हूँ। इतने सारे बच्चे हैं। जंगल का मेवा खाने को मिलेगा तो कुछ जंगल का महत्त्व भी समझेंगे।’ कहते हुए बाबा ढलान से उतर गए।

कमरु मास्टर देखता रहा। आसपास बच्चे लकड़ी-कण्डे ढूँढ रहे थे। कोई आग सुलगा रहा था तो कोई आटा सान रहा था। सारा दल काम पर लग गया था। कमरु मास्टर सबको निर्देश देता सोचता रहा। वह सोचता था कि चाहे संसार को त्याग कर कोई कितना भी दूर चला जाए, उससे अपनी जात-पाँत नहीं छूटती। उसके मन में एक बार तो आया कि वह अपने विद्यार्थियों को तत्काल यहाँ से हटाकर कहीं दूसरी जगह ले जाए। पर अब उसके पास समय नहीं था।

दोपहर चढ़ते-चढ़ते बच्चों ने जैसा कुछ बना वैसा पका-पुकू कर खा-पी लिया और वे अपना सामान बटोरने लगे। तभी बाबा दूर से एक बड़ी पोटली हाथ में लिए आते दिखाई पड़े। आँगन में आकर बाबा ने पोटली रखी। सबसे पूछा कि खाना बनाकर खाने में उनको कोई तकलीफ तो नहीं हुई। अनमना कमरु ‘हॉँ-हूँ’ करता रहा।

यही कोई डेढ़-दो बजे होंगे, बाबा ने पोटली में से अपने लाए मेवे को बाहर निकाला। कुछ कन्द था, कुछ करौंदे और कुछ खजूरे। कुछ बेर किस्म के फल भी थे। बाबा ने एक आवाज दी। कुटिया में से एक गौरवर्ण शालीन महिला निकलकर बाहर आई। बाबा ने उससे कहा, ‘ये फल धोकर इन बच्चों में बाँट दो। भोजन के बाद फल भी हो जाएँगे।’ महिला ने पन्द्रह मिनट ठहरने की मनुहार बच्चों से की और कमरु देखता रह गया। उसकी आँखें एक बार सिकुड़ीं। फिर विस्फारित हुई और फिर सिकुड़कर नॉर्मल हो गईं। उसने देखा कि वह महिला वजू करने का अस्तावा भर कर लाई है। उसने वजू किया। फिर उसने नमाज पढ़ने का मुसल्ला बिछाया और सिर ढँककर मगरिब की ओर मुँह किया और नमाज पढ़ना शुरू कर दिया। कमरु मास्टर की धड़कन बढ़-सी गई थी। सारे आश्रम में सन्नाटा छा गया। कमरु से न कुछ बोला जा रहा था न वह बोलने की स्थिति में था। उसकी आँखों में सवाल ही सवाल थे। उसने एक निरीह दृष्टि बाबा की ओर डाली।

“मेरी पत्नी है। जौहर की नमाज का वक्त हो गया है न? पढ़ सकते हो तो तुम भी पढ़ ला।’ बाबा ने कमरु से कहा।

कमरु मास्टर जड़वत् सब कुछ देखता रहा। 

नमाज पूरी होने के बाद बाबा ने और उनकी पत्नी ने वे फल पानी से धोए और खाँखरे के पत्तों पर रख-रखकर बच्चों में बॉँट दिए। बच्चे फलों को मस्ती से खाने लगे। कमरु खा जरूर रहा था, पर उसका सारा स्वाद बिगड़ गया था। फल खाते-खाते जब बच्चे उनकी गुठलियाँ यहाँ-वहाँ फेंकने लगे तो बाबा ने सबको समझाते हुए कहा, ‘आप इन गुठलियों को दूर नहीं फेंकें। अपने पास ही पत्तों पर डाल दें। फल खाकर सारी गुठलियाँ यहीं छोड़ दें। मेरे काम आ जाएँगी।’ और खुद अपना अँगोछा लेकर आम की उन सारी गुठलियों को बीन लाए जो कि बच्चों ने यहाँ-वहाँ फेंक दी थीं। कमरु मास्टर इन आमों को बड़े मन से बच्चों के लिए रखकर अपने साथ लाया था। बाबा ने आम की गुठलियाँ देखकर उसकी नस्ल पर कमरु मास्टर से पूछताछ की लेकिन कमरु मास्टर तो एक तरह से चेतनाशून्य था।

‘आप इन गुठलियों का क्या करेंगे?’ एक बच्चे ने पूछा।

‘तुम फल खा लो तो चलो फिर दिखाता हूँ।’ बाबा ने सभी बच्चों को एक ही साथ उत्तर दे दिया। 

बाबा और उनकी पत्नी ने सारे पत्तों को इकट्ठा किया। उन पर वे सारे बीज और गुठलियाँ एकत्रित करके ऊपर से एक कोने में रखी हुई राख डाली और उनको राख से एकजीव कर दिया।  फिर वे बच्चों के साथ कुटिया के पिछवाड़े गए। तीन-चार फटी बोरियों में वहाँ तरह-तरह के बीज और गुठलियाँ भरे पड़े थे। बाबा की पत्नी ने वे सारे बीज और गुठलियाँ भी उन बोरों में डालकर बोरे को धरती पर ठेचा देता हुए खड़ा कर दिया।

कमरु मास्टर को पसीना आ रहा था। बाबा की पली से बोला, ‘बाजी! मैं आपसे कुछ जानना चाहता हूँ।’

बाबा और बाजी की हँसी एक साथ चल गई। बच्चों ने गोला बनाकर दोनों को घेर लिया।

‘तुम बहुत नाराज हुए हो कमरु कि मैंने तुम्हारे हाथ का छुआ खाना खाने से इन्कार कर दिया। ठीक है न?’

