अग्नि-वंश का गीत



श्री बालकवि बैरागी के कविता संग्रह
‘कोई तो समझे’ 
की अठारहवी कविता 

यह कविता संग्रह
(स्व.) श्री संजय गाँधी को 
समर्पित किया गया है।


अग्नि-वंश का गीत

कहाँ गई वो आग कि जिसमें, शोणित सदा नहाता था
कहाँ गई वो आग कि जिसमें, महाप्रलय मुस्काता था
परिवर्तन के पलने में जब, अग्नि-वंश सो जाता है
(तो) कालान्तर में अग्नि-वंश ही मेघवंश हो जाता है।

उनकी पुरवा बहे, इनकी पछुआ बहे
पर झुलसाये मेरी बहारों को
(तो) ज्वाला को जोखिम लेनी ही होगी
जलना ही होगा अंगारों को।

पहिली ही किरन को ललकारो, यदि ये सूरज भी काला हो
किरणों का कंचन खोटा हो, नकली हो कलई वाला हो
अंजुलि को बदलो मुट्ठी में, भैरव में बदलो मन्त्रों को
मैं फिर लिख दूँगा गायत्री, पहिले निपटो षड़यन्त्रों को।

ले के आड़ बाढ़ों की
सींचे प्यास डाढ़ों की
तोड़े मन्दिर के पावन किवारों को
तो ज्वाला को जोखिम लेनी ही होगी जलना ही होगा अंगारों को।

हम हैं कि सुबह की नीयत पर, हर बार भरोसा करते हैं
हर बार जलालत सहते हैं, हर बार तड़प कर मरते हैं
इस बार जलालत आई तो, तय है कि बगावत आयेगी
इन सूरज, चाँद, सितारों को, लोहू की नदी पी जायेगी।

मेरा नाम ले लेना
ये पैगाम दे देना
उन पैदायशी अवतारों को
इस ज्वाला को जोखिम लेनी ही होगी जलना ही होगा अंगारों को।

आँसू को जहाँ आँसू ही मिले, इज्जत न पसीना पाता है
वह राज हजार खुदा को हो, पल भर में पलट ही जाता है
हम जिसको खुदाई देते हैं, इन्सान समझ कर देते हैं
कल को न खुदा हो जाये वह, पहिले ये वादा लेते हैं।

पद में भूल के कोई
मद में फूल के कोई
बिसरे न नारों के मारों को
इस ज्वाला को जोखिम लेनी ही होगी जलना ही होगा अंगारों को।

हम दीन नहीं, हम हीन नहीं, हम याचक या कि गुलाम नहीं
नारों के नशे में मर जायें, ऐसे भीे उमर खैयाम नहीं
हम अपनी उमर को खाते हैं, हम अपना पसीना पीते हैं
बारूद हमारी जिन्दा है, बेशक हम बुझे पलीते हैं।

कोई धोखा न दे
वेसा मौका न दे
इन लावा उगलते शरारों को
इस ज्वाला को जोखिम लेनी ही होगी जलना ही होगा अंगारों को।
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संग्रह के ब्यौरे

कोई तो समझे - कविताएँ
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - मध्यप्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन, भोपाल
एकमात्र वितरक - साँची प्रकाशन, भोपाल-आगरा
प्रथम संस्करण , नवम्बर 1980
मूल्य - पच्चीस रुपये मात्र
मुद्रक - चन्द्रा प्रिण्टर्स, भोपाल


 




















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