मैं एक बार फिर पितृ-विहीन हो गया, इसी नौ अप्रेल को। मेरे पूज्य पिताजी श्रीयुत पण्डित द्वारकादासजी बैरागी के देहावसान के कोई साढ़े सोलह बरस बाद।
लेकिन आगे कुछ भी कहने से पहले स्पष्ट कर दूँ कि यह पोस्ट मैं पूरी तरह से केवल खुद के लिए लिख रहा हूँ। इसकी सार्वजनकि उपयोगिता और पठनीयता शून्यवत् है। वस्तुतः यह पोस्ट मेरी जिम्मेदारी है जिसे न निभाऊँगा तो अपनी ही नजरों में गिर जाऊँगा। मरने से पहले ही मर जाऊँगा।
मैं भाग्यशाली हूँ कि मेरे चार पिता हैं। पहले - पूज्य श्रीयुत द्वारकादासजी बैरागी, मेरे जनक, जिनका देहावसान अक्टूबर 1993 में हुआ। मेरे दूसरे पिता हैं मेरे बड़े भाई साहब जिन्होंने मुझे संस्कार दिए। वे मेरे मानस पिता हैं। मुझमें यदि कहीं कोई थोड़ी सी भी अच्छाई है तो यह उन्हीं के कारण है। वर्ना मेरी अर्जित पूँजी तो कुटिलता, दुष्टता, अधमता ही है। मेरे तीसरे पिता है श्रीयुत एन. एन. वैष्णव साहब जिनका देहावसान अभी-अभी नौ अप्रेल को मुम्बई में हुआ। उन्होंने मुझे सामाजिकता के संस्कार दिए। मेरे चौथे पिता हैं श्री नितिन वैद्य। आयु में मुझसे लगभग सवा उन्नीस वर्ष छोटे। उन्हीं ने मुझे भारतीय जीवन बीमा निगम का अभिकर्ता बनाया और इसी कारण मैं अपने आर्थिक उत्तरदायित्व पूरे करने की क्षमता और अवसर प्राप्त कर पाया।
स्वर्गीय श्रीयुत एन। एन. वैष्णव साहब से मेरा पहला सम्पर्क 1984 में हुआ था। दादा ने भोपाल में बैरागियों का अखिल भारतीय स्तर का पहला सम्मेलन कराया था। वहीं उन्हें पहली बार देखा। उसी सम्मेलन में वे पहली बार बैरागियों के अखिल भारतीय अध्यक्ष बने थे और जीवन के अन्तिम क्षण तक बने रहे। इस बीच उन्होंने बीसियों बार पद त्याग की पेशकश की। किन्तु वे पूरे देश के तमाम बैरागियों की आशा और विश्वास ही नहीं, विवशता बन चुके थे। वे बीमार रहने लगे थे और हम सब जानते थे कि अब उन्हें पूरी तरह आराम करना चाहिए। किन्तु हम सब अपनी-अपनी अक्षमता उन पर थोप कर उन पर (और उनके पूरे परिवार पर) निर्ममता से अत्याचार करते रहे। उन्हें पद से कभी हटने नहीं दिया। कोई अस्सी वर्ष की अवस्था में उन्होंने देह त्याग किया। किन्तु छब्बीस वर्षों से उनसे सतत् सम्पर्क के बाद भी उनका पूरा नाम मैं इस क्षण भी नहीं जानता।
ऐसा मे अकेला नहीं हूँ। उनसे जुड़े अधिसंख्य लोग उनका पूरा नाम नहीं जानते। हम सब उन्हें ‘एन। एन. साहब’ ही कहते रहे और इसी नाम से उन्हें जानते रहे। और केवल नाम ही क्यों? हममें से अधिकांश लोग उनके व्यक्तिगत जीवन के बारे में कुछ नहीं जानते। जानते हैं तो केवल उनके सार्वजनिक जीवन के बारे में।
पक्का पता तो नहीं किन्तु वे शायद राजस्थान के ‘रानी’ गाँव के मूल निवासी थे। सीमान्त प्रदेशों के महत्वाकांक्षी अधिकांश युवाओं की तरह उन्होंने भी मुम्बई का रास्ता पकड़ा। अपना लक्ष्य प्राप्त करने के लिए कल्पनातीत संघर्ष किए। खुद पढ़ने के लिए धनिकों के घर-घर जाकर उनके बच्चों को पढ़ाया। घर से निकलने के बाद यथासम्भव प्रयास किया कि घर से कोई मदद नहीं लेनी पड़े। उनका जीवट और विकट संघर्ष रंग लाया। उन्होंने प्रतिकूलताओं को परास्त करने के स्थान पर उन्हें अनुकूलताओं में बदला और अपना लक्ष्य प्राप्त किया। वे पहले तो वकील बने और अन्ततः एक कानूनविद् के रूप में स्थापित हो कर मुम्बई के कानूनी हलकों के शिखर पुरुषों में स्थापित हुए।
