राष्ट्रकवि भी रहे बैरागीजी के मेहमान

राजेन्द्र जोशी

संसदीय सचिव की हैसियत से बैरागीजी को शिवाजी नगर में एक शासकीय बंगला आबण्टित था, किन्तु जब वे श्यामाचरण शुक्ल मन्त्रिमण्डल में शामिल हुए तो उन्हें शाहजहाँनाबाद क्षेत्र का पुतलीघर बंगला आबण्टित हुआ। पुतलीघर बंगले का परिसर बहुत ही बड़ा था। उसमें खेती-बाड़ी के लिए बहुत जगह थी। पूर्व में, पण्डित द्वारिका प्रसाद मिश्र के मुख्यमन्त्रित्व काल में, इस बंगले में श्री गोविन्द नारायण सिंह रहा करते थे। परिसर के एक बड़े हिस्से में एक ओर कृषि भूमि थी तो वहीं फूलों का शानदार बगीचा और कई तरह की क्यारियाँ और छोटे-बड़े मँडुए थे, जिनमें कई तरह के पेड़-पौधों और बेलों की भरमार थी। इनमें फल और सब्जियों की खूब पैदावार होती थी। बंगलों में पदस्थ अधिकारियों और कर्मचारियों के लिए आउट हाउसेस थे।

जब तक इस बंगले में बैरागीजी रहे, वहाँ अकसर कला, साहित्य, संस्कृति और फिल्म जगत से जुड़ी महान विभूतियों का निरन्तर आना-जाना बना रहता। चूँकि मैं इसी परिसर में अपने परिवार सहित रहता था, इसलिए आगन्तुक विभूतियों की आवभगत का मुझे खूब अवसर मिलता। मन्त्री पद के उत्तरदायित्वों के कारण बैरागीजी की व्यस्तता बहुत अधिक रहती। बैठकों, सभाओं, जलसों और यात्राओं से फुरसत पाने के बाद ही बैरागीजी निवास पर समय दे पाते। 

सन 1971 में राष्ट्रकवि डॉ. रामधारी सिंह दिनकर का भोपाल आगमन हुआ और वे 10-12 दिन तक बैरागीजी के मेहमान बनकर पुतलीघर बंगले में रहे। दिनकरजी के आगमन के पहले ही दिन बैरागीजी ने मेरा उनसे परिचय कराया। उन्होंने कहा-’यह राजेन्द्र है। सूचना-प्रकाशन विभाग में सेवारत है। मेरे परिवार के एक सदस्य के रूप में यह मुझसे जुड़ा हुआ है। यह बहुत ही सरल, ईमानदार, मेहनती और निष्ठावान है और उससे भी बड़ी बात है कि यह एक अच्छा कवि भी है।’ बैरागीजी ने दिनकरजी से कहा-‘दादा! अपनी व्यस्तता के चलते मैं तो आपके साथ ज्यादा समय नहीं दे पाऊँगा, यह राजेन्द्र ही आपके सम्पर्क में बना रहेगा।’ दिनकरजी को पहले ही दिन जब यह मालूम हुआ कि मैं कवि हूँ, उन्होंने कहा-‘राजेन्द्र! अब तो तुम्हारी और हमारी खूब पटेगी।’ यह कहते हुए उन्होंने मेरे सिर पर हाथ फेरा और आशीर्वाद दिया-‘खूब फलो-फूलो, खूब लिखो, पढ़ो।’ मैं बड़ा ही ख़ुशनसीब था कि जिस महान् कवि की कविताओं को पाठ्यक्रमों में पढ़कर मैंने परीक्षाएँ उत्तीर्ण की थीं और जिनकी रचनाएँ पढ़-पढ़कर कलम चलाने की प्रेरणा ग्रहण की थी, वह महान् कवि मेरे सिर पर हाथ रखकर मुझे आशीर्वाद दे रहा था। बैरागीजी, दिनकरजी के समक्ष मुझे यह कहकर किसी कार्यक्रम के लिए रवाना हो गए-‘राजेन्द्र! एक-दो दिन में दिनकरजी के सम्मान में यहाँ बंगले में एक गोष्ठी रख लो, जिसमें शहर के सभी रचनाकारों को बुलाना है। और हाँ, दुष्यन्त भाई को खबर कर दो कि वे आज शाम आफिस से घर जाने के पहले बंगले पर आकर दादा से मिल लें।’

