बालकवि बैरागी: आत्मीय रिश्ते दुष्यन्त परिवार से...

राजेन्द्र जोशी

बैरागीजी सूचना प्रकाशन विभाग के राज्य मन्त्री थे। भाषा विभाग इसी मन्त्रालय के अधीन था और कवि दुष्यन्त कुमार इसी भाषा विभाग में अधिकारी थे। दोनों की मित्रता जगजाहिर थी। बैरागीजी, मन्त्री तो बहुत बाद में बने जबकि दुष्यन्तजी से उनकी मित्रता मानो जन्म-जन्मान्तर से चली आ रही थी। ‘मन्त्री-मित्र’ और ‘अधीनस्थ अधिकारी मित्र’, इन दोनों के सम्बन्धों और व्यवहार पर लोगों की नजरें गड़ी रहती थीं। दुष्यन्तजी के मरणोपरान्त, एक बार, इस स्थिति पर (पूछने पर) बैरागीजी ने कहा - “दुष्यन्त मेरे अत्यन्त ही प्रिय मित्र थे। वे सुन्दर, आकर्षक और मिलनसार थे। एक तरह से ‘मेग्नेट’ थे और अद्भुत कवि थे। मैं मन्त्री था और दुष्यन्त मेरे अधीन भाषा विभाग में कार्यरत थे। लेकिन मैं हमेशा मानता रहा कि वे मेरे पास नहीं थे बल्कि मैं उनके पास था। क्योंकि वे तो स्थायी थे जबकि मन्त्री तो आते-जाते रहते हैं।”


(आकाशवाणी, भोपाल पर काव्य-पाठ करते हुए दुष्यन्तजी का यह दुर्लभ चित्र,  उनके बड़े बेटे आलोक त्यागी से मिला है।) 




(आकाशवाणी, भोपाल पर काव्य-पाठ करते हुए दुष्यन्तजी का एक और दुर्लभ चित्र। भोपाल में फोटोग्राफी के किंवदन्ती पुरुष स्व. श्री हरेकृष्णजी जेमिनी का लिया यह चित्र उनके सुपुत्र श्री कमलेश जेमिनी से श्री विजय वाते को मिला और श्री विजय वाते से मुझे।)

दुष्यन्तजी के बेटे आलोक और कथाकार कमलेश्वर की बेटी मानू (ममता) के विवाह में बैरागीजी दोनों पक्षों की ओर से उपस्थित थे। अपनी उभयपक्षीय भूमिका के दौरान बैरागीजी ने एक पक्ष की ओर से मानू का, भोपाल की बहू के रूप में स्वागत तो किया तो उन्होंने दूसरे पक्ष की ओर से बेटी मानू की विदाई के वक्त दुल्हन से कहा-’बेटा मानू, तुम कहीं भी रहो, परन्तु भोपाल को ही अपना मायका समझना, तुम हमारी बेटी भी हो और बहू भी। यह विवाह सन् 1984 में भोपाल में सम्पन्न हुआ था। कमलेश्वरजी ने खुशी-खुशी अपनी बेटी को दुष्यन्तजी के परिवार को सौंपा, किन्तु उनके मन में अपने समधी दुष्यन्तजी से गले मिलने की हसरत पूरी नहीं हो सकी थी, क्योंकि सन् 1975 में दुष्यन्तजी इस दुनिया से विदा ले चुके थे। 

इस विवाह समारोह की याद करते हुए दुष्यन्तजी का परिवार आज भी बैरागीजी के उस आत्मीय व्यवहार को भूल नहीं पा रहा है। दुष्यन्तजी की पत्नी श्रीमती राजेश्वरी दुष्यन्त, बेटा आलोक और बहू मानू अब भी विवाह के दौरान उनकी उभयपक्षीय आत्मीय भूमिका में उनके मधुर व्यवहार को याद करते हुए भाव विहल हो जाते हैं। मानू बताती है कि जैसे ही शादी सम्पन्न हुई बैरागीजी ने पापा से कहा- ‘कमलेश्वर भाई! लड़की चौपाई हो गई और लड़का चौपाया।’ बैरागीजी की इस टिप्पणी पर कमलेश्वरजी सहित उपस्थित सभी अतिथि ठहाका मारकर हँसने लगे, यहाँ तक कि दूल्हा-दुल्हन भी अपनी हँसी नहीं रोक सके। 

दुष्यन्तजी और उनके परिवारजनों तथा बैरागीजी और उनके परिवारजनों के बीच अन्तरंगता के रिश्ते अधिक गहरे हैं। दुष्यन्तजी तो प्रायः बैरागीजी के मन्त्री निवास पर पहुँच जाया करते थे। श्रीमती राजेश्वरी दुष्यन्त भी अनेक बार दुष्यन्तजी के साथ बैरागी-निवास पर आती-जाती रही हैं। श्रीमती दुष्यन्त का तो बैरागी निवास में दुष्यन्तजी की वजह से आत्मीय स्वागत होता ही था, किन्तु बैरागी परिवार में उनके आदर और सम्मान का एक कारण और भी यह था कि वे बैरागीजी के बड़े बेटे मुन्ना (सुशील नन्दन) की शिक्षक भी थीं। दुष्यन्तजी तो हास-परिहास में कभी-कभी सुशील भाभी से कहा करते थे कि ‘भाभी! मैं आपके पतिदेव का मित्र तो हूँ ही, आपके बेटे की गुरु का स्वामी भी हूँ। अतः मेरे आदरभाव में कोई कमी नहीं होनी चाहिए।’ दोनों परिवार जब-जब भी मिलते खूब ठहाके तो लगते ही, नोंक-झोंक भी चलती रहती। राजेश्वरीजी बताती हैं कि बैरागीजी के छोटे बेटे गोर्की (सुशील वन्दन) की शादी नीरजा से तो बाद में हुई किन्तु उसे मैं विवाह के पूर्व से ही बैरागीजी के घर आते-जाते देखती रही हूँ। बैरागीजी की बातों की शैली से प्रभावित राजेश्वरीजी बताती हैं कि बात-बात में बैरागीजी कविता की पंक्तियाँ और शेर-ओ-शायरी का खूब इस्तेमाल करते हैं। यही उनके सरस व्यक्तित्व की अनूठी पहचान है।


(चित्र परिचय : कुर्सी पर माताजी रामकिशोरीजी, पिताजी चौधरी भगवत् सहायजी, माताजी की गोद में, दुष्यन्तजी के छोटे भाई प्रेम नारायणजी का बड़ा पुत्र अमित, दादी-दादा के पीछे खड़े हुए, दुष्यन्तजी के छोटे और बड़े पुत्र अपूर्व और आलोक, पिछली पंक्ति में खड़े हुए बाँये से दुष्यन्तजी, उनकी पुत्री अर्चना, धर्मपत्नी राजेश्वरीजी, छोटे भाई की पत्नी दर्शनाजी और छोटे भाई प्रेम नारायणजी। चित्र है तो गूगल से किन्तु भेजा है, मन्दसौर से मेरे प्रिय अशोक त्रिपाठी ने।)

दुष्यन्तजी के बेटे आलोक, मुन्ना बैरागी और गोर्की बैरागी से अपनी बाल्यावस्था से ही मिलते रहे हैं। मुन्ना के साथ गुजारे कई प्रसंग याद करते हुए उन्हें वह प्रसंग भी याद है जब बैरागीजी ने अपने बेटे मुन्ना को फिल्म डायरेक्टर रवि नगाइच के साथ फिल्म फोटोग्राफी के लिए मुम्बई भेज दिया था। 

अपने पिता के निधन के बाद का वह दिन आलोक नहीं भूल पा रहे हैं, जब संवेदना प्रकट करने के लिए बैरागीजी अपने गाँव मनासा से विशेष तौर पर भोपाल आए थे। बैरागीजी ने घर में प्रवेश करते ही आलोक को अपने हृदय से चिपटा लिया और फफक्-फफक् कर रोने लगे। उन्होंने भाभी को देखते ही कहा-‘भाभी मैं तो मेरे मित्र के बिछुड़ने पर रो ही रहा हूँ, बाहर आटोरिक्शा वाले के आँसुओं की धार भी थम नहीं रही।’ बैरागीजी ने बताया कि मैं रेल से उतरकर आटो से सीधे आपके घर आ रहा हूँ। जैसे ही इस घर के सामने मैं उतरा तो आटोवाले ने पूछा -‘क्या आप दुष्यन्तकुमारजी के मेहमान हैं?’ मैंने अपने दुख को छुपाने की कोशिश करते हुए रुआँसे स्वर में कहा - ‘हाँ।’  जब मैंने उसे बताया कि दुष्यन्त नहीं रहे, मैं सांत्वना के लिए आया हूँ, तो वह सहसा चीख पड़ा और बोला आप ये क्या कह रहे हैं? फिर मैंने देखा उसकी आँखों में आँसू बह रहे थे और वह बोलता जा रहा था, ‘साहब! वो तो बड़े अच्छे इंसान थे। मेरी रोजी-रोटी उन्हीं की बदौलत चल रही है। यह आटो उठवाने में दुष्यन्तजी ने मुझे बहुत मदद की थी।’ इस वाकये के साथ बैरागीजी, दुष्यन्तजी के परिवारजनों के बीच काफी देर तक अपनी अश्रुधारा को रोकने में कामयाब नहीं हो पाए थे।

दुष्यन्तजी के परिवारजनों के प्रति सम्मान भाव और कमलेश्वरजी के साथ बैरागीजी की मित्रता के प्रसंग बैरागीजी के संवेदनशील व्यक्तित्व की अमिट पहचान बनकर रह गए हैं।

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(यह इस पुस्तक से प्रकाशित किया जा रहा अन्तिम लेख है।)





नंदा बाबा: फकीर से वजीर
ISBN 978.93.80458.14.4
सम्पादक - राजेन्द्र जोशी
प्रकाशक - सामयिक बुक्स,
          3320-21, जटवाड़ा, 
    दरियागंज, एन. एस. मार्ग,
    नई दिल्ली - 110002
मोबाइल - 98689 34715, 98116 07086
प्रथम संस्करण - 2010
मूल्य - 300.00
सर्वाधिकार - सम्पादक
आवरण - निर्दोष त्यागी


यह किताब मेरे पास नहीं थी। भोपाल से मेरे छोटे भतीजे गोर्की और बहू अ. सौ. नीरजा ने उपलब्ध कराई।





 


राष्ट्रकवि भी रहे बैरागीजी के मेहमान

राजेन्द्र जोशी

संसदीय सचिव की हैसियत से बैरागीजी को शिवाजी नगर में एक शासकीय बंगला आबण्टित था, किन्तु जब वे श्यामाचरण शुक्ल मन्त्रिमण्डल में शामिल हुए तो उन्हें शाहजहाँनाबाद क्षेत्र का पुतलीघर बंगला आबण्टित हुआ। पुतलीघर बंगले का परिसर बहुत ही बड़ा था। उसमें खेती-बाड़ी के लिए बहुत जगह थी। पूर्व में, पण्डित द्वारिका प्रसाद मिश्र के मुख्यमन्त्रित्व काल में, इस बंगले में श्री गोविन्द नारायण सिंह रहा करते थे। परिसर के एक बड़े हिस्से में एक ओर कृषि भूमि थी तो वहीं फूलों का शानदार बगीचा और कई तरह की क्यारियाँ और छोटे-बड़े मँडुए थे, जिनमें कई तरह के पेड़-पौधों और बेलों की भरमार थी। इनमें फल और सब्जियों की खूब पैदावार होती थी। बंगलों में पदस्थ अधिकारियों और कर्मचारियों के लिए आउट हाउसेस थे।

जब तक इस बंगले में बैरागीजी रहे, वहाँ अकसर कला, साहित्य, संस्कृति और फिल्म जगत से जुड़ी महान विभूतियों का निरन्तर आना-जाना बना रहता। चूँकि मैं इसी परिसर में अपने परिवार सहित रहता था, इसलिए आगन्तुक विभूतियों की आवभगत का मुझे खूब अवसर मिलता। मन्त्री पद के उत्तरदायित्वों के कारण बैरागीजी की व्यस्तता बहुत अधिक रहती। बैठकों, सभाओं, जलसों और यात्राओं से फुरसत पाने के बाद ही बैरागीजी निवास पर समय दे पाते। 

सन 1971 में राष्ट्रकवि डॉ. रामधारी सिंह दिनकर का भोपाल आगमन हुआ और वे 10-12 दिन तक बैरागीजी के मेहमान बनकर पुतलीघर बंगले में रहे। दिनकरजी के आगमन के पहले ही दिन बैरागीजी ने मेरा उनसे परिचय कराया। उन्होंने कहा-’यह राजेन्द्र है। सूचना-प्रकाशन विभाग में सेवारत है। मेरे परिवार के एक सदस्य के रूप में यह मुझसे जुड़ा हुआ है। यह बहुत ही सरल, ईमानदार, मेहनती और निष्ठावान है और उससे भी बड़ी बात है कि यह एक अच्छा कवि भी है।’ बैरागीजी ने दिनकरजी से कहा-‘दादा! अपनी व्यस्तता के चलते मैं तो आपके साथ ज्यादा समय नहीं दे पाऊँगा, यह राजेन्द्र ही आपके सम्पर्क में बना रहेगा।’ दिनकरजी को पहले ही दिन जब यह मालूम हुआ कि मैं कवि हूँ, उन्होंने कहा-‘राजेन्द्र! अब तो तुम्हारी और हमारी खूब पटेगी।’ यह कहते हुए उन्होंने मेरे सिर पर हाथ फेरा और आशीर्वाद दिया-‘खूब फलो-फूलो, खूब लिखो, पढ़ो।’ मैं बड़ा ही ख़ुशनसीब था कि जिस महान् कवि की कविताओं को पाठ्यक्रमों में पढ़कर मैंने परीक्षाएँ उत्तीर्ण की थीं और जिनकी रचनाएँ पढ़-पढ़कर कलम चलाने की प्रेरणा ग्रहण की थी, वह महान् कवि मेरे सिर पर हाथ रखकर मुझे आशीर्वाद दे रहा था। बैरागीजी, दिनकरजी के समक्ष मुझे यह कहकर किसी कार्यक्रम के लिए रवाना हो गए-‘राजेन्द्र! एक-दो दिन में दिनकरजी के सम्मान में यहाँ बंगले में एक गोष्ठी रख लो, जिसमें शहर के सभी रचनाकारों को बुलाना है। और हाँ, दुष्यन्त भाई को खबर कर दो कि वे आज शाम आफिस से घर जाने के पहले बंगले पर आकर दादा से मिल लें।’