पैसा, यश और अपयश पचाना सामान्य व्यक्ति के बूते की बात नहीं होती। इस मायने में एनएन साहब आजीवन असाधारण व्यक्ति बने रहे। अपने परिश्रम और पुरुषार्थ से उन्होंने मुम्बई में वह सब अर्जित किया, जुटाया जिसका सपना हर कोई देखता है। बच्चों को अच्छी शिक्षा दिलवाई, उन्हें न केवल आत्म निर्भर किया अपितु स्थापित भी किया। ‘सुसमृद्ध मुम्बइया’ बनने के बाद भी वे अपने अभावों और संघर्षों को क्षण भर भी नहीं भूले। अपनी इन ‘निजी सम्पत्तियों’ का उन्होंने सर्व में विसर्जन कर खुद को प्रत्येक जरूरतमन्द आदमी से जोड़ लिया। वह प्रत्येक बैरागी एनएन साहब के परिवार का सदस्य बन गया जो असहाय, निरुपाय, जरूरतमन्द था।
जातिगत संगठनों में मेरी रुचि शून्यवत ही रही। रुचि की क्या बात करूँ, ऐसे संगठनों ने मुझे विकर्षित ही किया। मेरी धारणा रही है कि ऐसे संगठनों में समय, श्रम और धन का अपव्यय ही होता है और अर्थहीन बातों को लेकर व्यर्थ की बहसें होती हैं जो मनमुटाव ही कराती हैं। किन्तु एनएन साहब ने मानो मुझे ‘दुरुस्त‘ किया। दादा की कही जिस बात को मैं भूल गया था, वही बात उन्होंने मुझे ऐसे याद कराई कि मैं आजीवन नहीं भूल पाऊँगा। उनका कहना था कि अपने दुख से मुक्ति पाने का सबसे आसान उपाय है-दूसरों के दुख से जुड़ जाना। उस दशा में अपना दुख न केवल कम हो जाता है बल्कि बहुत छोटा भी लगने लगता है। तब हमें, अपने दुखों की अपेक्षा अधिक बड़े दुखों से दुखी लोग मिल जाते हैं। उस दशा में अन्तरात्मा सहसा ही ईश्वर को धन्यवाद अर्पित करने लगती है कि उसने मात्रा और घनत्व के लिहाज से हमें कम दुख दिया।
‘सहायता’ की नई और अनूठी परिभाषा भी उन्होंने ही बताई। सहायता का सामान्य अर्थ हम ‘आर्थिक सहायता’ ही लगाते हैं। एनएन साहब ऐसा नहीं मानते थे। किसी की परेशानी को धैर्यपूर्वक सुन लेना, उसकी वाजिब बात का समर्थन करना, उसे ढाढस बँधाना भी सहायता होती है, यह एनएन साहब से ही जाना। खुद यदि आर्थिक सहायता न कर सको तो दूसरों से दिलवाने की कोशिश की जानी चाहिए। उनका कहना था - ‘दूसरों की, जरूरतमन्दों की मदद करो ताकि दूसरे आपकी मदद कर सकें। यह प्रतीक्षा मत करो कि दूसरे तुमसे जुड़ें। भला इसी में है कि तुम दूसरों से जुड़ जाओ।’
एनएन साहब ने बैरागियों के दो राष्ट्रीय संगठन बनाए। पहला - अ। भा.वैष्णव ब्राह्मण सेवा संघ और दूसरा अ. भा. वैष्णव ब्राह्मण कल्याण ट्रस्ट। ‘सेवा संघ’ के जरिए सामाजिक और ‘कल्याण ट्रस्ट’ के जरिए शैक्षणिक गतिविधियाँ संचालित होती हैं। दोनों संगठनों का बजट तो विशाल धन राशि का होता है किन्तु बैंक खातों में ‘शेष रकम’ नाम मात्र की ही मिलती है। सेवा संघ के राष्ट्रीय अधिवेशन, संघ के संविधान के अनुसार निर्धारित समयावधि पर बराबर होते रहे। प्रत्येक अधिवेशन लाखों के खर्चवाला होता रहा और हर बार यह खर्च, चन्दे से जुटाया जाता रहा। संगठन के माथे कर्जा नहीं रहे, यह उनका पहला सूत्र था और दूसरा सूत्र था - संगठन को ‘आर्थिक सन्दर्भों में लाभदायक’ कभी मत बनने दो वर्ना संगठन से सेवा भावना समाप्त हो जाएगी और ‘अर्थ लोभी’ उसी तरह जुटने लगेंगे जैसे कि गुड़ के आसपास चींटे जुड़ते हैं। घाटे के संगठन में पदों की मारामरी कभी नहीं होती। ऐसे संगठनों वे ही लोग आएँगे जो अपनी गाँठ से ‘दो पैसे’ खर्च करने की भावना रखते होंगे।