शाम को दुष्यन्तजी पुतलीघर बंगले में आए। दिनकरजी के साथ वे करीब आधा घण्टा बैठे। मैं भी साथ था। सुशील भाभी ने गरम-गरम पकौड़ों के साथ चाय पिलवाई। दुष्यन्तजी ने भाभी की तारीफ करते हुए कहा-‘बैरागीजी बंगले में हों या न हों, हमारी भाभी अतिथियों के सत्कार का पूरा-पूरा ख्याल रखती हैं। चाय के साथ मुझे तो हमेशा वे गरम-गरम पकौड़े खिलाती हैं।’ दुष्यन्त पकौड़ों के बड़े शौकीन थे। उनके बंगले में प्रवेश करते ही किचन में काम करनेवाले सेवक बिना कहे, चूल्हे पर तेल की कढ़ाई चढ़ा दिया करते। एक तरह से उस बंगले में दुष्यन्तजी ‘पकौड़े वाले कविजी’ के रूप में जाने जाते रहे। दिनकरजी ने कहा-‘सुशीलजी! मुझे भी बड़ा शौक है, पकौड़े खाने का। अब तो हमें भी रोज शाम की चाय के साथ पकौड़े मिला करेंगे।’ बैरागी-परिवार के साथ दिनकरजी पहले ही दिन से कुछ ऐसे घुल-मिल गए जैसे वे इस परिवार से वर्षाे से जुड़े हुए हों।

मुझे दिनकरजी जैसे महान् कवि के सम्मान में बैरागी-निवास पर एक ऐसी गोष्ठी आयोजित करने का अवसर मिला, जिसमें भोपाल की नई-पुरानी पीढ़ी के कवि और शायर एकत्रित हुए थे। डा. चन्द्रप्रकाश वर्मा, दुष्यन्त कुमार, अनिल कुमार, शेरी भोपाली, जीवनलाल वर्मा ‘विद्रोही’, राजेन्द्र अनुरागी, भीष्मसिंह चौहान, अम्बाप्रसाद श्रीवास्तव तथा भाषा विभाग और सूचना-प्रकाशन विभाग में कार्यरत कुछ अन्य कवियों के साथ ही भोपाल शहर के कई कवि और शायर आमन्त्रित थे। दिनकरजी की गरिमामयी उपस्थिति से भोपाल के ये सभी कवि और शायर अत्यन्त प्रसन्न थे। वे सभी बार-बार बैरागीजी को धन्यवाद दे रहे थे, क्योंकि बैरागीजी के माध्यम से सब लोगों को राष्ट्रकवि से मिलने का सुखद संयोग जो मिला था।

....और दुष्‍यन्‍तजी ने  दिखा दी दिनकरजी को एडल्‍ट फिल्‍म

जितने भी दिन दिनकरजी भोपाल में रहे, बैरागीजी प्रातः उठकर सबसे पहले उनका अभिवादन करते और पूछते-‘दादा! आपको कोई तकलीफ तो नहीं?’ दादा तुरन्त मेरी ओर देखकर हँसते हुए कहते-‘बैरागी! हमें क्यों और कैसे तकलीफ हो सकती है। जब राजेन्द्र जैसे दिलदार कवि को तुमने मेरे साथ लगा दिया है।’ बैरागीजी ने मुझसे पूछा-‘राजेन्द्र तुमने दादा को पूरा भोपाल घुमाया कि नहीं?’ जब मैंने कहा कि आज हमारा यही कार्यक्रम है तो बैरागीजी बोले-‘वो हीरो भी आता ही होगा। उसे भी साथ ले जाना।’ दिनकरजी ने पूछा ‘यहाँ कौन हीरो आनेवाला है भई!’ बैरागीजी ने कहा-‘जब आएगा दादा, तो आपको पता चल जाएगा।’ थोड़ी ही देर बाद बैरागीजी का ‘हीरो’ सामने था। दिनकरजी बोल पड़े-‘अरे! यह तो दुष्यन्त है!’ बैरागीजी बोले-‘हमारा यह सुन्दर-सा कवि किसी हीरो से कम है क्या?’ दिनकरजी भी कम मजाकिया नहीं थे। उन्होंने दुष्यन्त की तरफ देखकर कहा-‘हीरो कमिंग विदाउट हीरोइन।’ एक ठहाका लगा और आनन्द का एक अच्छा-खासा माहौल बन गया। बैरागीजी ने हमसे कहा-‘तुम दोनों दिनकरजी को आज शहर घुमा लाओ।’ 

