बालकवि बैरागी: एक नायाब इंसान


 प्रभाकर श्रोत्रिय

शीर्ष स्थानीय पदों पर बैठकर कैसे अहंकारविहीन रहा जा सकता है, यह सीखना हो तो बैरागीजी जैसे उदाहरण कम मिलेंगे। वे मध्य प्रदेश में मन्त्री रहे हैं, केन्‍द्र में मन्त्री स्तरीय और सांसद रहे हैं। देश की अनेक नीति निर्धारिक समितियों में रहे हैं, लेकिन उनसे मिलकर किसी आत्मीय को यह बोध नहीं हो सकता कि वह बालकवि से कमतर है। यह एक ही गुण बड़प्पन कहने के लिए काफी है।

बालकवि को सहजता और सहदयता की यह शिक्षा जीवन की व्यावहारिक पाठशाला में मिली है। उन्होंने इसे अपने जीवन में अनायास ही उतार लिया है। वे अपना अतीत और संघर्ष भूले नहीं हैं। प्रायः कहा जाता है कि संभ्रान्त संस्कार मनुष्यों को अपने बड़प्पन में सहज बनाते हैं, परन्तु घोर दरिद्रता में बचपन बिताकर, कई तरह के उत्पीड़नों और शोषणों से गुजर कर जो मनुष्य यश, पद या धन पाता है, वह आमतौर पर अपनी वृत्ति में बहुत कठोर और संकीर्ण हो जाता है। बैरागी ने अपने जीवन में सक्रिय रूप से इस वृत्ति का प्रत्याख्यान किया है। उन्होंने अपने जीवन की तमाम नकारात्मक स्थितियों को सकारात्मक बनाया है। स्मृति उनके यहाँ गन्धवान होकर आई है। सौ. भाभी भी ठीक उनकी तरह अनुराग, स्नेह और सहजता से भरी हैं। दोनों को मैंने हर स्थिति में प्रसन्न देखा है।

मैं बैरागी से अपने विद्यार्थी काल से परिचित हूँ। वे तभी एक लोकप्रिय कवि हो गए थे। मेरी और उनकी आयु में कोई दस वर्षों का अन्तर है, परन्तु उनके लिए जैसे यह अन्तर कोई अन्तर ही नहीं है। इसके अलावा मेरी और उनकी प्रवृत्तियों में भी अन्तर है-वे भीतर की तरह बाहर भी खुले हैं-जबकि मेरे द्वार अन्दर की ओर हैं। एकान्तिकता, मौन और शायद विशिष्टता का बोध भी मेरे भीतर है। फिर भी बालकवि के स्नेह ने मुझे बाँधा है और अपने से एक आकर्षक भिन्नता के कारण मैं उनकी ओर दिलचस्पी और विस्मय से देखता हूँ। दूरियाँ पाटने का एकमात्र श्रेय बैरागी को है। ऐसा लगता है कि जैसे किसी समवयस्क और कभी-कभी अपने से छोटे किसी मित्र के पास आए हों। उनकी सार-संभाल और चिन्ता भी वैसी ही है। मैंने उन्हें एक जनकवि के रूप में यश की सीढ़ियाँ चढ़ते देखा है। एक मन्त्री, एक सांसद और एक अनुभव सम्पन्न व्यक्तित्व के रूप में उन्होंने मुझे हमेशा इस कदर आकृष्ट किया है कि मैं उनके भीतर कोई दुर्गुण ही नहीं देख पाता और जब भी कोशिश करता हूँ, तो मुझे अपने ही दुर्गुण दिखाई देते हैं। उनके आचरण और व्यवहार में कभी कोई अन्तर नहीं आया। जीवन के लगभग 50 साल का सम्बन्ध शायद कुछ गोपनीय नहीं रहने देता। मैंने देखा कि बालकवि जैसे-जैसे भरते गए, वे अधिक आर्द्र, उदार और गहन हुए हैं, अपनी तमाम विशेषताओं में।