यह सचमुच में अजूबा ही कहा जाएगा कि सेवा संघ के जरिए एनएन साहब ने गाँव-गाँव में, विधवा बैरागी महिलाओं को सिलाई मशीनें उपलब्ध करवा कर उन्हें रोजगार दिलाने की कोशिश की। एनएन साहब का सूत्र था - ‘रोटी नहीं, रोटी कमाने का जरिया दो।’ इसी तरह, उच्च शिक्षा के लिए बच्चों को आर्थिक सहायता दिलाने के लिए उन्हानें सामर्थ्यवान बैरागियों से, ऐसे बच्चों को गोद लेने को कहा और आज कई बैरागी बच्चे इसी उपाय से मँहगी पढ़ाई कर पा रहे हैं।
एनएन साहब ‘चरम लोकतान्त्रिक’ (क्रॉनिक डेमोक्रेटिक) थे। वे सबकी बात ध्यान से और पूरी तरह से सुनते थे। सही बात को तो हम सब सुनते हैं किन्तु वे गलत बात को भी सुनते थे और संगठन के संविधान के अनुसार उनका निराकरण करते थे। असुविधाजनक स्थितियों ने उन्हें कभी भी असहज, विचलित नहीं किया। उन्हें ईश्वर पर और लोकतन्त्र पर सदैव आकण्ठ विश्वास रहा। यह देख कर कि सामनेवाला जानबूझकर, अकारण, अनावश्यक विवाद पैदा कर रहा है, हम लोग उन्हें शार्ट-कट अपनाने का आग्रह करते। ऐसे प्रत्येक आग्रह पर उनका एक ही जवाब रहा -‘यह मुझसे नहीं होगा। ऐसा ही करना है तो आप दूसरा अध्यक्ष चुन लो।’
उनकी इस लोकतान्त्रिक मानसिकता का दुरुपयोग भाई लोगों ने खूब किया, एनएन साहब पर व्यक्तिगत लांछन लगाए किन्तु एनएन साहब हिमालय की तरह अडिग, अविचल खड़े रहे और हर बार सामनेवाले को ही परास्त होना पड़ा। ऐसे अवसरों पर हम लोगों ने जब-जब परास्त होनेवाले की खिल्ली उड़ाने की कोशिश की तब-तब प्रत्येक बार एनएन साहब ने हमें वर्जित किया और कहा - ‘मतान्तर को व्यक्तिगत बैर में मत बदलिए।’
उनकी एक आदत से हम सब सदैव क्षुब्ध और दुखी रहे। वे सामनेवाले को सदैव ही भला आदमी मानकर चलते थे और पहली ही बार में उस पर विश्वास कर लिया करते थे, महत्वपूर्ण पद देकर उसे स्थापित/प्रतिष्ठित कर दिया करते थे। बाद में वही व्यक्ति उनके लिए संकट बन कर सामने आता। मैं उनसे कहता - ‘आप पत्थर पर सिन्दूर पोत कर उसे देवता बना देते हैं और वही पत्थर, आपका-हम सबका माथा लहू-लुहान कर देता है।’ वे शिशुवत निश्छल हँसते हुए कहते - ‘अच्छी भावना से किए काम का बुरा नतीजा कभी नहीं मिलता।’ मुझे तब भी हैरत होती थी और अभी भी हैरत हो रही है कि ऐसे प्रत्येक अवसर पर वे ही सही साबित हुए।
एनएन साहब पर लिखने के लिए मुझे समन्दर की स्याही भी कम पड़ेगी। एक व्यक्ति पूरी जाति, पूरे समाज की मानसिकता बदल सकता है, यह अजूबा एनएन साहब ने कर दिखाया। मालवा और राजस्थान के कुछ अंचलों के बैरागियों का जीवन-यापन भिक्षा-वृत्ति पर निर्भर हुआ करता था। कुछ अंचलों में तो बैरागियों को ‘माँग खाणी जात’ (माँग कर खाने वाली जाति) के रूप में ही पहचाना जाता रहा है। लेकिन सारे के सारे बैरागी तो ऐसे नहीं होते! सो, समृद्ध, सक्षम और सामर्थ्यवान बैरागी लोग अपने आप को बैरागी कहने में लज्जा अनुभव करते रहे। ऐसे लोग अपना बैरागी होना छुपाने का हर सम्भव प्रयास करते रहे और इसी के चलते बैरागी के बजाय ब्राह्मण जाति सूचक सरनेम लगाने लगे।