हम तीनों जैसे ही गाड़ी में बैठे, दुष्यन्तजी ने कहा-‘दादा! यहाँ एक टाकीज है-रंगमहल। उसमें एक नई फिल्म आई है। चलो आज उसका मेटिनी शो अपन लोग देख लें।’ दिनकरजी ने कहा-‘अरे भाई! मुझे फिल्म देखने का ज्यादा शौक नहीं है।’ दुष्यन्तजी ने कहा-‘आप यहाँ बैरागी के मेहमान हैं और बैरागी अपने हर मेहमान को यहाँ कोई न कोई फिल्म दिखाने ले जाते हैं। आज उन्होंने हम पर शहर घुमाने की जिम्मेदारी सौंपी है और हम उनकी परम्परा के अनुसार आपको फिल्म दिखाएँगे।’ दादा की फिल्म देखने की अरुचि को दुष्यन्तजी ने भाँप लियाा। उन्होंने तुरन्त तुरुप का पत्ता फेंकते हुए कहा - ‘दादा! बिहारी लोगों ने कला और साहित्य के हर क्षेत्र में ऊँचाइयाँ हासिल की हैं। जैसे साहित्य में आप हैं, वैसे ही फिल्मों में इस समय एक बिहारी लड़का ऊँचाइयाँ हासिल कर रहा है।’ दिनकरजी ने जिज्ञासावश पूछा-‘ऐसा कौन है भाई!’ दुष्यन्तजी बोले-‘शत्रुघ्न सिन््हा। उसकी एक फिल्म रंगमहल में आज ही लगी है और वह फिल्म है-ओनली फार एडल्ट्स। क्यों न हम, आप जैसे बिहारी के साथ एक बिहारी हीरो की कला भी देख लें?’ बिहारी कलाकार के नाम से दिनकरजी कुछ पिघले। बोले-‘सुना तो है, इस नाम का एक लड़का फिल्मों में चला गया है। चलो आज उसको देख ही लेते हैं।’ 

फिल्म देखकर जब टाकीज से बाहर निकले, तब दिनकरजी के चेहरे पर सन्तोष के भाव झलक रहे थे। बोले-‘बैरागी का मेहमान बनने का बड़ा ही सुख मिल रहा है। उसकी बदौलत आज पहली बार मैं एक बिहारी कलाकार को फिल्म में देख सका। मैं उसका मेहमान बनता नहीं और आज यह फिल्म देख पाता नहीं।

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नंदा बाबा: फकीर से वजीर
ISBN 978.93.80458.14.4
सम्पादक - राजेन्द्र जोशी
प्रकाशक - सामयिक बुक्स,
          3320-21, जटवाड़ा, 
    दरियागंज, एन. एस. मार्ग,
    नई दिल्ली - 110002
मोबाइल - 98689 34715, 98116 07086
प्रथम संस्करण - 2010
मूल्य - 300.00
सर्वाधिकार - सम्पादक
आवरण - निर्दोष त्यागी


यह किताब मेरे पास नहीं थी। भोपाल से मेरे छोटे भतीजे गोर्की और बहू अ. सौ. नीरजा ने उपलब्ध कराई।

 

 


2 comments:

  1. प्रेम स्नेह से ओतप्रोत यादों का गुलदस्ता, समर्पण में और निखर जाता है।
    महा कवि दिनकर जी के साथ बिताए पल अनमोल है बहुत ही सादगी पूर्ण, सराहनीय।
    सादर

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    1. ब्‍लॉग पर आने के लिए तथा टिप्‍पणी करने के लिए बहुत-बहुत धन्‍यवाद।
      लगाातर प्रवास पर रहने के कारण आपकी टिप्‍पणी आज ही देख पाया। विलम्बित उत्‍तर के लिए क्षमाप्रार्थी हूँ।

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