विनीत नारायण बनाम देवकीनन्दन ठाकुर


एक मित्र ने ‘जनसत्ता’ ई-पेपर की एक कतरन मुझे भेजी है। पुरानी है। इसी 5 जुलाई की है। इसमें देवकीनन्दन ठाकुर कह रहे हैं कि भाजपा की पूर्व प्रवक्ता नूपुर शर्मा के समर्थन में कुछ कहने पर, उन्हें (देवकीनन्दन ठाकुर को) उनका सर कलम हो जाने का भय है।

मैं देवकी नन्दनठाकुर को और उनके बारे में नहीं जानता
खबर पढ़कर गूगल पर तलाश किया तो मालूम हुआ कि वे तो अन्तरराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त कथाकार हैं! देश-विदेश में भागवत कथा सुनाते हैं। खबरवाला बयान भी उन्होंने कनाडा से लौटने के अगले दिन, न्यूज18 पर एक परिचर्चा में दिया था। 

फिर मैंने ढूँढ कर उनके प्रवचनों के कुछ वीडियो देखे/सुने। प्रभावी वक्ता हैं। निश्चय ही श्रोताओं का मन मोह लेते होंगे। ‘गीता’ उनका प्रिय ग्रन्थ है। कथा तो भागवत-पुराण की सुनाते हैं किन्तु ‘गीता’ से उद्धरण खूब देते हैं। ‘कर्मण्येवाधिकारस्तु मा फलेषु कदाचन’ उनका प्रिय सूत्र है। मैं अनुमान कर रहा हूँ कि देवकीनन्दन ठाकुर देश-विदेश में धर्म-ध्वजा फहराते हैं। ‘गीता’ उनका प्रिय ग्रन्थ है। तो मृत्यु की निश्चितता, देह की नश्वरता की बात तो करते ही होंगे। योगीराज कृष्ण को उद्धृत करते हुए ‘तू कौन होता है किसी को मारनेवाला? तू क्या, किसी को मारेगा? जिन्हें मारने के विचार से विचलित हो रहा है, वे तो पहले से ही मरे हुए हैं।’ जैसे वाक्य सुनाते ही होंगे। ‘हानि लाभ, जीवन मरण, जस अपजस विधि हाथ’ जैसे उद्धरण उच्चारते ही होंगे। लोगों को, स्वयम् को प्रभु के श्री चरणों में समर्पित कर, प्रभु-स्मरण करते हुए, निर्भय हो कर अपना कर्म करने का धर्मोपदेश भी देते ही होंगे।

लेकिन खबर पढ़ने के बाद, देवकीनन्दन ठाकुर के बारे में गूगल-ज्ञान प्राप्त करने के बाद पहली बात मेरे मन में जो आई वह यह कि उनकी सारी बातें ‘पर उपदेश कुशल बहुतेरे’ से अधिक कुछ नहीं हैं। उन्हें अपनी कही बात पर भरोसा तो दूर की बात रही, न तो अपने धर्म पर भरोसा है, न अपने ईश्वर पर न ही गीता-सन्देश पर। वे तो मौत के भय से थरथर काँपनेवाले एक सामान्य मनुष्य से अधिक कुछ भी नहीं है। यदि उन्हें अपने ईश्वर पर रंच मात्र भी भरोसा होता तो वे अपना सर कलम कर देने की धमकी से दहशतजदा नहीं होते। 

देवकीनन्दन ठाकुर का मृत्यु-भय-जनित वक्तव्य जानकर मुझे पत्रकार विनीत नारायण याद आ गए। आज की पीढ़ी विनीतजी के बारे में शायद ही जानती हो। भारत में ‘खोजी-पत्रकारिता’ के अलमबरदार के रूप में जाने जानेवाले विनीतजी मूलतः ‘बृजवासी’ हैं। विनीतजी ने 1990 के ‘जैन डायरी हवाला काण्ड’ से दुनिया भर में हंगामा मचा दिया था। राजनेताओं और आतंकियों के भ्रष्टाचारी गठजोड़ को उजागर करनेवाले इस खुलासे के कारण 1996 में पक्ष-प्रतिपक्ष के कई राजनेताओं, केन्द्रीय मन्त्रियों, मुख्य मन्त्रियों, राजपालों, अफसरशाहों को भ्रष्टाचार के लिए आरोपित किया गया था।

