"बुरा बखत"

मेरी मां निरक्षर थी । एकदम अंगूठा छाप । लेकिन जिन्दगी की पाठशाला में जो पढ़ाई उसने की वह किसी भी यूनिवर्सिटी की पी.एचडी.को बौना तथा बेकार साबित करती थी । भिक्षावृत्ति पर निर्भर हमारे परिवार की देख भाल में दिन भर खटने के बाद थकी हारी सोने से पहले वह हमें कहानी सुनाना कभी नहीं चूकी । यह तो हम बहुत बाद में समझ पाए कि अपने बच्चों को खिलौने न दिला पाने की अपनी कसक को दूर करने के लिए वह कहानियों का सहारा ले कर खुद को ही समझाती थी । किस्से कहानियां तो हर बार अलग अलग हुआ करते किन्तु कुछ बातें अधिकांश में समान रूप से आती थीं । ये बातें कहानी का हिस्सा नहीं होती थीं लेकिन पता नहीं क्यों कैसे आती थीं ! अब समझ आ रहा है कि वे तमाम बातें हमारे लिए चेतावनियां थी ताकि जब भी वे बातें धरती पर होती नजर आएं तो हम या तो सतर्क हो जाएं या फिर दम हो तो उन्हें न होने दें । गए दिनों जब मैं ने अखबारों में अपने प्रधानमन्त्रीजी की नसीहतें पढीं तब से मुझे मेरी मां की वे बातें याद आ रही हैं । मां कहती थी कि जब बेटियों को पैदा होने से पहले ही मार दिया जाने लगे तथा पानी बिकने लगे तो समझ लेना कि "बुरा बखत" शुरू हो गया है । राजा रानी के किस्सों के समापन में वह कहती कि राजा जब हरकत में आने के बजाय प्रजा को नसीहतें देने लगे तथा खुद कोई कार्रवाई करने से बचने लगे तो समझो "बुरा बखत" आ गया है । क्या मेरी मां को पता था कि हमारे प्रधानमन्त्रीजी उसकी बातों को सच साबित करेंगे ? भारतीय उद्योग परिसंघ याने सी आई आई की एक बैठक में हमारे प्रधानमन्त्रीजी ने उद्योगपतियों को सलाह दी कि वे धन के भोंडे प्रदर्शन से बचें क्योंकि यह प्रदर्शन गरीबों की बेइज्जती करता है जो सामाजिक अशान्ति का कारण बन सकता है । प्रधानमन्त्रीजी ने इन धनवानों से यह आग्रह भी किया कि वे ज्यादा मुनाफा कमाने के लोभ पर लगाम लगाएं । सी आई आई के इस जलसे में हमारे वित्त मन्त्रीजी भी मौजूद थे । उन्होंने मंजूर किया कि मूल्य तय करने की ताकत उद्योगपतियों के हाथों में में आ गई है जिसका पूरा पूरा उपयोग वे कर भी रहे हैं । लेकिन इस ताकत का मनमाना इस्तेमाल कर रहे इन उद्योगपतियों को चेतावनी देने या "राज भय" से वाकिफ कराने की अपनी बुनियादी जिम्मेदारी निभाने के बजाय,अपने प्रधानमन्त्री के सुर में सुर मिलाते हुए,एक आदर्श मन्त्री की तरह बरताव करते हुए उन्होंने इन उद्योगपतियों से आग्रह किया कि वे मनमाने ढंग से कीमतें बढाने से बचें । प्रधामन्त्री से बडा राजा कौन ? वित्त मन्त्री कौन से राजा से कम ? उद्योगपति इनसे डरें या ये दोनों उद्योगपतियों से ? लेकिन दोनों ही राज धर्म की जिम्मेदारी निभाने से साफ साफ मुंह चुरा रहे हैं । दोनों इस तरह व्यवहार कर रहे है। मानो कोई वेतनभोगी कर्मचारी अपने नियोक्ता से रियायतें मांग रहा हो । मेरी मां ने तो राजा द्वारा नसीहतें देने की बात कही थी लेकिन यहां तो मेरा राजा उससे भी नीचे उतर कर गिडगिडा रहा है । क्या बुरे से भी बुरा बखत आ गया है ? बडी बडी बातें करना मुझे नहीं आता । मैं तो एक छोटा सा बीमा एजेण्ट हूं, मुझे छोटे लोगों से ज्यादा मिलना पडता है सो मेरे पास तो उन्हीं लोगों की वैसी ही बातें हैं । ये तमाम छोटे लोग कहते हैं कि पता नहीं हमारा राजा किस दुनिया में रह रहा है । तम्बाकू गुटका पाउच खाने के कारण मुंह के केंसर के रोगियों की तादाद दिन ब दिन बढ रही है । तम्बाकू सेवन के खिलाफ प्रचार अभियान में सरकार करोडों रूपये खर्च कर रही है । क्यों नहीं तम्बाकू पाउचों के कारखाने बन्द कर देती ? जिन नागरिकों की जीवन रक्षा हमारे राजा की बुनियादी जिम्मेदारी है, पहले तो उन्हीं नागरिकों को मौत के मुंह में धकेला जा रहा है, उद्योगपितयों को मुनाफा कमाने के लिए नागरिकों को केंसर का मरीज बनाया जा रहा है तथा खुद को शरीफ साबित करने के लिए तम्बाकू विराधी अभियान भी चलाया जा रहा है । हमारा राजा चाहता क्या है ?
राजा खुद ढोल पीट पीट कर कहता है कि पतले पोलीथीन की थैलियां जानवरों के लिए तथा पानी के बहाव के लिए बेहद नुकसानदायक हैं । पूरे देश में लाखों गाएं ये पोलीथिन की थैलियां खाकर मर चुकी हैं । पोलीथिन खाकर मरी गायों की तस्वीरें, आंचलिक अखबारों में आये दिनों छपती रहती हैं । पोलीथिन के कारण चोक हुई नालियों से उपजी सडांध सारे देश में फैली हुई है । इस पोलीथिन से परहेज करने की अपील करने वाले मंहगे सरकारी विज्ञापनों से अखबार पटे रहते हैं, पतले पोलीथिन की थैलियां बेचने वाले छोटे बडे व्यापारियों के यहां छापे पडते हैं, चालान बनते हैं, मुकदमे दर्ज होते हैं । याने कि पूरा निजाम इन कामों में लगा रहता है लेकिन राजा से यह नहीं होता कि एक फरमान निकाल कर इन पोलीथिन की थैलियों का उत्पादन बन्द करा दे । याने उद्योगपतियों को मुनाफा कमाने के लिए तथा लगातार कमाते रहने के लिए जानवरों का तथा नागरिकों का मरना जरूरी है । हमारा राजा यही जिम्मेदारी निभाता हुआ नजर आ रहा है ।
कोला तथा बोतलबन्द पानी : ये दोनों उद्योग सबसे ज्यादा मुनाफे वाले हैं । कोला में कोई भी पोषक तत्व नहीं होता तथा इनके बिना जिन्दगी आसानी से कटती है । भारत जैसे गरीब मुल्क में तो इसकी कोई जरूरज ही नहीं है । फिर, अब तो यह भी साबित हो गया है कि इन ठझडी बोतलों में जानलेवा रासायनकि खाद भी मिलाया जा रहा है । इन दोनों उद्योगों में जितना पानी बिकने के लिए बाजार में आता है, उससे कई गुना पानी, इन्हें "फिनिश्ड प्रोडक्ट" बनाने के लिए बहाया जाता है । आम आदमी को पेय जल उपलब्ध कराना आज भी तमाम राज्य सरकारों के लिए सबसे बडी चुनौती है । इन दोनों उद्योगों वाले लोग न केवल हमारे लोगों के मुंह से पानी छीन रहे हैं बल्कि हमारे पानी से अकूत दौलत अपने मुल्कों में भेज रहे हैं । हम प्यासे मरे जा रहे हैं, इन्हें खट्टी डकारें आ रही हैं लेकिन हमारा राजा है कि इनके सामने गिडगिडा रहा है ! इन्हीं उद्योगपतियों से जब राजा अपने लालच पर लगाम लगाने की बात कहता है तो लगता है मानो चील से कहा जा रहा है कि अपने घोंसले में रखे मांस को खाने में संयम बरते ।
जिन लोगों पर राज दण्ड का प्रखर प्रहार होना चाहिए उन लोगों के सामने मेरा राजा, "राज धर्म" निभाने की जगह गिडिगडा रहा है । मुझे मेरी मां की बातें बेतरह याद आ रही हैं । क्या सचमुच में मेरे मुल्क का "बुरा बखत" आ गया है ? यदि आ ही गया है तो मुझे क्या करना है ?
विष्णु बैरागी ने लिखा 28 मई 2007 की शाम को ।