शाम को दुष्यन्तजी पुतलीघर बंगले में आए। दिनकरजी के साथ वे करीब आधा घण्टा बैठे। मैं भी साथ था। सुशील भाभी ने गरम-गरम पकौड़ों के साथ चाय पिलवाई। दुष्यन्तजी ने भाभी की तारीफ करते हुए कहा-‘बैरागीजी बंगले में हों या न हों, हमारी भाभी अतिथियों के सत्कार का पूरा-पूरा ख्याल रखती हैं। चाय के साथ मुझे तो हमेशा वे गरम-गरम पकौड़े खिलाती हैं।’ दुष्यन्त पकौड़ों के बड़े शौकीन थे। उनके बंगले में प्रवेश करते ही किचन में काम करनेवाले सेवक बिना कहे, चूल्हे पर तेल की कढ़ाई चढ़ा दिया करते। एक तरह से उस बंगले में दुष्यन्तजी ‘पकौड़े वाले कविजी’ के रूप में जाने जाते रहे। दिनकरजी ने कहा-‘सुशीलजी! मुझे भी बड़ा शौक है, पकौड़े खाने का। अब तो हमें भी रोज शाम की चाय के साथ पकौड़े मिला करेंगे।’ बैरागी-परिवार के साथ दिनकरजी पहले ही दिन से कुछ ऐसे घुल-मिल गए जैसे वे इस परिवार से वर्षाे से जुड़े हुए हों।

मुझे दिनकरजी जैसे महान् कवि के सम्मान में बैरागी-निवास पर एक ऐसी गोष्ठी आयोजित करने का अवसर मिला, जिसमें भोपाल की नई-पुरानी पीढ़ी के कवि और शायर एकत्रित हुए थे। डा. चन्द्रप्रकाश वर्मा, दुष्यन्त कुमार, अनिल कुमार, शेरी भोपाली, जीवनलाल वर्मा ‘विद्रोही’, राजेन्द्र अनुरागी, भीष्मसिंह चौहान, अम्बाप्रसाद श्रीवास्तव तथा भाषा विभाग और सूचना-प्रकाशन विभाग में कार्यरत कुछ अन्य कवियों के साथ ही भोपाल शहर के कई कवि और शायर आमन्त्रित थे। दिनकरजी की गरिमामयी उपस्थिति से भोपाल के ये सभी कवि और शायर अत्यन्त प्रसन्न थे। वे सभी बार-बार बैरागीजी को धन्यवाद दे रहे थे, क्योंकि बैरागीजी के माध्यम से सब लोगों को राष्ट्रकवि से मिलने का सुखद संयोग जो मिला था।

....और दुष्‍यन्‍तजी ने  दिखा दी दिनकरजी को एडल्‍ट फिल्‍म

जितने भी दिन दिनकरजी भोपाल में रहे, बैरागीजी प्रातः उठकर सबसे पहले उनका अभिवादन करते और पूछते-‘दादा! आपको कोई तकलीफ तो नहीं?’ दादा तुरन्त मेरी ओर देखकर हँसते हुए कहते-‘बैरागी! हमें क्यों और कैसे तकलीफ हो सकती है। जब राजेन्द्र जैसे दिलदार कवि को तुमने मेरे साथ लगा दिया है।’ बैरागीजी ने मुझसे पूछा-‘राजेन्द्र तुमने दादा को पूरा भोपाल घुमाया कि नहीं?’ जब मैंने कहा कि आज हमारा यही कार्यक्रम है तो बैरागीजी बोले-‘वो हीरो भी आता ही होगा। उसे भी साथ ले जाना।’ दिनकरजी ने पूछा ‘यहाँ कौन हीरो आनेवाला है भई!’ बैरागीजी ने कहा-‘जब आएगा दादा, तो आपको पता चल जाएगा।’ थोड़ी ही देर बाद बैरागीजी का ‘हीरो’ सामने था। दिनकरजी बोल पड़े-‘अरे! यह तो दुष्यन्त है!’ बैरागीजी बोले-‘हमारा यह सुन्दर-सा कवि किसी हीरो से कम है क्या?’ दिनकरजी भी कम मजाकिया नहीं थे। उन्होंने दुष्यन्त की तरफ देखकर कहा-‘हीरो कमिंग विदाउट हीरोइन।’ एक ठहाका लगा और आनन्द का एक अच्छा-खासा माहौल बन गया। बैरागीजी ने हमसे कहा-‘तुम दोनों दिनकरजी को आज शहर घुमा लाओ।’ 

हम तीनों जैसे ही गाड़ी में बैठे, दुष्यन्तजी ने कहा-‘दादा! यहाँ एक टाकीज है-रंगमहल। उसमें एक नई फिल्म आई है। चलो आज उसका मेटिनी शो अपन लोग देख लें।’ दिनकरजी ने कहा-‘अरे भाई! मुझे फिल्म देखने का ज्यादा शौक नहीं है।’ दुष्यन्तजी ने कहा-‘आप यहाँ बैरागी के मेहमान हैं और बैरागी अपने हर मेहमान को यहाँ कोई न कोई फिल्म दिखाने ले जाते हैं। आज उन्होंने हम पर शहर घुमाने की जिम्मेदारी सौंपी है और हम उनकी परम्परा के अनुसार आपको फिल्म दिखाएँगे।’ दादा की फिल्म देखने की अरुचि को दुष्यन्तजी ने भाँप लियाा। उन्होंने तुरन्त तुरुप का पत्ता फेंकते हुए कहा - ‘दादा! बिहारी लोगों ने कला और साहित्य के हर क्षेत्र में ऊँचाइयाँ हासिल की हैं। जैसे साहित्य में आप हैं, वैसे ही फिल्मों में इस समय एक बिहारी लड़का ऊँचाइयाँ हासिल कर रहा है।’ दिनकरजी ने जिज्ञासावश पूछा-‘ऐसा कौन है भाई!’ दुष्यन्तजी बोले-‘शत्रुघ्न सिन््हा। उसकी एक फिल्म रंगमहल में आज ही लगी है और वह फिल्म है-ओनली फार एडल्ट्स। क्यों न हम, आप जैसे बिहारी के साथ एक बिहारी हीरो की कला भी देख लें?’ बिहारी कलाकार के नाम से दिनकरजी कुछ पिघले। बोले-‘सुना तो है, इस नाम का एक लड़का फिल्मों में चला गया है। चलो आज उसको देख ही लेते हैं।’ 

फिल्म देखकर जब टाकीज से बाहर निकले, तब दिनकरजी के चेहरे पर सन्तोष के भाव झलक रहे थे। बोले-‘बैरागी का मेहमान बनने का बड़ा ही सुख मिल रहा है। उसकी बदौलत आज पहली बार मैं एक बिहारी कलाकार को फिल्म में देख सका। मैं उसका मेहमान बनता नहीं और आज यह फिल्म देख पाता नहीं।

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सम्पादक - राजेन्द्र जोशी
प्रकाशक - सामयिक बुक्स,
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    दरियागंज, एन. एस. मार्ग,
    नई दिल्ली - 110002
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न पुलिस, न मास्टर, न ही पटवारी! यह कैसा विभाग?

राजेन्द्र जोशी

मन्त्रीपद की जिम्मेदारी बैरागीजी ने बड़ी निष्ठा, लगन, ईमानदारी और प्रतिबद्धता के साथ निभाई। अपने कर्तव्यों और उत्तरदायित्वों के प्रति सजग रहते हुए बैरागीजी ने अपने कविमन की कभी भी अनदेखी नहीं की। सूचना प्रकाशन विभाग के दायित्व को उन्होंने अपनी पूर्ण क्षमता के साथ निभाया। जहाँ वे साहित्यकारों के प्रति विनम्र थे, वहीं पत्रकारिता जगत से जुड़े लोगों के साथ उनके सम्बन्ध बड़े ही सौहार्द्रपूर्ण थे। अनेक पत्रकार उनके मित्र थे।

उस समय के प्रायः सभी पत्रकार बन्धुओं से उनका निरन्तर सम्पर्क रहता। कई पत्रकार मित्रतावश उनसे मिलने पुतलीघर बंगले पर आ जाते। बैरागीजी भी कुछ पत्रकार मित्रों के इतने ज्यादा घनिष्ठ हो गए थे कि वे उनके घर भी पहुँच जाया करते थे। उन दिनों सूचना-प्रकाशन विभाग और भाषा विभाग में साहित्यकारों की बहुतायत हुआ करती थी। कुछ नामी-गिरामी साहित्यकार, शिक्षा विभाग में और कुछ अन्य विभागों में कार्यरत थे। इन सरकारी महकमों के रचनाकारों को उन्होंने कर्मचारी के बजाय अपना मित्र समझा। मन्त्री और कर्मचारी के बीच के फासलों को उन्होंने तोड़ा था। तत्कालीन सूचना-प्रकाशन विभाग, (वर्तमान में जनसम्पर्क विभाग) में उन दिनों अनेक चर्चित कवि और लेखक कार्यरत थे। विभाग का दफ्तर शाहजहाँनाबाद स्थित ऐतिहासिक महत्व की इमारत गोलघर में लगता था। इस विभाग में उन दिनों एक से एक नामी कवि, गीतकार, कहानी और उपन्यास लेखक सेवारत थे। बैरागीजी बड़ा ही फख्र महसूस करते थे इस विभाग के रचनाकारों के बीच रहकर।

बैरागीजी से मेरी निकटता के कारण और उनके आग्रह पर विभाग ने उनके प्रचार कार्य के लिए मुझे उनसे सम्बद्ध कर दिया था। एक बार मैं जनसम्पर्क दौरे के समय उनके साथ उनके जिले के गाँवों में था। वहाँ कुछ ग्रामीण भाइयों ने बड़ी ही उत्सुकता और जिज्ञासा के साथ बैरागीजी से प्रश्न किया-‘दादा! आपके पास न तो पुलिस महकमा है, न ही मास्टरों का विभाग है और न ही पटवारियों और डॉक्टरों का महकमा है। फिर ये आपको मिला यह सूचना-प्रकाशन विभाग क्या करता है? इसमें क्या काम होता है और इस विभाग से हम गाँववालों की क्या मदद कर सकते हो?’

ग्रामीण भाइयों का प्रश्न सचमुच उनके दृष्टिकोण से जायज था। मन्त्री बैरागीजी एक क्षण तो कुछ ठिठके, फिर ठहाका लगाकर ग्रामीणों से ही प्रश्न किया-‘क्या मैं कवि नहीं हूँ?’ लोगों ने कहा-‘क्यों नहीं? आप तो बहुत बड़े कवि हो। आपसे हमारा मालवा अत्यन्त गौरवान्वित है।’ बैरागीजी ने उन लोगों के प्रश्न का जो उत्तर दिया, वह था-‘सुनो भैया! मैं उस विभाग का मन्त्री हूँ, जो विभाग सरकार के काम आता है और पूरी की पूरी सरकार आपके काम आती है। 

जिस सरकार और उसके विभागों से आपका वास्ता पड़ता है, वे विभाग सरकार की बगिया के रंग-बिरंगे फूल हैं, जिन्हें आप अपनी आँखों से देख पा रहे हो और उन फूलों से उठनेवाली खुशबू का एहसास भी कर लेते हो। इस सुगन्ध को क्या आप देख पाते हो? और इस सुगन्ध को आप तक पहुँचानेवाली हवा का क्या आप स्पर्श कर पा रहे हो?’ सभी एक स्वर में बोल पड़े-‘नहीं।’ बैरागीजी ने कहा-‘बस यही भूमिका हमारे विभाग की है। इसका काम सरकार की बगिया के फूलों की खुशबू को जन-जन तक पहुँचाना है।’ और फिर गर्व से बोले-‘मैं उस विभाग में हूँ, जिसका मन्त्री यानी कि मैं, कवि हूँ। जिसके विभागाध्यक्ष संस्कृत और साहित्य के पण्डित अनन्त मराल शास्त्री हैं जिसमें श्री अम्बाप्रसाद श्रीवास्तव, जीवनलाल वर्मा ‘विद्रोही’, राजेन्द्र अनुरागी, दामोदर सदन, रामपूजन मलिक, राजेन्द्र कुमार मिश्र, बटुक चतुर्वेदी, राजेन्द्र जोशी, गुलशेर खाँ शानी, डा. बृजभूषण सिंह ‘आदर्श’ जैसे कवि और लेखक काम करते हैं। जिस विभाग में पण्डित हनुमान प्रसाद तिवारी, श्यामसुन्दर शर्मा जैसे चिन्तक और विचारक, भाऊ खिरवड़कर, श्री लक्ष्मण भाँड, वैखण्डे और नवल जायसवाल जैसे आर्टिस्ट हैं। मैं उस विभाग का मन्त्री हूँ जो शासन के बौद्धिक टैंक के रूप में जाना जाता है।’

सचमुच वह एक गर्व करने योग्य समय था, जब भोपाल के नामी-गिरामी कवि-लेखकों के महकमों के रूप में सूचना-प्रकाशन विभाग की ख्याति थी और बैरागीजी उस विभाग के मन्त्री थे।

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बारात मेरी, नाचे मामा और निहाल हुआ बैण्डवाला



सुलतान मामा की यह तस्वीर कलवाली पोस्ट में देते हुए मैंने कहा था कि इसकी कहानी आज सुनाऊँगा। सो, सुन लीजिए।

मेरा विवाह फरवरी 1976 में हुआ। मेरी सुसराल सावेर में है। बोलचाल में इसे ‘साँवेर’ उच्चारित किया जाता है। लेकिन वास्तव में है यह सावेर। इन्दौर जिले का यह कस्बा, इन्दौर और उज्जैन के रास्ते में पड़ता है। इन्दौर से तीस-बत्तीस किलो मीटर और उज्जैन से बीस-बाईस किलो मीटर दूर। बारहों महीने मिलनेवाले, गरम-गरम और मीठे-स्वादिष्ट भुट्टे इस कस्बे की पहचान हैं। कस्बे के बाहर निकलनेवाली फोर लेन सड़क के दोनों ओर अच्छा-खासा ‘भुट्टा बाजार’ लगा हुआ है। उस इलाके के कई स्कूल, ‘आउटिंग’ और ‘पिकनिक’ के नाम पर अपने बच्चों को भुट्टे खिलाने के लिए यहाँ लाते हैं। 

सावेर, आज तो अच्छा-खासा कस्बा है और ‘फोर लेन’ के कारण लोगों की नजर में नहीं आता। किन्तु 1976 में यह ‘बड़ा गाँव’ ही था। इन्दौर-उज्जैन के बीच यात्रा करनेवाले सारे वाहन गाँव के बीच में बनी सँकरी, सिंगल सड़क से ही निकलते थे। तब, थाने और अस्पताल के बीच सड़क पर बना यहाँ का बस स्टैण्ड ‘भुट्टा बाजार’ हुआ करता था। 

इसी, सँकरी, सिंगल सड़क पर बनी, दो मंजिला जैन धर्मशाला में मेरी बारात को ‘जनवासा’ दिया गया था। ‘लड़की’ के घर पहुँचने के लिए मेरी बारात बैण्ड-बाजों के साथ जैन धर्मशाला से निकली। बारात को, बीच बाजार में बने गणेश मन्दिर के पासवाली गली से ‘लड़की’ के घर पहुँचना था। छोटा सा गाँव। छोटा सा रास्ता। मुश्किल से पन्द्रह मिनिट में पार किया जानेवाला। लेकिन तारवाली गली तक पहुँचते ही बारातियों ने नाचना शुरु कर दिया। मनासा से तो हम लगभग 40 बाराती ही आये थे लेकिन इन्दौर-उज्जैन और भोपाल से सैंकड़ों मित्र स्वस्फूर्त भाव से पहुँच गए थे - “क्या निमन्त्रण की बात करना? ‘अपने विष्णु की शादी है।’ या कि ‘बैरागीजी के छोटे भाई की शादी है।” सो, स्थिति सचमुच में ‘हम चौड़े, बाजार सँकरा’ वाली बन गई थी। लोग नाचे जा रहे थे और नोटों की करीब-करीब बरसात ही हो रही थी। बैण्ड वाले को भी यह सब मनमाफिक लग रहा था। वह बारातियों से भी ज्यादा जोश और खुशी में बजाए जा रहा था। इन्दौर-उज्जैन से आनेवाले छोटे-बड़े तमाम वाहन रुके खड़े थे। जाम लग गया था। 

दादा के परम मित्र, ‘बैरागी परिवार’ के ‘परिवारी’, कवियों सहित, मालवी के मीठे कवि सुलतान मामा भी बारातियों में शरीक थे। बारातियों की भीड़ में अच्छे-भले खड़े-खड़े आनन्द ले रहे थे। अचानक, पता नहीं क्या हुआ कि मामा नाचने वालों के बीच आ गए और नाचने लगे। मामा के नाचने ने सबके नाच को परे धकेल दिया। बैण्ड पर, जग विख्यात राजस्थानी ‘घूमर’ बज रही थी। और मामा? क्या कहने! क्या तो लचक और क्या ठुमके! दुनिया से बेखबर, आँखें मूँदे, मामा नाचे चले जा रहे थे। मामा के नाच ने बारात के मजमे को, बीच सड़क में मानो ऐसी इन्द्र सभा बना दिया था जिसमें, ऋषियों, तपस्वियों की तपस्या भंग कर देनेवाली उर्वशी, पुरुष वेश में नाच रही थी। बाकी बारातियों की बात छोड़िए, दादा सहित, मामा के तमाम कवि-मित्र, मुँह बाये, हैरत से मामा का यह स्वरूप देख रहे थे। ‘घूमर’ बज रही थी, मामा नाच रहे थे, लोग नोट वारे जा रहे थे। बैण्ड पार्टी के दो सदस्य लपक-लपक कर नोट इकट्ठे कर रहे थे।

लेकिन हर बात की एक हद होती है। सो, अन्ततः बारात सरकी और कुछ ही मिनिटों में मुकाम पर पहुँच गई। उसके बाद जो होना था, वह सब क्या लिखना! कुछ भी तो अनूठा नहीं!