इन्हीं विनीत नारायणजी को हम लोगों ने 1997-98 में ग्रीष्मकालीन व्याख्यानमाला में रतलाम बुलाया था। उन्हें रतलाम के सर्किट हाउस में ठहराया गया था। हम लोग जब उनसे शिष्टाचार भेंट करने गए तो देखा कि वे सर्किट हाउस के, पिछलेवाले खुले बरामदे में एक कुर्सी पर, ध्यान मुद्रा में बैठे, जपनी में माला जप/गिन रहे हैं। (जपनी को शायद गौमुखी और सुमरिनी भी कहते हैं।) हमारी आहट अनुभव कर उन्होंने आँखें खोलीं। हम सबके अभिवादन का उत्तर दिया। उनका माला-जाप बाधित न हो, इस विचार से हम लोग चुपचाप उनके आसपास की कुर्सियों पर बैठ गए। हमें चुप देख कर उहोंने ही बात शुरु कर दी। लेकिन उनका माला जपना/गिनना बन्द नहीं हुआ। हमसे बातें और माला-जाप, साथ-साथ करते रहे। ऐसा मैंने पहली बार देखा था। वर्ना, बात करते हुए माला जाप सामान्यतः स्वतः रुक जाता है। किन्तु विनीतजी दोनों काम सहज भाव से कर रहे थे। शायद यह उनके अभ्यास में हो गया होगा। जब उन्होंने अपनी ओर से संवाद शुरु किया तो हम लोग भी सहज भाव से, खुलकर बातें करने लगे। बातों ही बातों में मालूम हुआ कि वे कृष्ण भक्त हैं और जब भी सुविधा, समय और अवसर मिल जाता है तो कृष्ण नाम का जाप शुरु कर देते हैं। गोया, कृष्ण उनकी साँसों में बसे हुए थे। 

रात को उनका व्याख्यान हुआ। आयोजन श्री गुजराती समाज के सभागार में था। विनीतजी लगभग एक घण्टा बोले। व्याख्यान के बाद श्रोताओं के प्रश्नों का सत्र भी रखा गया था। श्रोताओं ने प्रश्न पूछने शुरु किए। विनीतजी प्रत्येक प्रश्न का पूरा-पूरा उत्तर दे रहे थे। इसी क्रम में एक प्रश्न आया - ‘हवाला काण्ड में तो बड़े-बड़े, नेता, मन्त्री, डॉन-माफिया शामिल थे। आपको उनसे डर नहीं लगा?’ विनीतजी मानो इस प्रश्न की प्रतीक्षा कर रहे थे। उनका जवाब कुछ इस तरह था - “क्यों नहीं लगा? लगा। बहुत डर लगा। मैं भी बाल-बच्चोंवाला आदमी हूँ। फिर, घरवालों ने, चाहनेवालों ने और दोस्तों ने भी खूब डराया। घर से जब भी निकलता तो लगता, अब जिन्दा घर नहीं लौटूँगा। पैदल जा रहा होऊँ या किसी सवारी पर, मुझे लगता, मुझे मारनेवाल मेरे आसपास ही हैं। मेरा पीछा कर रहे हैं। मैं इतना डर गया कि मेरा घर से निकलना धीरे-धीरे बन्द सा हो गया। लेकिन मेरा तो सारा काम ही घर से बाहर का! अब, घर में रहूँ तो काम कैसे करूँ? डर में घबराहट भी शामिल हो गई। मैं बहुत परेशान हो गया। इसी परेशानी में एक दिन अचानक मेरे अन्दर से आवाज आई - ‘अरे! मैं तो कृष्ण भक्त हूँ! मैंने तो खुद को कृष्ण के हवाले कर रखा है! फिर मैं क्यों डर रहा हूँ?’ मुझे बरबस बृज-लोकोक्ति याद हो आई - ‘राखे कृष्णा, मारे सै? मारे कृष्णा, राखे सै?’ (यदि कृष्ण मेरे रक्षक हैं तो मुझे कौन मार सकता है? और यदि कृष्ण ने मेरा मरण तय कर दिया है तो मुझे कौन बचा सकता है?) यह याद आते ही मेरा डर काफूर हो गया। उस पल के उस हजारवें हिस्से में ही मैं ताजादम हो गया और जैसा बैठा था वैसा ही घर से निकल पड़ा।”

बातें तो उसके बाद भी बहुत हुईं। लेकिन यहाँ अब उनका कोई मतलब नहीं। 

विनीत नारायणजी की बात को जब देवकीनन्दन ठाकुर की बात से जोड़ कर देखा तो हँसी आ गई। कृष्ण जिसके जीवनाधार हों उसे क्या भय? लेकिन कृष्ण जिसके लिए जीविका-व्यापार हो उसे तो कृष्ण भी शायद ही भय मुक्त कर सकें। 

भक्त और भक्ति-व्यापारी सर्वथा अलग-अलग होते हैं। हम ही उनमें अन्तर नहीं कर पाते और छले जाते हैं।

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(दोनों चित्र गूगल से साभार।)  


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