‘हाँ।’ कमरु मास्टर ने बोलना चाहा।

‘तुमने माना होगा कि तुम एक मुसलमान हो इसलिए मैं वैसा कर रहा हूँ, पर फिर तुमने बाजी को नमाज पढ़ते देखकर........। ठीक है न?’

‘जी बाबा।’ कमरु के गले में काँटे अटक रहे थे।

‘सुनो बेटे! मैं तुम्हारे ही हाथ का नहीं किसी के भी हाथ का छुआ हुआ नहीं खाता हूँ। तुम्हारी बाजी पकाती है और हम लोग खा लेते हैं। यह मेरा व्रत है।’

‘यदि कोई गम्भीर रहस्य नहीं हो तो हम सबको बता दो। बच्चे भी कुछ सीखेंगे।’ कमरु मास्टर ने कहा।

‘जरूर सुनो। तुम लोगों के पास कुल्हाड़ियाँ देखते ही में सिहर गया था। जो भी यहाँ तक आता है मैं उससे बहुत डरता रहता हूँ। मुझे हर आदमी पर शक होता है कि इसने कभी न कभी कोई हरा दरख्त काटा होगा या फिर यह हरा पेड़ काटने आया होगा। हो सकता है कि आगे कभी यह किसी दरख्त पर अपनी कुल्हाड़ी चलाएगा। मेरी नजर में इस जगह आकर हर आदमी वैसा हो गया जिसके हाथ का छुआ खाने में मुझे भगवान के प्रति अपराध लगता है।’

कमरु मास्टर को लगा कि उसके दल के साथ लाई हुई कुल्हाड़ियाँ सीधा उसका भेजा फाड़ती

हुई उसके कलेजे में घुसती जा रही हैं। वह चीखने को हुआ ही था कि बाबा फिर बोले, ‘और ये जो बीज और और गुठलियाँ हैं न, अब मैं इनको लगती ही बरसात सारे जंगल में ठीक-ठीक जगह देखकर बो दूँगा। इसके लिए मुझे कभी-कभी मीलों तक यात्रा करनी पड़ती है। जब मैं यहाँ नहीं होता हूँ तब तुम लोगों के झूठे बीज और गुठलियाँ तुम्हारी बाजी इकट्ठा करती रहती हैं। गए चालीस साल से मैं इस व्रत को पाल रहा हूँ। एक जमाना था जब मैं भी तुम्हारी तरह ही कुल्हाड़ियों का शौकीन पर मेरी कुल्हाड़ी तुम्हारी बाजी ने फिंकवा दी। अच्छा अब तुम लोग जाओ। सूरज डूबने से पहले नदी पार कर जाना। बस्ती में सबको मेरा आदर-अभिवादन देना।’

कमरु मास्टर का मुँह बिल्कुल सूख गया था। उसका ज्वालामुखी खदबदा कर ठण्डा होता जा रहा था। वह बिल्कुल सहज नहीं रह सका। असहज हो गया। उसकी पठानी आँखों में आँसू छलक आए।

बाजी सभी बच्चों को विदा देने के लिए तैयार थीं। कुछेक हिदायतें देते हुए वह फिर कभी आने की मनुहार कर रही थीं। बाबा को तब भी कुछ कहना शेष था। बोले, ‘इस जंगल में दूर-दूर तक हरे-भरे दिखाई देने वाले हजारों पेड़ मैंने इसी तरह लगाए हैं। पेड़ एक तरह से हमारे पूर्वज हैं, मास्टर। इन पर चलती हुई कुल्हाड़ियाँ मुझे अपने पूर्वजों और बच्चों पर चलती हुई लगती हैं। जाओ, तुम लोग अब जाओ और जब भी वापस आओ तो अपने घर के सारे बीज और गुठलियाँ मेरे लिए लेते आना। मेरे व्रत में तुम्हारा यह योगदान कम नहीं होगा।’

हाथ जोड़कर कमरु मास्टर ने बाबा.का अभिवादन किया और बाजी को सलाम करने के लिए उसका दाहिना हाथ उठा ही था कि बाजी ने कमरु से कहा, ‘बाबा की जाति नहीं पूछोगे?’

बाबा ताली बजाते हुए ठट्ठा मारकर हँस पड़े-‘अब जाने भी दो इन बच्चों को। जंगली की भी भला कोई जाति होती है?’

कुटिया को पीठ देकर कमरु मास्टर और उसके विद्यार्थी चल पड़े। बाजी ने देखा कि कमरु मास्टर अपने दल की तीनों-चारों कुल्हाड़ियाँ वहीं छोड़ गया है।

दूसरे दिन कक्षा में कमरु मास्टर ने अपने बच्चों को पढ़ाया-‘संसार में दो ही जातियों के लोग पाए जाते हैं। एक वे जो पेड़ लगाते हैं दूसरे वे जो पेड़ काटते हैं। एक वे जो धरती पर हरियाली लाते हैं, दूसरे वे जो धरती की हरियाली छीनते हैं। एक को कहते हैं हरिया बाबा और दूसरे को कहते हैं........।’
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कहानी संग्रह के ब्यौरे

मनुहार भाभी - कहानियाँ
लेखक - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - नीलकंठ प्रकाशन, 1/1079-ई, महरौली, नई दिल्ली-110030
प्रथम संस्करण 2001
मूल्य - 150/- रुपये
सर्वाधिकार - लेखक
मुद्रक - बी. के. ऑफसेट, नवीन शाहदरा, दिल्ली-110032



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