शादी के छह-आठ महीनों बाद मैं ससुराल गया। मैं पैदल ही था। अचानक एक अधेड़ सज्जन सामने आ खड़े हुए। उन्होंने पहले मुझे ध्यान से देखा और दोनों हाथ जोड़कर बोले - ‘आप तो हाथीवाले महन्तजी के कँवर सा’ब हो!’ मुझे पता नहीं था कि मेरे ससुरालवाले ‘हाथीवाले’ भी हैं। मैं चुप ही रहा। वे अधेड़ सज्जन मालवी में कुछ ऐसा बोले - ‘भगवान आपकी जोड़ी अम्मर करे कँवर सा’ब। आप खूब फले-फूलें। आपकी शादी ने मेरे दलीद्दर धो दिए।’ मैं कुछ नहीं समझा। मैं तो उन्हें (उन्हें तो क्या, पूरे सावेर में, मेरे ससुराल के दो-तीन लोगों के सिवाय और किसी को भी) जानता भी नहीं था। मैं उनकी शकल देखता रहा। उन्होंने बताया - ‘मैंने सैंकड़ों शादियों में बैण्ड बजाया है और खूब ईनाम भी लिया है। लेकिन जितनी निछावर आपके प्रोसेशन में मिली, उतनी न तो उससे पहले कभी मिली न ही आगे भी कभी मिलेगी। महन्तजी से जितना मेहनताना ठहराया था, उसकी दो-ढाई गुना निछावर उस दिन मुझे मिली। नोट बटोरनेवाले मेरे दोनों आदमी उस दिन पगला गए थे कँवर सा’ब!’ और वे सज्जन, अपने दोनों हाथ, आकाश की ओर उठाकर मुझे, हमारी जोड़ी को असीसने लगे। उनकी बातें सुनकर, उनकी दशा देखकर मेरा मन भर आया। मैं कुछ भी नहीं बोल पाया। उनकी बातें सुनता रहा। उनकी आशीषें समेटता रहा।

मेरा ध्यान कभी इस ओर गया ही नहीं था। वैसे भी मैं नोट न्यौछावर करने को फूहड़ और अश्लील हरकत मानता रहा हूँ। भले ही बारात मेरी थी और जश्न का नायक भी मैं ही था पर मुझे तब भी अच्छा नहीं लग रहा था। लेकिन मेरा नियन्त्रण मुझ तक ही सीमित है। और फिर, एक तो उस वक्त मैं ‘घुड़सवार’ था और किसी को रोकता-टोकता तो ‘घूमर’ के शोर में मेरी सुनता कौन? लेकिन सच कह रहा हूँ, उस दिन, उन अधेड़ सज्जन की बात सुनकर मुझे अच्छा लगा था। बैण्डवालों को बारहों महीनों काम नहीं मिलता। काम-काज के, गिनती के दिन ही मिलते हैं उन्हें पूरे साल भर में। उनकी आर्थिक दशा भी बहुत अच्छी नहीं होती। सो, उनकी बातें  मुझे ‘बुराई में अच्छाई’ लग रही थीं। 

लेकिन मुझे तब भी लगा था और इस समय भी, जब मैं यह सब लिख रहा हूँ, लग रहा है कि उन अधेड़ सज्जन की सारी आशीषें, सारी दुआएँ, सारी प्रशंसा निस्सन्देह मुझे सम्बोधित थीं लेकिन वे सब जमा हो रही थी सुल्तान मामा के खाते में। वे ही इस सबके वास्तविक अधिकारी तब भी थे और अब भी हैं। मैं इसे अपना सौभाग्य मान सकता हूँ कि मैं इसका निमित्त बना।

मामा अब हमारे बीच नहीं हैं। ईश्वर उनकी आत्मा को शान्ति दे और उन अनजान, अधेड़ सज्जन की सारी दुआएँ मामा की आत्मा पर बरसाए।

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बैरागीजी की प्रेरणा से कवि बन गया

 

सुल्तान मामा

(सुल्तान मामा भी अब हमारे बीच नहीं हैं। लगभग तीन बरस पहले, 2019 में उनका निधन हो गया। मामा के इस चित्र से जुड़ी एक रोचक याद की कहानी कल सुनिएगा।)

बात उन दिनों की है जब में 18-20 वर्ष का रहा होऊँगा। एक आंचलिक कवि सम्मेलन में मुख्य अतिथि थे पण्डित सूर्यनारायण व्यास। कवि सम्मेलन में मालवी कवि आनन्द राव दुबे इन्दौर, मदन मोहन व्यास टोंकखुर्द, गिरिवरसिंह भँवर बेटमा, बालकवि बैरागी मनासा, हरीश निगम उन्हेल, हुकुमचन्द शिल्पकार देवास, नरेन्द्र सिंह तोमर पिवड़ाय, शिवनारायण ‘शिव’ तराना, सुश्री पुखराज पाण्डे आदि पधारे थे। इस कवि सम्मेलन में बैरागीजी ने अपना प्रथम रचना पाठ किया -

‘म्हारा आँगणा में नाननवण को रूँख
ओ वीराजी म्हारा,
ऊई म्हारो केलू वारो टापरो...

रचना सबको भा गई। मैंने अपने मित्रों के बीच कहा कि ऐसा तो मैं भी लिख सकता हूँ। कुछ दिनों बाद मैंने एक रचना तैयार की और हरीश निगम को, जो उन दिनों तराना में अध्यापक थे, बताई। कुछेक संशोधन के बाद रचना मुझे दी गई और इस प्रकार मैंने रचनाधर्मिता को स्वीकारा। लेकिन हरीश निगम ने यहीं सन्तोष नहीं किया। उनके अनुसार मुझे अपने हुलिए में भी परिवर्तन करना पड़ा। अपनी रौबदार मूँछों, हाथ में लट्ठ एवं गर्वीली चाल, जो मुझे दादा किस्म की पहचान देती थी, छोड़नी पड़ा। इस प्रकार मैं बालकवि बैरागी एवं हरीश निगम के प्रयास से कवि बन गया।

रचना लिखने और सुधार करवाने के कारण मेरी घनिष्ठता हरीशजी से बढ़ी। परिवार का सदस्य बनते हुए मैं उनके तथा रचना के प्रति संकल्पित हुआ। निगमजी की पत्नी ने मुझे राखी बाँधी। बच्चे मुझे मामा कहते। यहीं से मैं कवि जगत मामा के रूप में चर्चित हुआ और सुल्तान मोहम्मद से सुल्तान ‘मामा’ कहलाने लगा। गंजबासौदा के कवि सम्मेलन में मुकुट बिहारी सरोज भी पधारे थे। सर्दी के कारण कार्यक्रम समय पर समाप्त हुआ। कवि सम्मेलन के कवियों को दुमंजिले भवन में ठहराया गया था। बैरागी एवं मैं दूसरी मंजिल पर रजाई ओढ़े सो रहे थे। हमारी तलाश में मुकुट बिहारी ऊपर आए। रजाई हटाई और ठण्डा पानी डाल दिया। वे लगभग चिल्ला रहे थे ‘कहाँ है साला सुल्तान और बैरागी।’ कवियों के बीच हँसी, मजाक का वह एक अनूठा दृश्य था। बैरागी ने भाई सरोजजी के इस कृत्य पर नाराजी कतई जाहिर नहीं की, बल्कि उन्होंने इसे हास्य-विनोद का एक सहज तरीका मानकर खूब आनन्द लिया।

सन् 1962 के चीनी आक्रमण से भारतीयों में आक्रोश था। उन दिनों झाँसी में एक अखिल भारतीय कवि सम्मेलन हुआ। यहाँ भी मैं और बैरागी मालवा का प्रतिनिधित्व कर रहे थे। सर्दी तेज थी। राष्ट्रीय विचारधारा हिलोरंे मार रही थी। इसमें सुश्री तारकेश्वरी सिन्हा, श्री गोपाल प्रसाद व्यास, जयकिशन गीतकार, श्री भवानी प्रसाद मिश्र, काका हाथरसी, देवराज दिनेश, वीरेन्द्र मिश्र, आनन्द मिश्र के साथ-साथ, कवियों का जमावड़ा था। आठ-दस कवियों के रचना पाठ के बाद मुझे बुलाया गया तो श्री बैरागी ने मेरे रचना कर्म के बारे में मंच से मेरा परिचय दिया। मेरी मालवी रचना थी-

‘चाऊ सुनी लो,
बंग देश का साथी जाग्या; जाग्या रे गुजराती
म्हारा मरद मालवो जाग्यो और जाग्या पंजाबी’

कविता मालवी बोली में थी। लोक भाषा की इस कविता ने सन्नाटा खड़ा कर दिया, फिर जोरदार तालियाँ बजीं और बैरागीजी को बुलाया गया। उनकी रचना ने भी मन्त्रमुग्ध कर दिया। तालियों की गड़गड़ाहट में मालवा गुंजायमान हो रहा था। इस मौके पर बैरागीजी की कविता ‘गोरा-बादल’ खूब जमी। सम्मेलन की समाप्ति पर कविगण चाय पान कर रहे थे। बैरागजी ने मुझे नीचे उतरकर होटल पर चलने का संकेत दिया। यहाँ श्रोताओं की प्रतिक्रिया सुन हमारी हँसी फूट पड़ी। एक वृद्ध कह रहे थे ‘सम्मेलन में कई सारे कवि देखे-सुने, पर ये जो दो मालवी लौंडा आए थे, उन्होंने सबकी धज्जी बिखेर दी।’ मैंने यह जनप्रतिक्रिया सुनी तो लगा मैं सफल हो गया।

झाबुआ के मंच पर तत्कालीन मुख्यमन्त्री प्रकाशचन्द्र सेठी ने अध्यक्षता की थी। मंच के सामने भीड़ थी और मंच के पीछे गड्ढा। बैरागी दादा की कविता जोश भरी थी -

‘कश्मीरी धरती पर अब जो भी आँख उठाएगा
नेहरू चाचा कसम तुम्हारी, मिट्टी में मिल जाएगा।’

कविता काफी जमी तो दाद देने में मंच पर भी हँसी-ठहाके के साथ तालियाँ बजी। आनन्द में झूमते हुए मंचासीन लोग आगे-पीछे हुए तो इस हलचल में कुछ कवि लुढ़क पड़े।

सन् 1969 में बैरागीजी द्वारा रतलाम में मालवी मेला आयोजित किया गया था, जिसमें राष्ट्रकवि स्वर्गीय रामधारी सिंह ‘दिनकर’ आशीर्वाद दाता थे। सम्मेलन में मुझे भी अच्छी दाद मिली। इस दाद मिलने के पीछे दादा बैरागीजी द्वारा इस कार्यक्रम में की गई मेरी प्रशंसा को ही श्रेय जाता है। प्रायः प्रत्येक आयोजन में, जहाँ मुझे उनके साथ मंच पर जाने का मौका मिलता रहा, उन्होंने मुझे भरपूर प्रोत्साहित किया।

श्री पन्नालाल नायाब ‘बा’ के गाँव सागौर में जत्रा लगती है। इसमें मालवी कवि सम्मेलन हुआ, जिसके मंच पर कवियों ने श्री नायाब की पुस्तक ‘थूू और फू’ का विमोचन किया। बालकविजी मुख्य अतिथि थे। यहाँ पर देर तक कवि सम्मेलन चला। दूसरे दिन बस स्टैण्ड पर कवि लोग बसों का इन्तजार करते रहे, इसी बीच एक वृद्ध आए और दो-चार आने देने का अनुरोध किया। गिरिवर सिंह भँवर ने मजाकिया अन्दाज में कहा कि ‘तुम्हारे कोई रखवाले नहीं हैं?’ वृद्ध ने फरमाया-‘भैया, बच्चा तो दो हैं-एक वकील सा’ब अपनी घरवाली ने लई ने अलग चली गया ने दूसरो कवि बनी गयो। अब उनी कुतरा के कई कूँ?’ (भैया! बच्चे तो दो हैं। एक वकील है। वह अपनी पत्नी को लेकर अलग हो गया। दूसरा कवि बन गया। उस कुत्ते के पिल्ले को क्या कहूँ?) इस पर बैरागीजी ने ठहाका लगाया और बोले, ‘बा साहब! हमें ही तुम्हारा दूसरा पुत्र मान ला।’ बैरागीजी फिर भँवरजी से बोले-‘इस बिचारे को क्या मालूम कि हम भी कवि हैं!’ सभी ने राशि एकत्र की और वृद्ध को भेंट करते हुए कहा हम भी कवि हैं तथा चरण छुए।

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मदारबड़
तराना-456665
जिला-उज्जैन (म. प्र)




नंदा बाबा: फकीर से वजीर
ISBN 978.93.80458.14.4
सम्पादक - राजेन्द्र जोशी
प्रकाशक - सामयिक बुक्स,
          3320-21, जटवाड़ा, 
    दरियागंज, एन. एस. मार्ग,
    नई दिल्ली - 110002
मोबाइल - 98689 34715, 98116 07086
प्रथम संस्करण - 2010
मूल्य - 300.00
सर्वाधिकार - सम्पादक
आवरण - निर्दोष त्यागी
 

