वे: इन दिनों



श्री बालकवि बैरागी के कविता संग्रह
‘कोई तो समझे’ 
की तेरहवी कविता 

यह कविता संग्रह
(स्व.) श्री संजय गाँधी को 
समर्पित किया गया है।


वे: इन दिनों

कुछ सूत्रों पर उन्होंने
इसलिये कुछ नहीं लिखा
कि
उन्हें इनमें लिखने लायक
कुछ नहीं दिखा।

वे लिख सकते हैं
शराबों, साकियों
फूलों, कलियों, बहारों
तितली और भौंरों पर
याने कि छातियों की छतनारों
और काजल की कोरों पर।

लिखने को तो कभी वे
‘गरीबी हटाओ’ और ‘समाजवाद’
पर भी लिखते थे
पर तब उनके तेवर तनतनाहट के होते थे।
मेरे खलिहान का रोना
बे ‘बारों’ और कॉफी हाउसों में
बैठकर रोते थे
डिस्को के नंगे नाचों में
टटोलते थे जिस्म ‘क्रान्ति’ का
देश को मानते थे वे
घोंसला, अराजकता और अशान्ति का।

पर अब वे
लस्त-पस्त और निराश हैं
इन दिनों कुछ विशेष उदास हैं।
अब भी वे मिलते हैं
बाकायदा काफी हाउसों और ‘बारो’ में
और खोये-खोये-से
न जाने क्या ढूँढ़ते रहते हैं अखबारों में?
थूकते रहते हैं जनता पर
खीझते रहते हैं नेताओं पर
तरस खाते रहते हें
प्रजातन्त्र के भविष्य पर
अपरिभाषित, अनजान
और अचाही ‘तथाकथित क्रान्ति’ के
गम में
प्याले पर प्याले ढालते रहते हैं।
घर में बीबी बोलने नहीं देती
बाहर कोई सुनता नहीं,
इसलिये
‘बैरे’ पर अपना गुस्सा निकालते रहते हैं।
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संग्रह के ब्यौरे

कोई तो समझे - कविताएँ
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - मध्यप्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन, भोपाल
एकमात्र वितरक - साँची प्रकाशन, भोपाल-आगरा
प्रथम संस्करण , नवम्बर 1980
मूल्य - पच्चीस रुपये मात्र
मुद्रक - चन्द्रा प्रिण्टर्स, भोपाल


 




















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