कहना न होगा कि एनएन साहब ने यह मानसिकता ही बदल दी। उन्होंने बैरागियों का मानो चोला ही बदल दिया। उन्होंने अपनी सक्रियता, जीवित सम्पर्कों और सम-भाव व्यवहार से समूचे बैरागी समाज को वह आत्म विश्वास दिया कि अब किसी को, खुद को बैरागी कहने में शर्म नहीं आती। खुद को बैरागी कहनेवाला प्रत्येक व्यक्ति उन्हें अपनी आत्मा के समान ही प्रिय था और अपना बैरागी होना छिपानेवाला बड़ा से बड़ा व्यक्ति भी उनके लिए हेय था।
समाज को दिशा देनेवाले और समाज की दशा बदलनेवाले लोग कैसे होते हैं, यह एनएन साहब को देख कर समझा जा सकता है। उन्होंने बैरागियों को हीनता बोध से उबार कर उद्यमी होने का आत्म विश्वास पैदा करने का अघोषित अभियान चलाया और अपने जीते जी ही उसे सफल होते देखा भी।
नौ अप्रेल की सवेरे लगभग छः बजे एनएन साहब ने मुम्बई में अन्तिम साँस ली। मुझे लग रहा है कि उनकी मृत्यु आयोजित करने में हम, पूरे देश के बैरागी बराबर के अपराधी हैं। यदि हम लोग उन पर अत्याचार न करते तो वे शायद और कुछ वर्षों तक हमारे बीच रहते। किन्तु इसका समानान्तर सच यह भी है कि ‘सेवा संघ’ और ‘कल्याण ट्रस्ट’ की गतिविधियाँ उनके लिए ‘संजीवनी’ का काम करती थीं। कम से कम समय में, जल्दी से जल्दी, अधिक से अधिक काम कर लेने की उनकी उत्कट इच्छा शक्ति के दम पर ही वे अस्सी वर्ष की आयु में भी सक्रिय बने रह पाए। राजस्थान के साँवरियाजी तीर्थ क्षेत्र में, इक्कीस मई से ‘सेवा संघ’ का अगला अधिवेशन होना है। अस्पताल में, बिस्तर पर रहते हुए भी एनएन साहब इस अधिवेशन की व्यवस्थाओं की चिन्ता कर रहे थे। कह सकता हूँ कि वे न तो खुद के लिए जीए और न ही खुद के लिए मरे। उन्होंने तो भारत के समूचे बैरागी समाज को अपने देहाकार में समेट लिया था।
एनएन साहब की प्रत्येक यात्रा पर उनकी जीवन संगिनी आदरणीया शान्ता भाभी बेहद चिन्तित, सशंकित और व्याकुल रहा करती थीं। इससे बचने का एक ही उपाय हुआ करता था कि वे भी यात्रा में साथ हो लें। ऐसा वे करती भी थीं। किन्तु नाती-पोतों के समृद्ध परिवार और देश भर से आनेवाले बैरागियों की देखभाल की जिम्मेदारी निभाने की विवशता शान्ता भाभी को प्रायः ही मुम्बई में ही बाँध लेती थी। एनएन साहब की प्रत्येक यात्रा पर शान्ता भाभी की मौन प्रार्थना होती थी - ‘वे राजी-खुशी घर लौटें।’ ईश्वर की बड़ी कृपा रही कि एनएन साहब ने मुम्बई में, अपने परिजनों की उपस्थिति में अन्तिम साँस ली। अन्यथा मुझे सदैव आशंका बनी रहती थी कि एनएन साहब बैरागियों के किसी सम्मेलन में अपनी बात कहते हुए ही दिवंगत न हो जाएँ। यह शान्ता भाभी की पुण्याई का ही प्रताप रहा कि यह आशंका निर्मूल हो गई।
उनके न होने के सच को स्वीकार करने के लिए मेरा मन निमिष मात्र को भी तैयार नहीं हो पा रहा है। खबर मिली है कि शुक्रवार, तेईस अप्रेल को एनएन साहब की उत्तरक्रिया का अन्तिम सोपान आयोजित है। मुम्बई में। मुझे जाना ही है। किन्तु इसके लिए मुझे अपना आत्म बल अत्यधिक क्षीण अनुभव हो रहा है। डर रहा हूँ कि रेल में बैठने के बाद, रेल के सरकते-सरकते कहीं उतर न जाऊँ। अपने आप को एक बार फिर पितृ विहीन दशा में देखने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा हूँ।
किन्तु मैं यह क्या कर रहा हूँ? मोह और स्वार्थ के वशीभूत हो मैं, एनएन साहब के साथ अत्याचार करने का, ‘विराट’ को ‘वामन’ में बदलने का अधर्म और अक्षम्य अपराध कर रहा हूँ।
पितृ विहीन मैं अकेला नहीं हुआ। सच तो यह है कि पूरे भारत का समूचा बैरागी समाज पितृ विहीन हुआ है।