यह किताब मेरे पास नहीं थी। भोपाल से मेरे छोटे भतीजे गोर्की और बहू अ. सौ. नीरजा ने उपलब्ध कराई। 

 


‘साफे’ के स्वाभिमान, सम्मान, सहयोग, संरक्षण के लिए ‘जूती’ का उपयोग


राजेन्द्र जोशी

(दादा, साहित्य को ‘सर का साफा’ और राजनीति को  ‘पाँव की जूती’ कहा करते थे। कहा करते कि जब साफे का सम्मान संकट में हो तो रक्षा के लिए वे जूती हाथ में ले लेते हैं। राजेन्द्र भाई का यह आलेख, दादा की इन्हीं बातों को प्रखरता से उजागर करता है कि साहित्यकारों के सम्मान की रक्षा करने के लिए और उन्हें सहयोग करने के लिए उन्होंने किस तरह राजनीति को औजार बनाया। - विष्णु बैरागी)

लेखकों और कवि मित्रों को अपने से जोड़े रखना और निरन्तर उनके और उनके परिवारजनों के हालचाल जानते रहना, बैरागीजी के गुणों की महत्वपूर्ण खासियत है। सांसद, विधायक और मन्त्री रहते हुए उन्होंने अपने लेखक मित्रों से दूरी बनाकर नहीं रखी। सभी के सुख-दुःख में हाजिर होकर बड़ी उदारता और सहिष्णुता का परिचय देने में वे आज भी पीछे नहीं रहते। 

मध्यप्रदेश में जब उन्हें सूचना तथा प्रकाशन मन्त्रालय के राज्य मन्त्री पद की जिम्मेदारी मिली थी, उस समय कवि दुष्यन्त कुमार भाषा विभाग में कार्यरत थे। कतिपय विभागीय कारणों से दुष्यन्तजी को प्रताड़ित किया जा रहा था और वे कुछ समय के लिए मध्य प्रदेश से बाहर बिजनौर चले गए थे। पूर्ववर्ती सरकार की कार्रवाई के शिकार दुष्यन्तजी के प्रकरण की बैरागीजी ने विभागीय मन्त्री की हैसियत से समीक्षा की और प्रशासनिक स्तर पर उनके पक्ष में आदेश निकलवा दिया। आदेश तो जारी हो गया किन्तु श्री दुष्यन्त कुमार को कैसे मिले, यह समस्या प्रशासन के सामने थी, क्योंकि वे उस समय उत्तर प्रदेश में थे।

बैरागीजी ने उत्तर प्रदेश में सम्बन्धित जिले के कलेक्टर के माध्यम से दुष्यन्तजी को ढुँढवाकर भोपाल बुलवाया। दुष्यन्त कुमार को लगा कि आखिर क्या माजरा है कि उन्हें प्रशासन के माध्यम से ढूँढकर सरकार ने भोपाल बुलवाया है! आखिरकार दुष्यन्तजी को भोपाल आना ही पड़ा। भोपाल आकर उन्हें जानकारी मिली कि उनके पक्ष में शासन ने निर्णय ले लिया है और उन्हें तत्काल पदभार ग्रहण करने के आदेश की प्रति दी जानी है। दुष्यन्त कुमार समझ गए कि यह विभाग के नए मन्त्री बैरागीजी का चमत्कार है। वे फौरन बैरागीजी के पास गए और तमतमाते हुए बोले - ‘बैरागीजी! मुझपर कोई एहसान जताने के लिए तो यह आदेश जारी नहीं कराया गया है? यदि ऐसा है तो संभालो अपने इस आदेश को। मैं तो ये चला।’ बैरागीजी ने उनसे साफ-साफ कहा - ‘दुष्यन्तजी! इसके पीछे एहसान जताने जैसी बात नहीं है। यह तो आपका अधिकार था, जो आपको मिल रहा है।’ उन दिनों साहित्य-जगत और प्रशासनिक क्षेत्रों में खूब चर्चाएँ रहीं कि मित्रों के प्रति बैरागीजी के सहयोगात्मक रुख की वजह से दुष्यन्त कुमार पुनः ससम्मान अपनी ड्यूटी पर लौट आए।(दुष्यन्तजी का, 60 के दशक का यह चित्र मन्दसौरवाले मेरे प्रिय अशोक त्रिपाठी ने उपलब्ध कराया है।)

पुतलीघर बंगले में निवास के दौरान एक और वाकया हुआ, जिसका मैं प्रत्यक्ष गवाह हूँ। विख्यात गीतकार पण्डित आनन्दी सहाय शुक्ल और उनका परिवार बैरागीजी का मेहमान बनकर रहा। आनन्दी सहाय परिवार के लिए पुतलीघर बंगला एक ऐसा माध्यम भी बना, जहाँ रहते हुए उनकी बड़ी बेटी आशा का विवाह होशंगाबाद निवासी विख्यात कवि श्री सुरेश उपाध्याय के साथ सम्पन्न हुआ।  बैरागीजी और मान बाबू (श्री हनुमान प्रसादजी तिवारी) की पहल से ही यह वैवाहिक बन्धन सम्भव हो सका। उन दिनों श्री बैरागी के सान्निध्य से अपने ऊपर घिरे संकटों से शुक्ल परिवार को मुक्ति की राह मिली।

अपने परिचित लेखकों के प्रति उनकी उदारता के अनेक प्रसंग देखने को मिलते हैं। गजल और व्यंग्य के उद्भट कवि श्री माणिक वर्मा भी खण्डवा छोड़कर हरदा में बसने की अपनी कहानी में बैरागीजी से मिले सहयोग का उल्लेख अक्सर करते रहते हैं। अस्पताल में एक बार घायल अवस्था में भरती माणिक भाई को बैरागीजी ने उपयुक्त सुविधा और उपचार की समुचित व्यवस्था कराई थी तथा उनकी आँखों के आपरेशन के लिए अपने गृहनगर में बुलाकर बैरागीजी ने प्रसिद्ध नेत्र विशेषज्ञ से उनका उपचार करवाया। (यह प्रसंग यहाँ पढ़ा जा सकता है।)

साहित्यकार प्रेमशंकर रघुवंशी ने जब कुछ विभागीय परेशानियों से नौकरी छोड़ने का मन बनाया, तब बैरागीजी की सान्त्वना और परामर्श ने उन्हें अपना इरादा बदलने पर विवश कर दिया। (यह प्रसंग यहाँ पढ़ा जा सकता है।)

नया मध्य प्रदेश बनने पर सी. पी. एण्ड बरार, मध्य भारत तथा विन्ध्य प्रदेश से भोपाल आए शासकीय सेचकों को तो शासकीय आवासगृह की पात्रता थी किन्तु भोपाल राज्य के शासकीय सेवकों को आवास आबण्टन की पात्रता नहीं थी। एक नियम यह जरूर था कि यदि कोई कर्मचारी मन्त्री की स्थापना में पदस्थ होता है तो भोपाल राज्य के ऐसे कर्मचारी को भी शासकीय आवास मिल सकता था। जब बैरागीजी प्रदेश में मन्त्री बने, तब तक भोपाल को राजधानी बने एक दशक से ऊपर होचुका था। सूचना विभाग में कार्यरत कवि श्री बटुक चतुर्वेदी भोपाल राज्य के कर्मचारी होने के कारण शासकीय आवासगृह के पात्र नहीं थे, इसलिए वे किराए के मकान में अपने परिवार के साथ रहा करते थे। श्री चतुर्वेदी को शासकीय आवास दिलाने की राह निकल ही आई। श्री बैरागीजी ने श्री चतुर्वेदी को अपने निजी सहायक के रूप में अपने साथ पदस्थ कर लिया और शासन के नियमानुसार श्री चतुर्वेदी को परी बाजार में एक शासकीय आवासगृह आबण्टित हो गया। जब भी और जिस सूत्र से भी उन्हें कवियों और लेखकों की समस्याओं की जानकारी मिलती, बैरागीजी ने सदैव ही शासकीय मर्यादाओं के बीच रहकर सभी को राहत और सहयोग प्रदान करने का भरसक प्रयास किया। किसी को सहायता पहुँचाते वक्त वे उसके स्वाभिमान और प्रतिष्ठा का भी ध्यान रखते थे।

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नंदा बाबा: फकीर से वजीर
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सम्पादक - राजेन्द्र जोशी
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मूल्य - 300.00
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यह किताब मेरे पास नहीं थी। भोपाल से मेरे छोटे भतीजे गोर्की और बहू अ. सौ. नीरजा ने उपलब्ध कराई।

 


सत्ता से निर्लिप्तता की विरासत



बॉंये से बालकविजी, बलराजजी साहनी, बालकविजी के पिता द्वारिकादासजी बैरागी। चित्र सौजन्य - वीणा बैरागी।

राजेन्द्र जोशी

बैरागीजी ने आकाशवाणी पर अपने जीवन का एक महत्वपूर्ण प्रसंग सुनाया -

फिल्म अभिनेता बलराज साहनी, भोपाल में मन्त्री निवास (पुतली घर बंगले) पर पधारे। भोजन करते हुए बलराजजी ने पूछा - ‘आपके भोपाल में क्या-क्या चीजें देखने लायक हैं। बैरागीजी ने कहा - ‘आइए बाहर।’ बैरागीजी, बलराजजी को साथ लेकर बाहर लॉन में लाए। बलराजजी समझ रहे थे कि अब मन्त्रीजी गाड़ी बुलाएँगे और उन्हें कहीं शहर में घुमाने ले जाएँगे। बाहर आ कर बैरागीजी ने लॉन में लगी कुर्सियों पर बैठे दो बुजुर्गों को उन्हें दिखाया और कहा - “बलराजजी! ये लोग भी देखने की चीज हैं।” बलराजजी आश्चर्यचकित थे। 

बैरागीजी ने परिचय कराया - ‘ये दाढ़ी वाले काका हाथरसी हैं। देश के विख्यात हास्य कवि।’ बलराजजी ने कुछ सोचा और फिर बोले कि “ये वही काका हाथरसी हैं, जो धर्मयुग में ‘फुलझड़ी’ कालम लिखते हैं?” बैरागीजी ने कहा - ‘हाँ! ये दाढ़ीवाले वही काका हैं।’ काका हाथरसी उन दिनों बैरागीजी के निवास, पुतलीघार बंगले पर ही ठहरे हुए थे। बैरागीजी ने जब दूसरे बुजुर्ग सज्जन का परिचय कराया तो बलराजजी चौंक पड़े। बैरागीजी ने कहा - ‘ये बुजुर्ग माँ के गर्भ से ही अपंग हैं। इनका नाम द्वारिकादासजी बैरागी है और ये आपके सामने खड़े इस सौभाग्यशाली बेटे के ऐसे पिता हैं जिन्होंने अपने बेटे को अपने उत्तराधिकार में भिक्षावृत्ति दी और अपने आशीर्वाद और पुण्य प्रताप से अपने बेटे को यहाँ तक पहुँचाया।’

बलराजजी को मानो करण्ट छू गया हो। उनके चेहरे के भाव उनके भावुक और विशाल व्यक्तित्व को छुपाए नहीं छुपा पा रहे थे। उनकी आँखें नम हो चुकी थीं। बलराजजी ने बैरागीजी को अपने सीने से चिपका लिया। फफकते हुए बोले - ‘बैरागीजी! आप धन्य हैं। इतने ऊँचे स्थान पर पहुँचकर लोग अपने माँ-बाप को छुपाकर रखते हैं। लेकिन आप हैं, जो अपने अपाहिज और विपन्न जीवन से घिरे रहे पिता का परिचय बड़े ही गर्व के साथ दे रहे हैं।’ 

बलराजजी ने बैरागीजी के पिताजी को प्रणाम किया और बोले - ‘आपका बेटा मन्त्री हो गया है। अब आपकी और क्या इच्छा है?’ पिताजी बोले - ‘मेरी एक ही इच्छा है कि मेरा नन्दराम जल्दी से जल्दी वापस घर आ जाए।’ 

बलराजजी के लिए पिताजी का यह उत्तर और भी हतप्रभ कर देनेवाला था। क्यों न हो! भला कौन पिता चाहता होगा कि उसका बेटा मन्त्री पद से लौट आए? 

बालकविजी ऐसे ही निर्लिप्त पिता के बेटे थे।

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नंदा बाबा: फकीर से वजीर
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मूल्य - 300.00
सर्वाधिकार - सम्पादक
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यह किताब मेरे पास नहीं थी। भोपाल से मेरे छोटे भतीजे गोर्की और बहू अ. सौ. नीरजा ने उपलब्ध कराई।


गरीब के घर में बच्चा नहीं, हमेशा बूढ़ा ही पैदा होता है।

राकेश पाण्डेय

बैरागीजी के प्रखर व्यक्तित्व के बारे में यूँ तो मैं पहले से ही परिचित था, लेकिन उनकी कविताओं से दूरदर्शन या कवि सम्मेलन के माध्यम से परिचित हुआ। मेरा उनसे निजी सम्पर्क व परिचय सन् 2003 में सातवें विश्व हिन्दी सम्मेलन सूरीनाम के समय हुआ। उस सम्मेलन में बालकवि बैरागीजी की एक सक्रिय भूमिका थी। इसी सम्मेलन में मैंने अपनी पत्रिका ‘प्रवासी संसार’ के परिकल्पन अंक से पत्रिका का प्रकाशन प्रारम्भ किया। इसका विमोचन डॉ. अशोक चक्रधर के सत्र ‘हिन्दी एवं सूचना प्रौद्योगिकी’ में होना निर्धारित हुआ। इसमें प्रमुख रूप से कमलेश्वरजी को पत्रिका का विमोचन करना था। डॉ. अशोक चक्रधर ने विमोचन के लिए मुझे मंच पर आमंत्रित किया। मंच के निकट प्रथम पंक्ति में नीचे बैरागीजी भी बैठे हुए थे। मैंने मंच पर जाते हुए उन्हें प्रणाम किया। उन्होंने मुझे कहा, ‘बधाई हो।’ मैं रुका और मैंने आग्रह किया कि आप भी पत्रिका के प्रथम अंक के विमोचन में सहभागी बनें। उन्होंने मेरा हाथ पकड़ा और मेरे साथ मंच पर चल दिए। वहीं से सम्बन्धों की शुरुआत हुई। उसके बाद साहित्य और हिन्दी से जुड़े कई कार्यक्रमों में मिलने का क्रम चलता रहा।