मेरे लिए अकल्पनीय था कि बैरागी मुझे अपनी कोई पुस्तक भेंट (समर्पित) करते। मेरे और उनके बीच साहित्यिक मेल शायद ही मिल सका हो। फिर भी उन्होंने अपनी एक पुस्तक श्री वेदप्रताप वैदिक के साथ मुझे भी भेंट (समर्पित) की है। वैदिकजी से तो बैरागीजी का जो अनुराग है, वैसा कम मित्रों के बीच होता होगा। वे रात-दिन, सुख-दुःख के साथी रहे हैं, इसलिए उन्हें पुस्तक भेंट (समर्पित) करना तो समझ में भी आता है, पर मुझ जैसे एकान्तिक, इकहरे आदमी को भेंट (समर्पित) करते हुए उन्होंने यह जरूर लिख ही दिया कि इनमें से कोई मेरी पुस्तक नहीं पढ़ेगा। ऐसे अपाठकों या कुपाठकों को पुस्तक भेंट करना अतिरिक्त उदारता नहीं तो क्या है? वैसे यह भी सही है कि मैंने और वैदिकजी ने उनके बाद के वाक्य को सही नहीं होने दिया या शायद उनकी कविता पुस्तक ने हम लोगों को ही गलत साबित कर दिया। बैरागीजी जानते हैं कि ‘प्रभाकर भाई’ उन अल्प परिचित, अल्पसंख्यकों की श्रेणी में आते हैं, जिनका मंचों से और लोकप्रियता से परहेज होता आया है। बावजूद इसके उन्होंने अपने प्यार में कोई कोताही नहीं की। वैसे यह प्रगाढ़ता यदि अनुत्तरित रह गई हो तो इसके लिए मैं ही अपने को अपराधी मानूँगा।

यह ठीक है कि साहित्य के तथाकथित आभिजात्य ने मुझे उनके साहित्य से दूर रखा और उनसे हार्दिक प्रेम करने और आदर करने के बावजूद मेरे संकुल मुख से कभी उनकी कविताओं की प्रशंसा नहीं निकली, हालाँकि उनके गद्य को मेरे मन ने अकसर सराहा है। इतना सहज और बहता हुआ, लोक की तरलता में भीगा हुआ गद्य कम ही देखने को मिलता है। 

इसका यह अर्थ नहीं कि उनकी प्रभावशाली, ओजस्वी कविताओं ने मुझे रोमांचित नहीं किया हो। और मैं यह भी मानता हूँ कि कवि सम्मेलन साहित्य के निरन्तर सहायक अभियान रहे हैं। वे गहन साहिल तक पहुँचाने वाले पुल हैं। तथाकथित गम्भीर साहित्य लिखने वालों को पाठक और वाचक उपलब्ध कराने का श्रेय कवि सम्मेलन के कवियों को देना चाहिए। पर यहीं हमारे बहुत से मानक रचनाकार चूक गए हैं। उल्टे उन्होंने कवि सम्मेलनों के विपरीत, आत्मघाती वातावरण भी बनाया है। आज कवि सम्मेलनों की जो दुर्दशा हुई है, उसमें इन रचनाकारों की भूमिका का नोटिस लिया जाना चाहिए। बालकवि बैरागी कवि सम्मेलनों के उस उज्ज्वल दौर के कवि हैं, जब मंचों पर ऐसे तमाम कवि एकत्र होते थे, जो पढ़े भी जाते थे और सुने तो जाते ही थे। बालकवि के गीतों का प्रवाह, ओज और माधुर्य, बल्कि उनसे उत्पन्न एक अपील हजारों हजार श्रोताओं को एक साथ मुग्ध करती रही है। आज वे कवि सम्मेलनों की दुर्गति से स्वयं भी बहुत क्षुब्ध होते हैं।

बैरागी भले कितने ही पदों पर रहते आए हों, वे मूल रूप से कवि हैं, अपने सम्पूर्ण व्यक्तित्व में। वे कभी-भी कहीं भी अपने इस रूप को बिसार नहीं पाते। यदि कोई उनके राजनीतिक जीवन में कवित्व की उपस्थिति पर शोध करे तो एक बड़ा ही सुन्दर तथ्य निकल कर आएगा।

