घन बालाएँ केश बिखेरे

 

श्री बालकवि बैरागी के कविता संग्रह
‘दो टूक’ की अट्ठाईसवीं कविता 

यह संग्रह दा’ साहब श्री माणक भाई अग्रवाल को समर्पित किया गया है।



घन बालाएँ केश बिखेरे

रत्नाकर की राज-सुताएँ
करती हैं उत्पात घनेरे
घन बालाएँ केश बिखेरे

पाकर के ऊषा की आहट
इधर-उधर से आकर नटखट
उलट लाज के सारे घूँघट
लिपट-लिपट जाती सूरज से
निर्वसना ही साँझ-सवेरे
घन बालाएँ केश बिखेरे

भरी दुपहरिया लरज-लरज कर
झूम-झूम कर गरज-गरज कर
लोक-लाज को बरज-बरज कर
मनु-श्रद्धा के कर्मांचल में
कर जाती हैं सौ-सौ फेरे
घन बालाएँ केश बिखेरे

मत पूछो संध्या की बतियाँ
पुरवा को दे-देकर पतियाँ
निठुर ठगारी ये सूरतियाँ
ना जाने किस प्रियतम के हित
चुनती हैं नित लाल कनेरें
घन बालाएँ केश बिखेरे

और रात को देकर ताले
बजा-बजा नूपुर मतवाले
छलका-छलका रस के प्याले
बेसुध कर देतीं चन्दा को
कस-कस कर बाँहों के घेरे
घन बालाएँ केश बिखेरे 
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संग्रह के ब्यौरे
दो टूक (कविताएँ)
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - राजपाल एण्ड सन्ज, कश्मीरी गेट, दिल्ली।
पहला संस्करण 1971
सर्वाधिकार - बालकवि बैरागी
मूल्य - छः रुपये
मुद्रक - रूपाभ प्रिंटर्स, शाहदरा, दिल्ली।
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यह संग्रह हम सबकी रूना ने उपलब्ध कराया है। रूना याने रौनक बैरागी। दादा स्व. श्री बालकवि बैरागी की पोती। राजस्थान प्रशासकीय सेवा की सदस्य रूना, यह कविता यहाँ प्रकाशित होने के दिनांक को उदयपुर में, सहायक आबकारी आयुक्त के पद पर कार्यरत है।























 


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