एक दिन, दुष्यन्त कुमार स्मारक पाण्डुलिपि संग्रहालय के संचालक भाई राजुरकर राज का फोन आया कि पुस्तक मेला देखने के लिए दिल्ली आ रहा हूँ और बैरागीजी के यहाँ ठहरूँगा। वहीं पर मिलना तय हुआ। मैं भी उनके सांसद आवास में गया। उनके आवास पर जाने का मेरा यह पहला मौका था। वहाँ का आडम्बररहित सहज वातावरण देखकर लगा कि यह व्यक्ति यूँ ही व्यक्ति से व्यक्तित्व नहीं बना है, क्योंकि मुझे तमाम सांसदों, मन्त्रियों के यहाँ जाने का अवसर प्राप्त हुआ है। वहाँ पर अवांछनीय आडण्बर का वातावरण व्याप्त रहता है। बातचीत और अनेक प्रसंगों में बैरागीजी के साथ समय का ध्यान ही नहीं रहा और अन्दर रसोई से खाने का फरमान आ गया। जिस अधिकार के साथ बैरागीजी ने खाने के लिए कहा, उसके आगे इंकार करना मुश्किल था। तभी वहीं पर उनका एक पुराना, सरकार द्वारा प्राप्त कर्मचारी मिलने आ गया। उसके साथ भी जिस आत्मीयता से मैंने बैरागीजी को मिलते देखा, मेरे मन में उनके प्रति श्रद्धा और भी बढ़ गई। उन्होंने उसे भी खाने की टेबल पर बुला लिया। न कोई अहम, न कोई अहंकार, न कोई बनावट। शायद उनके इन्हीं गुणों के कारण ईश्वर ने उन्हें फकीर से वजीर बनाया है।

भाई राजुरकर की बैरागीजी से वह मुलाकात भी ऐतिहासिक रही, क्योंकि वहीं पर राजुरकरजी के हाथ बैरागीजी की डायरी लग गई, जिसका प्रकाशन बाद में उन्होंने ‘बैरागी की डायरी’ के रूप में किया और संग्रहालय द्वारा आयोजित होनेवाले कार्यक्रमों में ‘बुके नहीं बुक’ की परम्परा का भी आरम्भ किया। इस परम्परा का निर्वाह करते समय वे अधिकतर बैरागीजी की डायरी ही देते हैं। अभी दिसम्बर में उन्होंने ‘नया ज्ञानोदय’, ‘आहा जिन्दगी’ और ‘प्रवासी संसार’ को पुरस्कृत किया तो कार्यक्रम के बाद भाई राजुरकर से मैंने परिहास भी किया कि भाई तुम बुक बदल भी दिया करो, क्योंकि मेरे पास बैरागीजी की डायरी तीसरी बार आ गई है।

बैरागीजी का व्यक्तित्व एवं कृतित्व उनकी डायरी से परिलक्षित होता है कि एक व्यक्ति जीवन के संघर्षों से तपकर ही कंचन हुआ है। उस डायरी में जो बैरागीजी ने अपने बारे में लिखा है, उससे उपयुक्त उनके बारे में लिखा नहीं जा सकता। उसकी कुछ पंक्तियां यूँ हैं -“ईश्वर ने मुझे कलम थमाकर एक सर्वथा भिखमंगे परिवार में जन्म दिया। माँ ने मुझे टूटने से बचाया। आजन्म अपाहिज और लाचार बाप का मैं जेठा बेटा। पूर्णतः माँ का निर्माण। मैं खुद कहता रहा हूँ - ‘गरीब के घर में बच्चा पैदा नहीं होता, हमेशा बूढ़ा ही पैदा होता है।’ ‘साहित्य मेरा धर्म है, राजनीति मेरा कर्म।’ धर्म और कर्म के बीच की क्षीण-सी रेखा को मैंने न लाँघा, न मिटाया। मान-सम्मान, अपमान, पुरुस्कार, तिरस्कार, प्यार, प्रताड़ना, उत्तार, चढ़ाव, सिंहासन-आसन-निरासन, पद-अपद, जो भी मिला, सभी को प्रभु का प्रसाद मानकर ठहाकों के साथ चलता रहा। काँग्रेस की राजनीति में न कभी मचला, न कभी फिसला, न कभी बहका, न कभी बिका। मुझे खरीदने बड़े-बड़े धनी, राजे-महाराजे, रानियाँ-महारानियाँ अपने-अपने समय पर पूरी निर्लज्जता से पधारे। मेरे अभावों, मेरी गरीबी और मेरे संघर्षों के खुले आकाशी तम्बू में मुझे ठहाका लगाते देख, वे सब पानी-पानी होकर लौट गए। आजादी की लड़ाई में मैंने नाखून भी नहीं कटाया, किन्तु श्रीमती इन्दिरा गाँधी ने मुझे मध्य प्रदेश में दो बार मिनिस्टर बनवाया। एक बार संसदीय सचिव बनवाया। श्री राजीव गाँधी ने मुझे मन्दसौर जैसे विकट क्षेत्र से लोकसभा में चुनवाया और श्रीमती सोनिया गाँधी की अहेतुकी कृपा के कारण इस समय राज्यसभा का एक मुखर कांग्रेसी सदस्य हूँ।”

इसी के साथ एक प्रसंग और जोड़ना आवश्यक समझता हूँ, क्योंकि वर्तमान राजनीति के सन्दर्भों में दलबदल एक आम बात है। सत्तालोलुपता में आज के नेताओं के बारे में यह नहीं पता चलता कि वह सुबह किस दल में हैं और शाम को किस दल में रहेंगे। ऐसे में बैरागीजी ने अपने बारे में रहीम के एक दोहे का सन्दर्भ दिया है -

सर सूखे, पंछी उड़े आरहु सरन समाहिं।
दीन मीन, बिन पंख के, कहु रहीम कहँ जाहिं।।

इसका अर्थ है कि तालाब का पानी सूखने पर उसके किनारे के हरे-भरे वृक्षों पर चहचहाने वाले पक्षी दूसरे तालाबों के किनारे पर चले जाते हैं, लेकिन उस सूखते तालाब की मछलियाँ तड़प-तड़पकर उसी तालाब में जान दे देती हैं और तालाब नहीं छोड़तीं। पंख, मछलियों के पास तैरने के लिए होते हैं और पक्षियों के पास उड़ने के लिए। मेरे और दलबदलुओं के बीच में यही फर्क है। वे हरियाली की तलाश में कहीं भी जा सकते हैं, पर मुझे तो इसी तालाब में जान देनी है।

इस प्रकार बैरागीजी के साथ अनेक प्रसंग जुड़े हुए हैं, लेकिन मैं एक महत्वपूर्ण प्रसंग का उल्लेख करना चाहूँगा। अभी अमेरिका में आयोजित आठवें विश्व हिन्दी सम्मेलन की कार्यसमिति में बैरागीजी सदस्य थे और उसकी उपसमिति में मैं भी सदस्य था। मेरे पास विदेश से एक मेल आई, जिसे कि एक ख्‍यात कॉंग्रेसी नेता के चरित्र को कलंकित करने के प्रचार के उद्देश्य से भेजा गया था। उस मेल को फॉरबर्ड करनेवाले मित्र ने यह भी बता दिया कि विश्व हिन्दी सम्मेलन के समय जो लोग अमेरिका आएँगे, वहाँ पर एक समानान्तर सम्मेलन करने का प्रयास भी किया जा रहा है कि सरकारी खर्च पर गए लोग उस सम्मेलन में भी चले जाएँगे। मैंने इस ई-मेल की सूचना से कार्यसमिति के सदस्यों को अवगत कराना उचित समझा। कार्यसमिति की बैठक के बाद मुझे यह जानकर हर्ष हुआ कि बैठक में सबसे अधिक प्रखर रूप से सभी सदस्यों के बीच बैरागीजी ने इस मुद्दे को उठाया और सर्वसम्मति से यह निर्णय हुआ कि सभी सदस्य 2 जुलाई को ही अमेरिका के लिए रवाना होंगे और संयोग ही था कि आठवें विश्व हिन्दी सम्मेलन के समय प्रकाशित विशेषांक के विमोचन के समय भी बैरागीजी सामने बैठे हुए थे। जब मुझे मंच पर आमन्त्रित किया गया तो इस बार मैंने हाथ पकड़ा और कहा, ‘चाचा चलिए’ और वह मुस्कराकर मेरे साथ चल दिए और आज तक यूँ ही उनका साथ और आशीर्वाद जारी है।

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सम्पादक,
प्रवासी संसार,
5/23, गीता कालोनी,
दिल्ली-110031

अपनी पुस्तक ‘ब्रिटिश सरकार द्वारा प्रतिबंधित साहित्य में गांधी’, राष्ट्रपति श्री रामनाथ कोविंद को भेंट करते हुए श्री राकेश पाण्डेय। 
चित्र श्री राकेश पाण्डेय की फेस बुक वाल से।





नंदा बाबा: फकीर से वजीर
ISBN 978.93.80458.14.4
सम्पादक - राजेन्द्र जोशी
प्रकाशक - सामयिक बुक्स,
          3320-21, जटवाड़ा, 
    दरियागंज, एन. एस. मार्ग,
    नई दिल्ली - 110002
मोबाइल - 98689 34715, 98116 07086
प्रथम संस्करण - 2010
मूल्य - 300.00
सर्वाधिकार - सम्पादक
आवरण - निर्दोष त्यागी


यह किताब मेरे पास नहीं थी। भोपाल से मेरे छोटे भतीजे गोर्की और बहू अ. सौ. नीरजा ने उपलब्ध कराई।


‘मारुति’ पर देव नागरी में ‘मारुति’ उन्हीं ने अंकित करवाया

नारायण कुमार

(मेरी भावना रही है कि लेख के साथ लेखक का चित्र दिया जाए। किन्तु मुझे नारायण कुमारजी के बारे में कोई जानकारी नहीं है। किताब में दिए पते पर दो पत्र लिखे किन्तु जवाब नहीं मिला। सम्‍भव है, मेरे पत्र मुकाम पर नहीं पहुँचे। आप में से यदि कोई नारायण कुमारजी का कोई सम्पर्क सूत्र उपलब्ध करा सकें तो बड़ी कृपा होगी ताकि उनका चित्र प्राप्त कर लेख के साथ जोड़ा जा सके। - विष्णु बैरागी।)

नौ वर्ष की उम्र में यानी 1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन से दो वर्ष पहले 1940 से ही बैरागीजी कविता लिख रहे हैं। उन्होंने मूलतः मालवी में अपना काव्य लेखन किया। सन् 1951 में मनासा की एक विशाल जनसभा में नन्दराम नामक बालक ने जब अपने ओजस्वी स्वर और आत्मविश्वास के साथ अपनी कविता सुनाई तो वह सभा में उपस्थित जन समूह के लिए एक सुखद आश्चर्य की बात थी। एक विशाल सभा में राजनेताओं को यह देखकर आश्चर्य हुआ कि रामपुरा ग्राम में जन्मे बैरागी परिवार के इस छोटे से बालक की वाणी में कितनी विराटता और विचारों में कितनी उदारता है! और उसी समय उस विशाल सभा में मौजूद भारत के गृहमन्त्री डॉ. कैलाशनाथ काटजू ने घोषणा की कि यह हमारे देश का ‘बालकवि’ है। इस प्रकार श्री द्वारिकादासजी बैरागी और श्रीमती धापूबाई बैरागी के पुत्र उसी दिन से नन्दरामदास बैरागी से बालकवि बैरागी बन गए।

सातवें विश्व हिन्दी सम्मेलन के अवसर पर आयोजित कवि सम्मेलन में लगभग प्रातः 2 बजे जब मुख्य अतिथि के रूप में बालकवि बैरागी से काव्य पाठ करने का आग्रह किया गया तो उन्होंने देश-विदेश के प्रतिनिधियों को यह बताकर चकित कर दिया कि भारतीय प्रजातन्त्र में कैसे एक अत्यन्त विपन्न और निर्धन परिवार में जन्मा तथा बाल्यावस्था में भिक्षाटन कर अपना जीवन-यापन करनेवाला व्यक्ति सांसद और मन्त्री बनकर देश का नेतृत्व कर सकता है। 10 फरवरी, 1931 में जन्मे नन्दरामदास को मात्र साढ़े चार वर्ष की उम्र में उसकी माँ ने जो पहला खिलौना दिया था, वह भिक्षा पात्र था। बालक नन्दराम जब भिक्षाटन के लिए जाता था, तो लोगों से जो दुत्कार और फटकार मिलती थी, उसे भुलाना किसी के लिए भी मुश्किल है, लेकिन नन्‍दराम से बालकवि बने बैरागीजी उसे तत्कालीन गुलाम भारत की सामन्ती मानसिकता का हिस्सा मानते हैं तथा भिक्षा पात्र से मुक्ति को अपने जीवन का प्रेरणादायी संघर्ष।

बैरागीजी 4-5 वर्ष की उम्र से ही सक्रिय राजनीति में कूद पड़े थे। वे 1967 में मनासा विधानसभा से विधायक चुने गए तथा मध्य प्रदेश सरकार में संसदीय सचिव और राज्यमन्त्री भी रहे। आप भारतीय संसद के लोकसभा तथा राज्यसभा दोनों सदनों के सदस्य रहे और संसद सदस्य होने के नाते अनेक संसदीय समितियों के भी सम्माननीय सदस्य थे। राजभाषा संसदीय समिति के सदस्य के रूप में बैरागीजी ने हिन्दी को सरकारी कार्यालयों, निगमों, उपक्रमों आदि में प्रतिष्ठित करने में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। ऐसे अनेक प्रसंग मुझे याद आते हैं, जहाँ उन्होंने हिन्दी के प्रश्न पर बड़े-बड़े मन्त्रियों तथा सरकार के उच्चाधिकारियों को राजभाषा नियमों की अवहेलना के लिए न सिर्फ प्रताड़ित किया, बल्कि हिन्दी में काम करने के लिए प्रेरित और प्रोत्साहित भी किया। बैरागीजी में एक विशेषता यह है कि वे राष्ट्रहित तथा विशेष रूप से हिन्दी भाषा के सवाल पर सभी राजनीतिक दलों के सदस्यों को अपने साथ मिला लेते थे, चाहे वे राष्ट्रीय जनता दल के शंकर दयाल सिंह हों या भारतीय जनता पार्टी के जगदम्बी प्रसाद यादव। यहाँ तक कि सीपीएम और डीएमके जैसे दलों के सदस्य भी हिन्दी के सवाल पर उनका हमेशा समर्थन करते थे। डा. रत्नाकर पाण्डेय हमेशा उनका साथ देते ही थे। बैरागीजी ने संकल्प कर लिया कि ‘मारुति’ कार पर ये तीन अक्षर हिन्दी में भी लिखे जाएँ।  उन्होंने तब तक इस मुद्दे को नहीं छोड़ा जब तक उस कार पर देवनागरी में ‘मारुति’ शब्द अंकित नहीं किए गए।

इसी प्रकार यू.टी.आई. और एक्सिस बैंक के चेयरमैन ने जब यह कहा कि वे  सरकारी संस्था नहीं हैं तथा राजभाषा नियम उन पर लागू नहीं होते, तो बैरागीजी ने जिस दृढ़ता से उनके मत और अहंकार को धराशायी किया कि उन्हें समिति के समक्ष क्षमा याचना कर अपने-अपने कार्यालयों में हिन्दी में काम करने को विवश होना पड़ा।

