वो पेड़ मैं ही था जो अपनी छाँव में बैठा।
उक्त पंक्तियाँ श्रद्धेय बालकवि बैरागीजी के विराट एवं बहुआयामी व्यक्तित्व की साक्षी हैं। उनके कृतित्व एवं व्यक्तित्व को लेकर जो कुछ भी कहा गया या लिखा गया, उनकी वर्षों की साधना चाहे वो साहित्य की हो या राजनीति की हो, कम है। क्या अजगर ही चन्दन की खुशबू को पहचानेंगे?
श्रद्धेय बैरागीजी से मेरा परिचय सर्वप्रथम 1963 में गाँव चौकड़ी के अखिल भारतीय कवि सम्मेलन में हुआ, जब 1962 में चीनी हमले से देश मर्माहत था। उस वक्त पाकिस्तान पर उनकी लालित्यपूर्ण टिप्पणियों और उनके सस्वर कवितापाठ को न सिर्फ अभूतपूर्व प्रशंसा मिली, बल्कि आसपास के क्षेत्रों से आए करीब बीस हजार श्रोताओं ने बैरागीजी के सम्मान में खड़े होकर 5 मिनट तक लगातार तालियाँ बजाईं और सिद्ध किया कि पूरा देश श्री बैरागीजी के साथ है। जो दृश्य मैंने उस दिन देखा, वो आज भी किसी भी ख्यातिप्राप्त व्यक्ति के लिए दुर्लभ ही नहीं, असम्भव भी है।
लाल किले का कवि सम्मेलन, जो 60 वर्षों से लगातार 28 जनवरी को होता है, जिसमें श्रद्धेय के अलावा मैं भी आमन्त्रित था, तब ये आम धारणा थी कि जो कवि लालकिले में सफल हुआ, वो एक रात में अखिल भारतीय कवि हो जाता था। जिस आयोजन का मैं उल्लेख कर रहा हूँ, उस कवि सम्मेलन का संचालन पण्डित श्री गोपाल प्रसादजी व्यास ने किया था। अध्यक्षता की थी श्री रामधारी सिंह दिनकर ने, जिसमें देश के स्वनाम धन्य लगभग 40 कवियों के अलावा दर्शक दीर्घा में स्वयं पण्डित जवाहर लाल नेहरू भी उपस्थित थे। श्रद्धेय बैरागीजी के काव्य पाठ के दौरान उनकी एक-एक पंक्ति पर दिनकरजी की दाद और श्री नेहरूजी की, मुक्त कण्ठ से की गई प्रशंसा आज भी रोमांचित करती है। मैंने आज तक अपने पूरे जीवन में किसी कवि को इतना धुँआधार जमते नहीं देखा। उस दिन माँ सरस्वती सचमुच उनके होठों पर विराजमान थी। उसी लालकिले में एक बार बड़ी मजेदार घटना हुई। छत्तीसगढ़ के सन्त कवि पवन दीवान भी मंच पर उपस्थित थे। 28 जनवरी की कड़कड़ाती ठण्ड और केवल एक सूती धोती में पवन दीवान! श्रद्धेय बैरागी काव्य पाठ कर रहे थे और लोग ठहाके लगाकर आपस में एक-दूसरे से पूछ रहे थे, इनमें असली बैरागी कौन है। श्री बैरागीजी आज भी कवि सम्मेलनों की आक्सीजन हैं, इसमें दो मत नहीं।
एक संस्मरण, जो पूरे देश में उन दिनों बहुत चर्चित रहा, वो यह कि सन् 1970 में पारिवारिक कलह से उपजे आक्रोश में मेरे लघु भ्राता द्वारा जब चाकू से मुझे घायल कर अस्पताल के बेड पर लेटने पर विवश किया गया, तब पूरे देश-प्रदेश से संवेदना के फोन व तार लगातार आ रहे थे। उस समय इतने आत्मीय होने के बावजूद श्रद्धेय बैरागीजी का कोई सन्देश नहीं मिला, जबकि उन दिनों वे मध्य प्रदेश के सूचना-प्रकाशन मन्त्री थे। मैंने ‘धर्मयुग’ के हाशिये पर बेहद तैश में आकर चार पंक्तियाँ लिखी, मगर इशारे से -
लाखों मरे
आसमान फटा, धरती हिली
और सूचना मन्त्री को सूचना ही नहीं मिली।
धर्मयुग में छपने वाली इस कविता का इतना जबरदस्त असर हुआ कि उसको पढ़ते ही बैरागीजी की तत्परता देखने लायक थी। आनन-फानन, क्या कलेक्टर, क्या एस.पी. और क्या डॉक्टर, क्या नर्स! सब इतने मेहरबान हो गए कि उनकी नवाजिशें मुझे भारी पड़ने लगीं। पड़तीं भी क्यों नहीं, उस दिन का सूचना-प्रकाशन मन्त्री मैं जो था!