पहला निवेदन

ब्लाग विश्व में आने की इच्छा कोई पौने तीन बरस पहले पैदा हुई जब "वागर्थ्" में इसके बारे में आैर खास कर श्री रवि रतलामी के बारे में पढ़ा था । चूँकि मंै भी रतलाम से ही हूँ, सो रविजी से मिल कर ब्लाग विधा के बारे में जानने की इच्छा भी हुई आैर उत्सुकता भी । लेकिन रविजी को तलाश नहीं कर पाया । गये दिनों "हंस" में उनका विज्ञापन देखा तो मन की मुराद पूरी हो गई । उनसे मुलाकात कर उनका शागिर्द बनने की ख्वाहिश जताई । ब्लागिंग के प्रति तो उन्होंने मुझे पहले ही क्षण से उत्साहित किया लेकिन मेरा गुरू बनने की बात को लेकर, मेरी उम्र देखकर, मंै इस समय साठ पार कर चुका हूँ, वे संकोच में पड़ गए । उन्होंने हाँ भी नहीं कहा तो इनकार भी नहीं किया । मेरे लिए तो यह उनकी स्वीकृती ही थी । आैर मंैने अपने आप को उनका शागिर्द मान लिया । यह अलग बात है कि वे तो द्रोणाचार्य हंै ही, मंै एकलव्य बन पाता हूँ या नहीं ?
कल शाम मंै अपना लेपटाप लेकर उनके घर जा धमका । मेरे लेपटाप पर रविजी ने इस हेतु आवश्यक सारे प्रोग्राम, सारे फाण्ट्स वगैरह लोड कर इस काबिल कर दिया कि मंै "श्रीँ गणेशाय नम:" कर सकूँ ।
इसके बाद रूक पाना मेरे लिए मुमकिन कैसे होता ? खास कर तब, जबकि रविजी ने तो मेरे नाम का ब्लाग ही बना दिया ! यह इसलिए कहना पड़ रहा है क्योंकि मंै ने तो केवल ब्लागों पर पोस्टिंग करना चाहा था । लेकिन रविजी ने तो मुझे "पाठक" से बदल कर "लेखक" बना दिया । सो, ब्लागिंग की दुनिया में, रविजी मेरे "जनक" हंै । याने, बेटे की उम्र बाप से ज्यादा । है ना रोचक ? सो, यदि मेरी कोई बात अच्छी लगे तो उसका श्रेय रविजी को । मूर्खताआंे का स्वामित्व आैर उत्तरदायित्व तो मेरा ही रहेगा । रविजी का इसमें कोई दखल मुझे मंजूर नहीं ।
मेरे ब्लाग का नामकरण मंै ने अपने स्थापित चरित्र के अनुरूप किया है । अपने मित्र मण्डल में मंै "एबला आदमी" यह मालवी बोली का शब्द है जो हिन्दी के "कुटिल" के आसपास ठहरता है के रूप में पहचाना आैर जाना जाता हूं । सीधे मुँह बात नहीं करना, सवाल का सीधा जवाब दिया तो क्या जवाब दिया ? याने कि मेरे मित्र मण्डल में मुझ जैसा मंै अकेला हूँ । कोई दूसरा मुझ जैसा हो, यह मुझे हजम नहीं होगा । इसीलिए पेश है एकोऽहम्

इस क्षण तक मुझे नहीं पता कि मंै क्या लिख पाउंगा । लेकिन मेरे उस्ताद का नाम खराब न हो, यह कोशिश तो अचेतन में भी रहेगी । ईश्वर से मेरे लिए प्रार्थना कीजिएगा कि मंै कुछ भी अनपेक्षित, अनुचित, आपत्तिजनक न करूँ आैर इसीलिए मुझ पर पैनी नजर भी बनाए रखिएगा । आपकी चुप्पी मुझे मेरी हर बात को सही बात मानने का भ्रम पैदा कर देगी जो मेरे लिए सबसे ज्यादा नुकसानदायक होगा ।

जांच पोस‌्ट

कहानी की बातें यही कही जाती है.