संसद सदस्य के रूप में भी उन्होंने भारतीय भाषाओं के प्रचार-प्रसार, गरीबी, उन्मूलन, शिक्षा तथा स्वास्थ्य जैसे विषयों पर हमेशा सरकार को अपने बहुमूल्य और व्यावहारिक विचारों से अवगत कराया। मुझे याद आता है कि ‘बचपन बचाओ’ विधेयक पर संसद में सदस्यगण बाल्यावस्था के बारे में सुनहरे शब्दों में अच्छी-अच्छी बातें कह रहे थे और बता रहे थे कि बचपन के दिन इतने सुन्दर और सुहाने होते हैं कि कोई उसे भूलना नहीं चाहता तो बालकवि के इस वक्तव्य से पूरे सदन में सन्नाटा छा गया कि ‘माननीय मन्त्री और उच्च वर्ग के सदस्यगण ग्रामीण भारत के गरीब परिवार के बच्चों की स्थिति नहीं जानते।’ उन्होंने निर्भीक और स्पष्ट शब्दों में कहा - ‘आप अपने बचपन को भूलना नहीं चाहते, लेकिन मैं अपने बचपन को याद कर भयभीत हो जाता हूँ - एक हाथ में भिक्षापात्र और दूसरा हाथ कभी पेट पर अथवा आँसू पोंछने के लिए आँखों पर।’ बैरागीजी की स्पष्टवादिता ने उनके व्यक्तित्व को निखारा है। आज की राजनीति के धूल-धूसरित वातावरण में भी बैरागीजी ने अपने जीवन मूल्यों और मर्यादा को न सिर्फ बरकरार रखा है, बल्कि सामाजिक एवं राजनीतिक क्षेत्र में एक आदर्श मानदण्ड स्थापित किया है।

न्यूयार्क में जुलाई, 2007 में आयोजित विश्व हिन्दी सम्मेलन की स्थायी समिति तथा विश्व हिन्दी सम्मान समिति में मैं भी उनके साथ एक सदस्य था। बैरागीजी की धर्मपत्नी श्रीमती सुशील चन्द्रिका बैरागी अत्यधिक अस्वस्थावस्था में दिल्ली के एम्स में दाखिल थीं। बैरागीजी साउथ एवेन्यू में अपेक्षा से अधिक किराया (मार्केट रेण्ट) देकर रहते थे। इस सबके बावजूद उन्होंने विश्व हिन्दी सम्‍मेलन के आयोजन तथा सम्मान चयन समिति के क्रियाकलापों में सक्रिय रूप से भाग लिया और समय-समय पर उचित मार्गनिर्देशन देकर सम्मेलन को सफल बनाने में अपना सम्पूर्ण सहयोग प्रदान किया।

बालकवि बैरागी हिन्दी के वरिष्ठ कवि और श्रेष्ठ साहित्यकार के साथ-साथ हिन्दी भाषा के समर्पित प्रचारक भी हैं। द्वितीय हिन्दी भाषा कुम्भ में मैंने जब उनसे मैसूर हिन्दी प्रचार परिषद की ओर से ‘वरिष्ठ हिन्दी सेवी सम्मन’ स्वीकार करने का सादर निवेदन किया तो उन्होंने हमारी भावनाओं का सम्मान करते हुए और हमारे उत्साह को बनाउ रखने के लिए, अत्यन्त विनम्र शब्दों में, अपनी पूर्व व्यस्तता और स्वास्थ्य के कारण इस समारोह में सम्मानित होने में अपनी असमर्थता व्यक्त की। फिर भी मेरे आग्रह अथवा दृढ़धर्मिता तथा कुम्भ के अध्यक्ष डा. रत्नाकार पाण्डेय और उपाध्यक्ष डा. वि. रामसंजीव्या के प्रति आदर और स्नेह के कारण उन्होंने काफी देर से बैंगलूर आने की स्वीकृति भेजी। समय पर उनसे कविता प्राप्त न कर पाने के कारण स्मारिका में प्रकाशन के लिए उनकी कविता की कुछ पंक्तियाँ हमें कहीं से मिलीं। स्मारिका लगभग मुद्रित हो चुकी थी, फिर भी हमने बैरागीजी की, हिन्दी के सन्दर्भ में लिखी उन पंक्तियों को उनके ऐसे वक्तव्य के रूप में समझा, जो हिन्दी के भविष्य के लिए जरूरी है। आइए उनके वक्तव्यों पर विचार करें -

- जैसी भी आती है - हिन्दी आने दो
- हिन्दी यहीं थी-यहीं है और यहीं रहेगी।
- आज नहीं तो कल, जब भी जाएगी, भारत से अंग्रेजी ही जाएगी
- जो हाथ हिन्दी में अपना हस्ताक्षर करने में भी काँपते हैं-वे हिन्दी का झण्डा कैसे उठाएँगे?
- हिन्दी विवाद की नहीं, विकास की भाषा है।
- किसी भी भारतीय भाषा से हिन्दी का विवाद नहीं है।

उपर्युक्त सूक्तियों, सुभाषितों तथा सन्देश के साथ-साथ उन्होंने एक कविता भी भेजी थी, जो हिन्दी के प्रसार और विकास के सन्दर्भ में अत्यन्त उपयोगी तथा व्यावहारिक है। मैं उस कविता को यहाँ उद्धृत करने का लोभ सँवरण नहीं कर पा रहा हूँ।

जैसी भी आती है-हिन्दी आने दो।
जैसी भी गाती है जनता-गाने दो।

नदियों की कल-कल है हिन्दी।
हिमगिरी की हलचल है हिन्दी।
मरुथल का मधुजल है हिन्दी।
सचमुच बहुत सरल है हिन्दी।
इसकी बदली जैसी भी, 
छाई है-छाने दो।
जैसे भी आती है-हिन्दी आने दो।

भारत माँ के मन की बोली।
राष्ट्रदेव की कुंकुम रोली।
नहीं माँगती आसन डोली।
हर भाषा की यह हमजोली।
कल्याणी को अपनी माँ का, 
सुन्दर रूप सजाने दो।
जैसे भी आती है-हिन्दी आने दो।

इसके पथ को सुगम बनाओ।
सुरा-बेसुरा मिलकर गाओ।
सही समय है आ भी जाओ। 
मत कतराओ, मत सकुचाओ।
पूरब-पश्चिम, उत्तर-दक्षिण, 
इसको रस बरसाने दो।’
जैसे भी आती है-हिन्दी आने दो।

यह भारत की राष्ट्रभाषा हिन्दी का राष्ट्रगीत है, जिसमें सबको साथ ले चलने की उदारता, सुरे-बेसरे सभी को समाहित करने की सहिष्णुता, हर भाषा की हमजोली होने की उदारता और राष्ट्रभाषा को सरल, सुगम एवं सुन्दर बनाने की विराटता विद्यमान है। बैरागीजी आज के समाज में व्याप्त पाखण्ड, आलस्य एवं दुराचरण से अत्यन्त क्षुब्ध रहे हैं। उन्होंने ‘उनका पोस्टर’ शीर्षक कविता शहीदों को सम्बोधित करते हुए ख़ुद को निर्लज्ज अपराधी घोषित करते, कठोर सजा की माँग की है तथा अपनी बेबसी और कायरता को इन शब्दों में व्यक्त किया है -

मैं चीखना चाहता था, पर चीख नहीं पाया
इस कायर भीड़ से अलग दीख नहीं पाया
मेरे शहीदों! मेरी दीवार पर
उनके पोस्टर के पीछे लगा तुम्हारा खून पपड़ रहा है
और यह पपड़ाता लहू
मुझे न जाने, कौन-कौन से पाठ पढ़ा रहा है।

(यह कविता यहाँ पढ़ी जा सकती है।)

इन प्रतिकूल परिस्थितियों के सामने बालकवि पराजयबोध से कुण्ठित नहीं होते। वे चुनौतियों को समरक्षेत्र में कूदने का अवसर मानते हैं। भले ही आधुनिक चिन्तक को वे कहते हों कि  ‘अपने अकेलेपन पर झल्लाना उनकी लाचारी है।  आपके भविष्य की चिन्ता में जीना उनकी बीमारी है।’ लेकिन वे इसे भी स्वीकार करते हैं कि ‘बाकी तो सब हैं कचड़े कूड़ेदान के, राम रे राम!! तलवार कब तक, नखरे सहे, इस खाली म्यान के?’ तथाकथित बुद्धिजीवियों, चिन्तकों तथा पराश्रित चेतना के असूर्य के कारण व्याप्त पागल अँधेरे से मुक्ति का आह्वान करते हुए बालकवि बैरागी ने लिखा है -

‘जब धरा पर धाँधली करने लगे पागल अँधेरा,
और मावस धौंस देकर, चाह ले सारा सबेरा,
तब तुम्हारा हार कर, यूँ बैठ जाना बुजदिली है, पाप है,
आज की इन पीढ़ियों को बस यही सन्ताप है।
हाय रे! अब भी समय है, आग को अपनी जगाओ,
बाट मत देखो सुबह की, प्राण का दीपक जलाओ।’

बालकवि का बचपन का भिक्षापात्र अब उनके हाथों से हटकर उनके हृदय में आ गया है। वे आज की पराजित मानसिकता से कुण्ठित समाज को यह सन्देश देते हैं कि हारकर बैठ जाना बुजदिली और पाप है तथा वे अपने हृदय के भिक्षा पात्र को सबके सामने फैलाकर पूर्ण समर्पण भाव से राष्ट्र और राष्ट्रभाषा के लिए आपकी सेवा की याचना करते हैं ताकि हम सुबह की प्रतीक्षा में बैठकर समय बर्बाद न करें और अपने मन में सुप्त आग को जगाकर प्राण का दीपक जलाएँ।

अपने इन्हीं ओजस्वी विचार, तेजस्वी व्यक्तित्व और यशस्वी कृतित्व के कारण बालकवि बैरागी हमारे युग के ऐसे कालजयी व्यक्ति बन गए हैं, जो कभी भी अन्याय से समझौता नहीं करता और अँधेरे से युद्धरत होकर भावी पीढ़ी को प्रकाश की नवीन रश्मियाँ प्रदान करता है।

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बी-530, मानस अपार्टमेंट
मयूर विहार फेज-।
दिल्ली-110091







नंदा बाबा: फकीर से वजीर
ISBN 978.93.80458.14.4
सम्पादक - राजेन्द्र जोशी
प्रकाशक - सामयिक बुक्स,
          3320-21, जटवाड़ा, 
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प्रथम संस्करण - 2010
मूल्य - 300.00
सर्वाधिकार - सम्पादक
आवरण - निर्दोष त्यागी



यह किताब मेरे पास नहीं थी। भोपाल से मेरे छोटे भतीजे गोर्की और बहू अ. सौ. नीरजा ने उपलब्ध कराई।







 


हिन्दी के प्रश्न पर वे कहीं चूकते नही थे

डॉ. रत्नाकर पाण्डेय

कविता की पंक्तियां-‘मैं दिनकर का वंशज हूँ’ सिद्ध करती हैं कि श्री बालकवि बैरागी दिनकर के वंश से भले ही न हो, परन्तु कविता की जो मानवीय अन्तर्द्वन्द्व की वेदना है और उससे उपजी जो सच्ची प्रभावशाली अनुभूति है, उसके सर्जक, सम्प्रेषणकर्ता और सहजता से अभिव्यक्ति करनेवाले ऐसे कवि हैं, जिन्हें हिन्दी कविता के शक्तिप्रकाश से ओझल नहीं किया जा सकता।

बैरागीजी ने बहुत-सी कविताएँ लिखी हैं। ‘मैं दिनकर का वंशज हूँ’ कविता पाठ करते हुए मैंने उन्हें पहली बार सुना और समझा था। कविता पढ़ते समय भावभंगिमा, शारीरिक मुद्रा और भावना जन आरोह-अवरोह की उत्ताल तरंगें लेते हुए मंच पर खड़े इस कवि को देखकर ऐसा लगा जैसे भागीरथ धरती पर गंगा को उतारने के लिए तपस्यालीन है।

श्री बैरागी ने दिनकरजी के अवसान पर लिखी अपनी इस कविता में दिनकर के व्यक्तितव और उनके अवदान को जिस प्रभावकारी ढंग से प्रस्तुत किया, वह अद्भुत है। रचना की पंक्तियाँ हैं -

‘वह दिव्य भाल, उन्नत ललाट
दिपता था जिस पर सूर्य बिन्दु
वह धवल वेश, वह स्कन्ध वस्त्र
लिपटा था जिसमें अमल इन्दु
सुग्रीव शीश, वे वृषभ स्कन्ध
वह चट्टानों सा वृक्ष प्रान्त
वह चलता-फिरता हवन कुण्ड
वह हिन्दी का अद्भुत निशान्त।’

इस रचना में श्री बैरागी ने स्व. दिनकर के काव्य-संस्कार को अक्षुण्ण बनाए रखने का  का संकल्प लेते हुए लिखा हैं - 

‘है वचन समूची पीढ़ी का
हम तुम्हें नहीं मरने देंगे
इस आँगन में तम को ताण्डव
हम कभी नहीं करने देंग।
आश्वस्त रहो, हे पूज्य जनक
वाणी में अंश तुम्हारा है 
कुल, गोत्र भले ही हो कुछ भी
यह सारा वंश तुम्हारा है।’ 

बैरागी कवि, साहित्यकार, राजनेता, प्रशासक और काँग्रेस के समर्पित,  कार्यकर्ता होने के साथ ही साथ समझ रखनेवाले ऐसे व्यक्ति जो स्वाभिमान के प्रश्न पर अडिग है तथा अविश्रान्त संघर्ष से पलायन करने वाले नहीं, बल्कि आराधन का आराधन से दृढ़ उत्तर देने में विश्वास करते हैं। 

मैं सन् 1986 में राज्यसभा का सदस्य चुना गया। उस समय संसदीय राजभाषा समिति का सदस्य बना। बैरागीजी भी उस समिति के सदस्य थे। हम दोनों सम्भवतः तृतीय उप समिति के सदस्य थे। देशव्यापी दौरों में शुरु में वे नहीं आते थे। मुझे चिन्ता हुई। कार्यालयों का निरीक्षण करते हुए माननीय संसद सदस्य तो बहुत थे, मगर साहित्यकार के रूप में मैं अकेला पड़ रहा था। मैंने आग्रह किया कि हिन्दी की समिति में आपको चलना चाहिए। हिन्दी का काम चुनाव क्षेत्र और काँग्रेस के काम से कम महत्वपूर्ण नहीं है। मेरी बात मानकर वे देशव्यापी

निरीक्षण और इस समिति की बैठक में लगातार उपस्थित होकर अपने विचार प्रस्तुत करते थे। संसदीय राजभाषा समिति के दो संस्मरण उनके विषय में बताता हूँ -

एक बार विशाखापट्टनम में संसदीय समिति दौरा कर रही थी। 11 बजे से निरीक्षण का कार्यक्रम था। सारे सदस्य कार्यालय भवन के नीचे खड़े थे और बैरागीजी ऊपर के कमरे में ही थे। हम स्टील अथारिटी आफ इण्डिया के अतिथि थे। पहला निरीक्षण उसी संस्थान का था। निरीक्षण में प्रत्येक सदस्य को अलग गाड़ी और कोआर्डीनिटर मिलता है। मैंने अपने कोआर्डीनिटर से कहा कि बैरागीजी से कहो कि मैं उनकी प्रतीक्षा कर रहा हूँ। वह भागा-भागा गया और बैरागीजी से कहा-‘सर! आपका सखी नीचे आपका वेट कर रहा है।’ बैरागीजी की समझ में आया कि उनके काव्य की कोई प्रेमिका नीचे प्रतीक्षारत है। वे कोआर्डिनेटर के साथ तुरन्त नीचे आए और पूछा कि वह कहाँ है? कोआर्डिनेटर ने मेरी ओर इशारा करके कहा कि ये ही सखी बुलाया है। जब पूरी बात का पता लगा तो सदस्यों ने बड़ा ठहाका लगाया। परन्तु बैरागीजी ने कहा कि जो अहिन्दी भाषा-भाषी हैं, जो हिन्दी नहीं जानते और हिन्दी बोलने-सीखने, लिखने का प्रयास कर रहे हैं उनके हिन्दी प्रयोग के ऐसे ज्वलन्त उदाहरण को स्त्रीलिंग-पुल्लिंग के झंझट में फँसाकर गलत सिद्ध किया जाएगा तो हिन्दी इस देश में कभी नहीं आएगी।