अपने जन्म स्थान खण्डवा को छोड़कर मैं हरदा आया। यह बात 1970 की है। सर पर छत नहीं थी और आर्थिक स्थिति भी ऐसी नहीं थीं कि कोई प्लाट खरीद सकूँ। एक खाली एवं जन शून्य, भूखण्ड दृष्टि में था, परन्तु कलेक्टर उसे लीज पर देने की असमर्थता क्यों व्यक्त कर रहे थे, यह आप खुद समझ सकते हैं। मैंने अपनी समस्या परम आत्मीय भाई श्री राजेन्द्र जोशी को बताई। उन्होंने फौरन मुझे भोपाल बुलाया और रात अपने ही निवास पर ठहराकर सुबह बैरागीजी से केवल इशारा भर किया कि बैरागीजी ने तत्काल फोन लगाकर चर्चा की और वो भूखण्ड पूरी वैधानिकता के साथ मुझे प्राप्त हुआ। वह तामीर किया छोटा सा भवन आज भी मुझे ठण्ड, गर्मी एवं वर्षा के प्रकोपों से अभयदान देकर मेरी लाज रखे हुए है।
एक सुबह अचानक अखबार पढ़ते-पढ़ते मुझे दिखना एकदम बन्द हो गया। मेरे ज्येष्ठ पुत्र नीरज ने घबराकर श्री बैरागीजी को फोन किया। बैरागीजी ने प्रसिद्ध नेत्र चिकित्सक डा. नरूला से बात की और मुझे नीमच बुलाया। न सिर्फ बुलवाया, बल्कि प्रदेश के यशस्वी पूर्व मुख्यमन्त्री श्री दिग्विजय सिंह से वार्ता कर मेरे न चाहने पर भी आर्थिक सहायता देकर फिर इस दुनिया के (मुझे मिलाकर) मनहूस चेहरे देखने की दिव्य दृष्टि मुझे प्रदान की। आईना आज भी मुझे हैरत से देखता है।
आज की दोगली राजनीति बेशक श्रद्धेय बैरागीजी की निष्ठा एवं प्रतिबद्धता पर मौन रहे, परन्तु हिन्दी का काव्य मंच सदैव उनके अवदान का ऋणी रहेगा। जहाँ पद्मश्री गोपालदास नीरज ने हिन्दी काव्य मंचों को गरिमा दी, स्व. काका हाथरसी ने लोकप्रियता दी, वहीं श्रद्धेय बैरागीजी ने कवि सम्मेलनों के माध्यम से राष्ट्र भाषा हिन्दी को गाँव-गाँव, कस्बा-कस्बा तक में लोकप्रियता प्रदान कर हिन्दी को सही अर्थों में जन-जन की भाषा बनाकर, उसे जनमानस में ही स्थापित करने का भागीरथ प्रयास निरन्तर किया और निरन्तर कर रहे हैं। आज ऐसे कई बैरागियों की जरूरत है, जो हमें भाषा के संस्कार देकर अपने देश, अपनी संस्कृति और अपनी सभ्यता की खोई हुई गरिमा को पुनः लौटा सकें।
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(25 दिसम्बर 1938 को जन्मे श्री माणिक वर्मा ने 18 सितम्बर 2019 को, इन्दौर में अन्तिम साँस ली। वे बीमार चल रहे थे। रात को सोये तो सोये ही रह गए। ऐसी मृत्यु को ‘देव मरण’ कहते हैं जो पुण्यात्माओं, अत्यन्त भाग्यशालियों को मिल पाता है।)
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यह किताब मेरे पास नहीं थी। भोपाल से मेरे छोटे भतीजे गोर्की और बहू अ. सौ. नीरजा ने उपलब्ध कराई।
सुंदर और भावपूर्ण संस्मरण
ReplyDeleteब्लॉग पर आने के लिए तथा टिप्पणी करने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद।
Deleteबहुत-बहुत धन्यवाद। कडी कृपा आपकी।
ReplyDeleteबैरागी जी के बारे में माणिक वर्मा जी के एहसासों से लिप्त उदगार पढ़वाने के लिए हृदय से आभार।
ReplyDeleteसार्थक अभिनव पोस्ट।
बहुत ही भावपूर्ण सृजन।
ReplyDeleteसुंदर संस्मरण ,इसको यहां शेयर करने के लिए धन्यवाद
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