बैरागीजी की स्मृति विलक्षण है। उम्र के आठवें दशक में भी यह स्मृति उनके साथ यथावत बनी हुई है। देश-विदेश के अनगिनत संस्मरण उनके पास हैं। वे अपने मिलनेवाले सैकड़ों लोगों को अपने नाम और पारिवारिक पृष्ठभूमि के साथ जानते हैं। उनके संस्मरणों को सुनना बड़ा ही रोचक अनुभव है। इन्हें वे अपने कवित्व और फक्कड़पन के समावेश से, घटित से अधिक मार्मिक बना देते हैं। बालकवि जीवन के प्रति खुले, लेकिन गम्भीर व्यक्ति हैं। उन्होंने बहुत पढ़ा और उससे ज्यादा गुना है। ज्ञान को अनेक स्रोतों से प्राप्त कर सकने की प्रतिभा उन्हें प्राप्त है। उनके परिचयों और परिचित संसार के आयाम इतने विस्तृत और विविध हैं कि देखते ही बनता है। प्रधानमन्त्री से लगाकर पान वाले तक उनका संचार है। मैंने उनसे कई बार कहा कि वे अपने संस्मरण लिपिबद्ध कर लें या करवा लें, पर अपने प्रति लापरवाही उनमें अपने गुरु शिवमंगल सिंह सुमन की तरह ही है। उनकी एक पुस्तक ‘मंगते से मिनिस्टर’ न जाने कहाँ गुम हो गई या नष्ट हो गई। ऐसी महत्त्वपूर्ण पुस्तक प्रकाशित होती तो अनेक लाचारों, दुखियारों को आत्मबल और प्रेरणा मिलती।

बातें मन में पैदा होती ही जाती हैं। उनसे एक मुलाकात का ब्यौरा दिया जाए तो वह एक लेख के कलेवर से बड़ा ही होगा। ऐसे में मैं इतना ही कहना चाहता हूँ कि बैरागी जैसे कवि हदय और सहिष्णु, गम्भीर और निरभिमान, खुले, खिले तथा एक नितान्त योग्य, लोकप्रिय व्यक्ति और कवि का मिलना दुर्लभ है। उनसे परिचय और सान्निध्य मैं अपने लिए सौभाग्य मानता हूँ।

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(प्रभाकरजी अब हमारे बीच नहीं हैं। 78 वर्ष की आयु में, दिनांक 15 दिसम्बर 2016 को, दिल्ली के सर गंगाराम अस्पताल में उन्‍होंने अन्तिम सॉंस ली।)

पुस्तक में उपलब्ध, प्रभाकरजी का पता -
ए-601, जनसत्ता सहकारी आवास
सेक्टर-9, वसुन्धरा, गाजियबाद-201012






नंदा बाबा: फकीर से वजीर
ISBN 978.93.80458.14.4
सम्पादक - राजेन्द्र जोशी
प्रकाशक - सामयिक बुक्स,
          3320-21, जटवाड़ा, 
    दरियागंज, एन. एस. मार्ग,
    नई दिल्ली - 110002
मोबाइल - 98689 34715, 98116 07086
प्रथम संस्करण - 2010
मूल्य - 300.00
सर्वाधिकार - सम्पादक
आवरण - निर्दोष त्यागी


यह किताब मेरे पास नहीं थी। भोपाल से मेरे छोटे भतीजे गोर्की और बहू अ. सौ. नीरजा ने उपलब्ध कराई।  

 


2 comments:

  1. बैरागी जी की कविताएं बालपन में बहुत पढ़ी थीं लेकिन उनके विषय में आज ही जाना। यह जानकर दुख हुआ कि बैरागी जी एवं श्रोत्रिय जी, दोनों ही अब नहीं रहे। दोनों को ही नमन।

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  2. बालकवि बैरागी जी के व्यक्तित्व और कृतित्व से परिचित कराने के लिए हार्दिक आभार! 🙏❗️

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