दूसरी घटना मुम्बई की है। हम लोग निरीक्षण करने यहाँ महाराष्ट्र इनकम टैक्स कमिश्नर के दफ्तर में थे। सौभाग्य कहिए या दुर्भाग्य कि वहाँ के कमिश्नर बहुत अच्छे कथाकार और उपन्यासकार थे, उनका नाम मैं नहीं लूँगा। जब निरीक्षण की कार्रवाई शुरु हुई और समिति सदस्यों ने उनसे उनके कार्यालय के काम और विवरण के आधार पर प्रश्न पूछना शुरू किया तो वे इन्कमटे क्स कमिश्नर रुआब दिखाते हुए कहने लगे - ‘मैं इनकम टैक्स का काम करूँ या राजभाषा का? मुझे राजभाषा का काम मालूम है।’ इस पर मैंने बड़ी कड़ाई के साथ उस अधिकारी से कहा कि आप संसदीय समिति की अवहेलना कर रहे हैं। इन आपत्तियों के तहत यह समिति आपकी नौकरी ले सकती है, क्योंकि आप इनएफीसिऐंसी प्रदर्शित कर रहे हैं और अनुत्तरदायित्वपूर्ण जवाब दे रहे हैं। उक्त अधिकारी महोदय को कँपकपी छूटने लगी। बैरागीजी ने कहा कि आपने बहुत बड़ी गुस्ताखी की है। जब तक आप अपने को राजभाषा के दायित्वों का निर्वहन करने योग्य नहीं बना लेते, तब तक यह निरीक्षण स्थगित किया जाता है। और समिति बिना निरीक्षण किए तथाकथित साहित्यकार कमिश्नर के अनुत्तरदायित्वपूर्ण रवैये पर खेद प्रकट कर अपने लिखित नोट के साथ वहाँ से चली आई। वे अधिकारी पीपल के सूखे पत्ते की तरह काँपते रहे। कुछ ही समय में उन्हें मुम्बई की मलाईदार पदस्थापना से चेतावनी के साथ स्थानान्तरण कर दिया गया। हिन्दी के प्रश्न पर बैरागीजी कहीं चूकने को तैयार नहीं हैं।

एक बार हम लोग राजस्थान में एक कार्यालय का निरीक्षण कर रहे थे। दिसम्बर का अन्त था और नये वर्ष का आगमन था। पहली जनवरी को बैरागीजी के चुनाव क्षेत्र नीमच में निरीक्षण का कार्यक्रम रखा गया था। नया वर्ष होने के कारण दूसरे सदस्य राजस्थान से ही, नीमच के अन्तिम कार्यक्रम को छोड़कर लौट रहे थे। मुझे भी लौटना था, पर बैरागीजी का आदेशात्मक व्यंग्य- ‘रत्नाकर भाई! आप भी लौट जाइए। मेरी कांस्टीट्यूएन्सी का मामला है।’ मैंने जितनी तैयारी की थी, सब बेकार हो गई। उनके मन की वेदना और सहोदर भ्राता वाले स्नेह से वशीभूत होकर मैंने कहा-मैं नहीं जाऊँगा। मुझे लगा उस कवि हृदय के सूखते हुए धान पर पानी की बूँदे गिरने लगीं। हम अकेले सीधे उनके घर गए। वहाँ उन्होंने घर में प्रवेश करने के पहले मुझसे पूछा - ‘मेरी सबसे अच्छी कृति आपका कौन-सी लगती है?’ मैंने टालने के लिए कहा आपकी तो सभी कविताएँ अच्छी लगती हैं। उन्होंने अंगुली उठाकर जिस तरफ इशारा किया  वह उनका अपना नवनिर्मित घर था। वहीं उनके पिताजी और परिवार से मिलने का अवसर मिला। मैंने पिताजी का चरणस्पर्श किया। बैरागी वहाँ से हट गए। बैरागीजी के पिताजी ने मुझे पुत्र वत्सल प्यार देकर कहा-‘बेटा जब मैं भीख माँगता था, तब भी इस बात का ध्यान रखता था कि किसी गलत और बेईमान की भीख न लूँ। मैंने अपने बच्चों को भी यही सिखाया है।’

कितनी बड़ी बात है कि एक मँगते के घर में उत्पन्न होकर बैरागीजी ने साहित्य और जनसेवा के क्षेत्र की ऊँचाई को स्पर्श किया है। बैरागीजी के कृतित्व का यह एक आश्चर्यजनक निर्माण है।

‘खेती अपने कर्म से उत्पादन करती है और पुत्र पिता के धर्म से आगे बढ़ता है।’

आज भी मेरी आंखों में नगर पालिका नीमच में बैरागीजी की अध्यक्षता में किया गया जगमगाता अभिनन्दन कौंध रहा है।

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प्लाट 113-114
कृष्ण कुंज, लक्ष्मीनगर
दिल्ली-110092





नंदा बाबा: फकीर से वजीर
ISBN 978.93.80458.14.4
सम्पादक - राजेन्द्र जोशी
प्रकाशक - सामयिक बुक्स,
          3320-21, जटवाड़ा, 
    दरियागंज, एन. एस. मार्ग,
    नई दिल्ली - 110002
मोबाइल - 98689 34715, 98116 07086
प्रथम संस्करण - 2010
मूल्य - 300.00
सर्वाधिकार - सम्पादक
आवरण - निर्दोष त्यागी



यह किताब मेरे पास नहीं थी। भोपाल से मेरे छोटे भतीजे गोर्की और बहू अ. सौ. नीरजा ने उपलब्ध कराई।


 

 


बालकवि बैरागी: भेद खोलेंगे पत्र ही

प्रो. प्रेमशंकर रघुवंशी

(प्रेमशंकरजी के बारे में मैं कुछ नहीं जानता। हरदा में भी मेरे कोई सम्पर्क नहीं। उनका चित्र चाहिए था - सम्भव हो तो दादा के साथ। लेकिन उनसे सम्पर्क कैसे करूँ? अचानक याद आया, मेरा प्रिय राजीव रत्न जैन, हरदा में नौकरी कर चुका है। उसे सन्देश दिया। उसने ज्ञानेशजी चौबे का नम्बर दिया और इस तरह मुझे प्रेमशंकरजी और ज्ञानेशजी का चित्र मिल पाया। ज्ञानेशजी ने बताया - ‘प्रेमशंकरजी नहीं रहे। होते तो वांछित चित्र की तलाश करते।’ राजीव, हरदा में केनरा बैंक का शाखा प्रबन्धक रहा था। इन दिनों भोपाल में, सीनीयर मैनेजर के पद पर पदस्थ है। चित्र में बॉंयी आरे ज्ञानेशजी हैं और प्रेम शंकरजी दाहिनी ओर।)

मेरा दृढ़ मत है कि किसी भी रचनाकार पर कुछ कहना या लिखना हो तो, उसके सम्पूर्ण व्यक्तित्व के साथ उसके उन पत्रों में उसकी साक्षात उपस्थिति मौजूद रहती है, जिन्हें वह अपने अन्तरंगों, दोस्तों, सम्बन्धियों को लिखता रहता है। वहाँ वह बिल्कुल अनौपचारिक और निर्बन्ध होता है। क्या नहीं होता ऐसे पत्रों में? सब कुछ खुला और खिला होता है। कलावन्त के बारे में तो यह बात और भी सही है, जहाँ उसकी चेतना साकार रूप में उसके पत्रों में दिखाई देती है। शमशेर की एक कविता है -‘बात बोलेगी हम नहीं, भेद खोलेगी बात ही।’ ‘बात’ की जगह ‘पत्र’ लिखकर और इसे यूँ कह दो ‘पत्र बोलेंगे, हम नहीं, भेद खोलेंगे पत्र ही’ तो यह उक्ति श्री बालकवि बैरागी के बारे में शत-प्रतिशत सही होगी।

पत्रवीर हैं बैरागीजी। हिन्दी के आचार्य कुलपति ने अपने ‘रस रहस्य’ ग्रंथ में वीर रस का वर्णन इस प्रकार किया है-

‘युद्ध दान अरु दया, पुनि धर्म सु चारि प्रकार
अरिबल समय विभाव यह, युद्धवीर विस्तार।
कचन अरुणता वदन की, अरु फूलें सब अंग
यह अनुभाव बखानिये, सब वीरन के संग।।

आचार्य कुलपति ने वीर रस के चार प्रकार निरूपित किए हैं - युद्धवीर, दानवीर, दयावीर और धर्मवीर। यदि ये आचार्य आज होते और बालकवि बैरागी के अन्तरंग होते तो निश्चय ही वीर रस के पाँच प्रकार गिनाते और यह पाँचवाँ रस होता-पत्रवीर। वे नहीं हैं तो क्या हुआ, हम तो हैं और हम इस पाँचवें प्रकार में बैरागीजी जैसे पत्रवीर को प्रतिष्ठित-प्रवर्तित करने में संकोच नहीं करेंगे। उनके पत्रों में ‘पत्रवीर’ के सभी तत्व मौजूद रहते हैं। वीर रस का स्थायी भाव उत्साह है। आप उन्हें पत्र दीजिए और देखिए कि कैसे उत्साह से वे उत्तर देते हैं। उस पत्र में आपका पत्र उनका आलम्बन तो होगा ही, जिसके कारणवे उत्तर देंगे, लेकिन उनका पत्र मात्र उत्तर नहीं होगा। पत्रोत्तर में प्रेषक की जिज्ञासाओं का शमन करता उद्दीपन, तदनुकूल विचार सम्प्रेषण का अनुभावन और हर्ष, उत्साह, तर्क आदि विभावन के रूप में उपस्थित होंगे। वीर रस के पात्र एक दूसरे के विरोधी होते हैं, किन्तु ‘पत्रवीर’ तो एकदम स्वतन्त्र साहचर्य तथा सामंजस्य भाव से ओतप्रोत होता है।

बैरागीजी अकेले ही पत्रवीर हों, ऐसा नहीं। उनकी अन्तरंगता अपने समय के अनेक पत्रवीरों से रही है। उनमें एक नाम अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। वह है पं. भवानी प्रसाद मिश्र उर्फ मन्ना उर्फ ‘भवानी दा’। बैरागीजी उन्हें ‘भवानी दा’ के नाम से सम्बोधित करते रहे। अपनी छोटी से छोटी उलझन-सुलझन-खुशी-गम उन्हें लिखते रहे और वे उनका तुरन्त उत्तर देते रहे। बानगी बतौर भवानी भाई का एक पत्र प्रस्तुत है, जिसे बैरागीजी ने इन पंक्तियों के लेखक द्वारा सम्पादित ‘भवानी भाई’ ग्रंथ में ‘व्यक्ति व्यक्ति के बीच अपरिचय के विंध्याचल’ (पुष्ठ-169) आलेख में अपनी इस टिप्पणी के साथ दिया है -  ‘नए आदमी को भवानी दा कभी टूटने नहीं देते। मुझे बीच में निराशा का दौरा पड़ा। काफी साल पुरानी बात है। मैंने ‘दा’ को चिट्ठी लिखी कि मेरे लेखन पर फलाँ ऐसा कहता है और अमुक ऐसा  बोलता है।’ दा ने फौरन पोस्टकार्ड उठाया और उस पर लिखा - 

प्रिय बैरागी,

तुम्हारा पत्र मिला। प्रसन्न रहो। तुम जैसा लिखते हो, वैसा लिखते रहो और जैसा पढ़ते हो, वैसा ही पढ़ते रहो। नदी जब निकलती है तो यह तय करके नहीं निकलती कि वह इतनी लम्बी और इतनी चौड़ी बहेगी। उसका काम है निकल जाना और सागर की ओर सतत् बढ़ते जाना। रहा सवाल अमुक ऐसा कहता है, अमुक ऐसा बोलता है, तो एक बात सुन लो! इन आलोचकों की परवाह मत करो। धरती पर आज तक एक भी आलोचक का स्मारक नहीं बना है।

सबको अच्छा भला।

तुम्हारा
भवानी प्रसाद मिश्र

इसी तरह की बात भवानी भाई के बेटे अनुपम मिश्र ने भवानी भाई पर लिखे अपने संस्मरणात्मक आलेख ‘मन्ना: वे गीतफरोश भी थे’ में लिखा है - ‘एक बार मैं चाय देने मन्ना के कमरे में गया तो सुना, वे किसी से कह रहे थे - ‘मूर्ति तो समाज में साहित्यकार की ही खड़ी होती है, आलोचक की नहीं।’ ये सम्भवतः बैरागीजी ही रहे होंगे। मुझे बैरागीजी की इस मनोदशा की हल्की-सी जानकारी भवानी भाई ने तब दी थी। 

इस सन्दर्भ में एक वाकया तो मेरे सामने का ही है। तब मैं विदिशा में शिक्षक था। (वहाँ 62 से 77 तक रहा) वहाँ तिलक चौक पर एक विराट कवि सम्मेलन गिरीश वर्मा (तब के नगरपालिका अध्यक्ष) ने करवाया था। उस कवि-सम्मेलन के संचालन का भार मुझे सौंपा था। उन्हीं दिनों डॉ. विजयबहादुर सिंह वहाँ के एस. एस. एल. जैन महाविद्यालय के हिन्दी विभाग में नियुक्त होकर आए थे। मैंने और मेरे साथी रघुनाथ सिंह ने यह तय किया कि अपार भीड़ देखते हुए हम व्यवस्था का काम देखें। तो हम लोग इस काम में लग गए और संचालन का भार विजयबहादुर सिंह को सौंप दिया। कवि-सम्मेलन शुरु हुआ। पहला दौर समाप्त हो चुका, तब तक बैरागीजी नहीं आ पाए थे। सारा समूह बैरागीजी को सुनने उमड़ा था। उनकी ट्रेन काफी विलम्ब से आई। वे दूसरे दौर के प्रारम्भ होते वक्त अवतरित हुए तो विजयबहादुर सिंह ने एक आलोचक के रूप में टिप्पणी करते हुए उन्हें मंच पर आमन्त्रित किया। जनता गद्गद। बीच-बीच में बैरागीजी की टिप्पणियाँ भी होतीं और कविता पाठ भी। उनकी टिप्पणियों पर विजयबहादुर भी टिप्पणी करने लगे और नौबत यहाँ तक आ गई कि हिन्दी साहित्य के इतिहास को पढ़ाने वाले शिक्षक विजयबहादुर सिंह ने उन्हें वीरगाथाकाल, जिसे चारणकाल भी कहते हैं, से जोड़कर टिप्पणी देना शुरु कर दिया तो कवि-सम्मेलन का मजा ही बिगड़ गया और कवि सम्मेलन  समाप्ति की घोषणा भी संचालक ने कर दी तो जनता बिफर पड़ी। जनता बैरागी जी को सुनना चाहती थी। इसके बाद मंच से घोषणा की गई कि शीघ्र ही बैरागीजी अमुक जगह कविता सुनाएँगे। आप लोग वहाँ आइए। लोग गए और उन्हें सुबह तक सुना। इस सारी घटना के दौरान मजाल है कि बैरागीजी को तनिक भी तैश आया हो।

