चिन्तन की लाचारी (पुरवा को पछुवा मार गई।)



श्री बालकवि बैरागी के कविता संग्रह
‘कोई तो समझे’ 
की उन्नीसवी कविता 

यह कविता संग्रह
(स्व.) श्री संजय गाँधी को 
समर्पित किया गया है।


चिन्तन की लाचारी

गन्तव्य वही, मन्तव्य वही, आदेश वही अधिकार वही
रीति वही और नीति वही, प्रतिशोध वही प्रतिकार वही
जो क्रान्ति बताता है इसको, उस चिन्तन की बलिहारी है
परिवर्तन को क्रान्ति बताना, सम्भवतः लाचारी है।

जब चिन्तन पर काई जम जाये
विप्लव की भाँवर थम जाये
तो समझो पीढ़ी हार गई
पुरवा को पछुवा मार गई।

ये हिंसक और अहिंसक क्या, ये भाषा क्या परिभाषा क्या
ये भाषण क्या, प्रतिभाषण क्या, ये अभिनय और तमाशा क्या
(बस) क्रान्ति, क्रान्ति ही होती है, पहिले तुम इतना मानो तो
खुद को दर्पण में देखो तो, इस पीढ़ी को पहिचानो तो।
जब घाव वही, अलगाव वही
बात वही, बिखराब वही
तो आहुति क्या बेकार गई?
पुरवा को पछुआ मार गई?
चिन्तन पर काई जम जाये......

जब अग्नि-बीन का गायक ही, खो जाये मेघ मल्हारों में
(तो) जी करता है आग लगा दूँ, अग्नि-बीन के तारों में
तुम आग जगा कर कहते हो, हे! ज्वाला माँ अब सो जाओ
जब तक हम गाएँ दरबारी, तब तक तुम पानी हो जाओ।
जब दीन वही, ईमान वही
जब मुर्दे और मसान वही
तो झंझा किसे झंझार गई?
पुरवा को पछुआ मार गई?
चिन्तन पर काई जम जाये.....

वे चाट गये उस सावन को, शायद ये फागुन पी जायें
दोनों ने कसमें खाई हैं, ये बगिया कैसे जी जाये
लगता है राहू बैठ गया, इस माली के और डाली के
लग्न बराबर मिले नहीं, इस लाली और हरियाली के।
(जब) भँवरों का वक्तव्य वही
(जब) तितली का भवितव्य वही
(तो) मधुऋतु किसे सँवार गई?
पुरवा को पछुआ मार गई?
चिन्तन पर काई जम जाये.....

मैं कल भी भैरव गाता था, मैं अब भी भैरव गाता हूँ
मैं कल भी तुम्हें जगाता था, मैं अब भी तुम्हें जगाता हूँ
वो अँधियारे की साजिश थी, ये साजिश का उजियारा है
इस पीढ़ी को हर सूरज ने, मावस से मिलकर मारा है।
जब घात वही प्रतिघात वही
काजल कुंकुम की जात वही
तो ऊषा किसे निखार गई?
पुरवा को पछुआ मार गई?
चिन्तन पर काई जम जाये.....

कल आग-आग जो करते थे, वे सिर पर सावन ढोते हैं
कल जिनके सिर पर सावन था, वे आज आग को रोते हैं
ये सब मौसम के तस्कर हैं, सब मिली-जुली चतुराई है
सब सपनों के सौदागर हैं, ये सब मौसेरे भाई हैं।
अम्बर में नारे वो के वो
और अन्धे तारे वो के वो
घूँघट में डायन मार गई?
पुरवा को पछआ मार गई?
चिन्तन पर काई जम जाये......
-----
 


संग्रह के ब्यौरे

कोई तो समझे - कविताएँ
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - मध्यप्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन, भोपाल
एकमात्र वितरक - साँची प्रकाशन, भोपाल-आगरा
प्रथम संस्करण , नवम्बर 1980
मूल्य - पच्चीस रुपये मात्र
मुद्रक - चन्द्रा प्रिण्टर्स, भोपाल


 




















No comments:

Post a Comment

आपकी टिप्पणी मुझे सुधारेगी और समृद्ध करेगी. अग्रिम धन्यवाद एवं आभार.