यहाँ आते-आते मुझे बैरागीजी की कुछ प्रेरक एवं प्रकाशन योग्य बातें याद आ रही हैं, किन्तु मुझे उनके ‘पत्रवीर’ पक्ष पर ही आरूढ़ रहना चाहिए ताकि उनके व्यक्तित्व के सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण पक्ष की बानगी दी जा सके। अब मैं अपनी तरफ से बहुत कम बोलते हुए उनके कुछ पत्र देना ज्यादा मुनासिब समझता हूँ ताकि - ‘बैरागी के पत्र बोलें, हम नहीं। भेद खोलें पत्र ही।’

बात उन दिनों की है जब भवानी प्रसाद मिश्र के सम्मान समारोह के संयोजन में सिवनी मालवा (होशंगाबाद, म.प्र.) के लोग एकजुट होकर व्यस्त थे। मुझे इसका संयोजन सौंपा था समिति ने। तो सारे पत्राचार और ‘भवानी भाई’ ग्रंथ से लेकर स्मारिका तक के काम में लगा था। इसी प्रसंग पर बैरागीजी से डटकर पत्राचार प्रारम्भ हुआ और बनते-बनते ऐसे सम्बन्ध बन गए कि वे मेरे अग्रज और मैं उनका अनुज हो गया। उस काल के पत्राचार में से उनके ये कुछ पत्र यहाँ दे रहा हूँ। 

बैरागीजी को भवानी भाई के सम्मान पर्व पर आना ही था, लेकिन लगातार तय हो होकर समारोह की तिथियाँ बदलती रहने के कारण वे अन्यत्र व्यस्त होते रहे। इस कारण समारोह में नहीं आ सके, जिसका उन्हें कितना मलाल हुआ होगा, इसका अन्दाज उनके इस पत्र से लगाया जा सकता है। उन्होंने यह पत्र अपनी कवि-सम्मेलन की यात्रा के दौरान 13-11-73 को नागपुर से उस वक्त लिखा जब उन्हें वहाँ सिवनी मालवा के समारोह के बारे में विस्तार से जानकारी मिली। लिखा -

प्रिय भाई रघुवंशीजी

सादर नमस्कार

3/11 का आपका पत्र कल यहाँ मिल पाया है। इस बीच खामगाँव में विनोद निगम मिल गए थे। समारोह के समाचार सब दूर से प्रेरक हैं। बार-बार बधाई। मैं यदि आने की स्थिति में होता तो बराबर आ ही जाता। शायद आप विश्वास नहीं करेंगे, पर इस समय फरवरी’ 74 का एडवांस मैं ले रहा हूँ। हाँ, मैं सीधा सपाट आदमी हूँ, इसलिए सफाई देना ठीक नहीं समझता। क्या आप ऐसा समझते हैं कि सिवनी मालवा मैं जानबूझकर नहीं आया? ऐसा कहने और समझने वाले लोग अपने संस्कारों का परिचय मात्र देते हैं। मैं विश्वास करता हूँ कि आपने ऐसा नहीं समझा होगा। भवानी दादा के प्रति मेरा रोम-रोम कृतज्ञ है। आप इस आयोजन के द्वारा मेरे लिए वन्दनीय हो गए हैं। जब मिलेंगे तो आपको मेरी मनःस्थिति का अनुमान लग सकेगा। आपकी प्रचण्ड संकल्प शक्ति की दिव्यता मैं सह नहीं सकूँगा। खैर।

ग्रंथ मुझे नहीं मिला है। उसका बेरंग पार्सल कर दो या डाकखर्च सहित वीपीपी कर दो। मैं ‘भवानी भाई’ ग्रंथ के प्रति आतुर हूँ।

भाई
बालकवि बैरागी

समारोह को लेकर कई पत्र आए, लेकिन बैरागीजी का यह पत्र मेरे मन पर छाया रहा। ढेर सारे पत्रों के उत्तर देने और समारोह की थकान मिटाने के बाद जब मैं अपनी शिक्षक की नौकरी पर बलड़ी (बड़केश्वर, हरसूद, म.प्र. जो अब पुनासा बाँध के कारण जल समाधि ले चुका है) गया तो वहाँ खुद को काफी उखड़ा-उखड़ा-सा महसूस किया। वजहें और भी रही होंगी। मुझे लगा कि नौकरी छोड़ दी जाए। इसके लिए मन में त्यागपत्र देने का तीव्र विचार आया। सोचा इसके पूर्व बैरागी जी से सलाह ले ली जाए। उन्हें उनके पत्र का उत्तर भी देना था। दोनों काम एक साथ कर लिए जाएँ। सो मैंने उन्हें एक लम्बा पत्र लिखा, जिसके उत्तर में बैरागीजी ने जो पत्र दिया, वह प्रस्तुत है। यदि यह पत्र यथासमय नहीं आता तो मैं त्यागपत्र दे ही चुका होता। बैरागीजी ने लिखा -

मनासा (म.प्र.)
जिला मन्दसौर
10 दिसम्बर, 1973

प्यारे भाई

नमस्कार

आपका लम्बा पत्र आज ही मिला। आभारी हूँ। इस स्नेह का कोई प्रतिदान या प्रत्युत्तर मेरे पास नहीं है। बहुत-बहुत धन्यवाद। इस बीच मैं दिल्ली हो आया, पर दादा वहाँ नहीं थे। तब मध्य प्रदेश में थे। उनसे मिलने का मन बहुत था, फिर कोशिश करूँगा।

हाँ, मुझे ‘भवानी भाई’ ग्रंथ नहीं मिला है। उसको प्राप्त करने के लिए क्या किया जा सकता है। शायद उसमें मेरा लेख होगा। मुझे रास्ता सुझाएँ ताकि मेरी लायब्रेरी में मैं उसे पा सकूँ। सोनी सा’ब को पत्र दूँगा। मुझे अच्छा लगा कि आप उनके प्रति इतने कृतज्ञ हैं। शायद यही विनम्रता किसी सर्जक का सम्बल होती है।

समय का इन्तजार करें। नौकरी अभी कदापि नहीं छोड़ें। मैं मानता हूँ और जानता हूँ कि नौकरी छोड़ने के बाद आप और बड़ा काम करने का साहस जुटा सकेंगे, पर छोटे काम को यूँ छोड़ देना भी अच्छा नहीं है। त्रिभुज के एक कोण बने रहो, किसी दिन एक कोण टूटा कि तीनों भुजाएँ सीधी रेखा में खिंच जाएँगी अपने आप।

भाई
बालकवि बैरागी

इस बीच मेरे द्वारा सम्पादित ग्रंथ ‘भवानी भाई’ की प्रति उन्हें मिल चुकी तो उस पर प्रतिक्रियास्वरूप लिखा उनका यह पत्र पेश है -

मनासा (म. प्र.)
4 जनवरी, 1974

भाई श्री रघुवंशीजी

सादर नमस्कार

नव वर्ष का अभिवादन लो। हार्दिक शुभ कामना और बधाइयाँ।

एक सप्ताह की यात्रा से कल ही लौटा ‘भवानी भाई’ (ग्रंथ) की मेरी प्रति तैयार मिली। यार! मजा आ गया। एक बढ़िया काम हो गया। सब कुछ श्रेष्ठ है। सम्पादन से लेकर सम्पादित तक सब मनोहर है। आपका अतिरिक्त अभिनन्दन।

आपका सम्पादकीय आलेख तो भवानी भाई पर पूरा ‘पेपर’ है। दस्तावेज हो गया। मिलने पर मुँह मीठा करवा दूँगा।

कोई भी व्यक्ति हिन्दी की ‘नई कविता’ या ‘नई कविता आन्दोलन’ के नीरस रेगिस्तान में साँस लेने को आश्वस्त होकर इस ‘ओसिस’ में सहारा ले सकता है। अनास्था और विक्षिप्त कलमों के बीहड़ इस में भवानी भाई समूची काव्य मेधा का उद्धार करनेवाले अवतार निकले। वाकई वे कहीं-कहीं अलौकिक हैं।

इधर ग्रंथ की खपाई का वातावरण बना कर समाचार दूँगा। सबको यथायोग्य ।

भाई
बालकवि बैरागी

लगे हाथ 22-2-85 को भवानी भाई की मृत्यु के बाद उनसे अपना शोक बाँटने के लिए लिखे मेरे पत्र का जो उत्तर उनने दिया, वह भी प्रस्तुत कर दूँ -

नई दिल्ली
06-04-85

बालकवि बैरागी
सदस्य लोकसभा
(मन्दसौर जावारा संसदीय क्षेत्र )

आदरणीय श्री प्रेमशंकरजी

सादर प्रणाम

पत्र मिला। आभारी हूँ।

आपके पत्र ने मुझे एक लम्बी उदासी दी है। पूज्य मन्ना (भवानी दादा) के साथ जीना बहुत आसान था, पर अब उनको जीना बहुत मुश्किल है। रह-रहकर एक अनमनापन ज्वार की तरह आता है और मुझे लपेटकर चला जाता है। बड़ा कठिन हो गया है इस महानगर में सिर टिकाने को सतपुड़ा का सीना ढूँढना। कहीं कोई नहीं। आप तो मुझे अग्रज मानकर कुछ आश्वस्त होने का बहाना भी कर रहे हैं, लेकिन मैं किससे, क्या कहूँ? कुछ समझ नहीं पड़ता। प्रभु न जाने किस निमित्त हमें बनाए बैठा है?

और सब यथावत है। सभी को मेरा आदर।

भाई
बालकवि बैरागी

बैरागीजी का व्यक्तित्व ही ऐसा है कि वे आपको अपने अन्दर आपकी क्षमता से कहीं ज्यादा धँसने की छूट देते हैं। यदि आप किसी मुद्दे, किसी बात या किसी विचार से असहमत हैं तो भी वे बिना आग्रह, दुराग्रह, पूर्वाग्रह और अनुग्रह के आपके आत्मीय रहेंगे ही। ऐसे मौकों पर वे आपकी उलझनों को सुलझाने काभरसक प्रयास भी करेंगे और चाहेंगे कि आप उनके सामने खुलकर अपनी बात रख सकें। 1980 में वे मध्य प्रदेश सरकार के खाद्य एवं नागरिक आपूर्ति राज्य मन्त्री थे। तब मैंने उनके बारे में छपी अनर्गल खबरों को अखबार में पढ़कर लिखा तो इतनी व्यस्तता के बावजूद उनका यह पत्र आया -

बालकवि बैरागी
राज्य मन्त्री
खाद्य एवं नागरिक आपूर्ति

भोपाल
26-03-81

आदरणीय प्रो. प्रेम भाई

सादर अभिवादन।

आपका पत्र मिला। धन्यवाद।

समाचारपत्रों से जब आप घटनाओं का पारदर्शन करेंगे तो कई धब्बे रह जाएँगे। मेरे प्रति आपकी आत्मीयता कहीं आपको दूसरों के प्रति अनात्मीय नहीं बना दे, यह डर बना रहता है। अस्तु, जब आप पद को बड़ा मानेंगे तो बहुत घाटे में रहेंगे। छोड़िए भी। जब भी भोपाल पधारें, अवश्य मिलें। मुझे खुशी होगी।

सबको मेरा नमस्कार।

भाई

बालकवि बैरागी

ये कुछेक पत्र हैं, जिन्हें बिना काट-छाँट और सम्पादन के यथावत देकर उनके पत्र-व्यक्तित्व के परिचय की बानगी दी है। जिन लोगों ने बैरागीजी को काव्य पाठ करते हुआ सुना हो या बातचीत करते हुए अथवा उनकी रचनाएँ पढ़ते हुए उन्हें आत्मसात किया हो या विधानसभा और लोकसभा में बोलते हुए देखा हो, वे मेरी इस बात से अवश्य सहमत होंगे कि इन सब रूपों में वे एक प्रेरक की भूमिका अदा करने की नैसर्गिक कला में माहिर हैं और इस कला का सर्वाधिक समर्थ रूप किसी भी व्यक्ति का उसके द्वारा लिखा हुआ पत्र ही होता है। उनका खाना, पीना, उठना, बैठना, देखना, सुनना, चलना, फिरना, कहना, कहलाना सब मानो पत्रमय होता है। अद्भुत प्रेषणशैली उनकी जुबान और कलम दोनों से झरती है। बैरागीजी के साहित्य का सर्वाधिक विचार एवं भाव सम्पन्न रूप उनके पत्रों में व्याप्त है। 

उन्होंने असंख्य पत्र लिखे हैं, इतने कि एक जगह एकत्र कर लिए जाएँ तो उनसे कई मर्तबा उनका तुलादान हो सकता है। मेरा आग्रह है कि कोई न कोई उनके पत्रों को एकत्र करने का संकल्प लेकर उनपर काम करे। ऐसा करने वाले जिज्ञासु को उनके व्यक्तित्व की अनेक परतों को उद्घटित करने का मौका तो मिलेगा ही, इसके अलावा उनके पत्रों के माध्यम से आजादी के जवान होते जा रहे उस काल से आज तक के भारतीय समाज में घटित होते रहे प्रत्येक साहित्यिक, राजनीतिक, सामाजिक स्पन्दन का भी प्रामाणिक दस्तावेज पेश करने का मौका मिल सकेगा। 

बैरागीजी के पत्र मात्र खैरियत के आदान-प्रदान की इच्छा से लिखे पत्र ही नहीं होते, उनमें एक सजग नागरिक, एक जाग्रत सर्जक, एक समाज सुधारक, एक गाँधीवादी विचारक और अवाम के सुख-दुःख में शरीक एक फिक्रमन्द आदमी की वे तमाम चिन्ताएँ होती हैं, जिनमें वे आपको भी शामिल कर लेते हैं। उनके पत्रों से प्रेरणा की ऐसी खुशबू झरती है, जो आपको शानदार आदमी के सौरभ से भर देती है-जरा पत्राचार करके तो देखिए उनसे!

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प्रताप कालोनी (बाफना चाल के पीछे)
हरदा (म. प्र.) 461331
31.07.2008



नंदा बाबा: फकीर से वजीर
ISBN 978.93.80458.14.4
सम्पादक - राजेन्द्र जोशी
प्रकाशक - सामयिक बुक्स,
          3320-21, जटवाड़ा, 
    दरियागंज, एन. एस. मार्ग,
    नई दिल्ली - 110002
मोबाइल - 98689 34715, 98116 07086
प्रथम संस्करण - 2010
मूल्य - 300.00
सर्वाधिकार - सम्पादक
आवरण - निर्दोष त्यागी




यह किताब मेरे पास नहीं थी। भोपाल से मेरे छोटे भतीजे गोर्की और बहू अ. सौ. नीरजा ने उपलब्ध कराई।