उन्हें कमरे में बन्द कर गीत लिखवाया

डॉ. एस. एन. सुब्बराव

हजारों युवक-युवतियों के लिए श्री बालकवि बैरागी ‘प्रातः स्मरणीय’ हो गए हैं। भारत में चलनेवाले कई शिविरों में जो नौजवान भाग लेते हैं, वे प्रतिदिन सुबह 4.30 बजे जागकर 4.55 बजे एकत्रित हो जाते हैं। गर्मी के दिनों में इससे जल्दी भी एकत्रित हो सकते हैं। इस समय उनका मात्र तीन मिनट का कार्यक्रम रहता है। सामूहिक स्वरों में गीत गाते हैं ‘नवजवान आओ रे, नवजवान गाओ रे’ इस गाने के साथ बिस्तर छूट जाता है, और जोशीला दिन शुरु हो जाता है। गीत बनाया श्री बालकवि बैरागी ने। 1970 में राष्ट्रीय युवा योजना की स्थापना हुई तो एक ऐसे संकेत की आवश्यकता थी, जो लोगों को, विशेषकर नौजवानों को-विशाल हृदय के नागरिकों के रूप में विकसित कर सके। मेरी ‘अशुद्ध हिन्दी भाषा’ में मैंने कुछ पंक्तियाँ लिखकर बालकविजी के पास भेजीं। यह पंक्ति यह तुरन्त ही गीत होकर मेरे पास आ गई। मैंने इसे एक सरल तर्ज में बैठाया। आज हजारों नौजवान इस गीत को गाते हैं। शिविरों की दिनचर्या इसी गीत के साथ शुरु होती है।

1962 तत्कालीन काँग्रेस सेवादल के लिए एक स्वर्णिम वर्ष था। मदुरे में काँग्रेस अधिवेशन था। तब मुझे मौका मिला पं. जवाहर लाल नेहरू के साथ कुछ मिनट बात करने का। मैंने उससे कहा, ‘सेवादल के करीब 20,000 सैनिक बम्बई में रैली कर देश को एकता का सन्देश भेजेंगे। रैली में आपको आना है!’ पण्डितजी ने मान लिया। फिर मैंने कहा, ‘पण्डितजी। आप सेवा दल की वर्दी पहन कर आएँगे।’ जोर से हँसकर पण्डितजी बोले-‘क्यों? इस उम्र में मुझे वर्दी पहनाकर खिल्ली उड़ाना चाहते है?’ वर्दी तो खैर उन्होंने नहीं पहनी  किन्तु बम्बई रैली के लिए उन्होंने दो घण्टे समय दिया। इसमें 18,000 स्वयंसेवक-सेविकाएँ शरीक हुए।

फिर बैरागीजी की आवश्यकता पड़ी। मैंने उनसे कहा कि वे एक ऐसा गाना बनाएँ, जिसमें भारत के एक-एक राज्य की विशेषता की चर्चा आ जाए। फिर ‘मेरी हिन्दी’ में1 8-20 पद्यों के लिए मसाला लिख भेजा। कश्मीर देश का सुन्दर राज्य, मैसूर चन्दन का क्षेत्र, बंगाल विवेकानन्द-टैगोर की प्रेरणा, गुजरात, गाँधी, पटेल की पुण्य भूमि। बैरागीजी को उसकी रूपरेखा पसन्द आई और बोले, !भाई साहब! एक बढ़िया गीत बना दूँगा।’ पर उनको फुरसत नहीं थी। गीत नहीं बना। रैली की तारीख आ गई। हम सब बम्बई पहुंच गए, पर गीत तैयार नहीं। किन्तु बैरागीजी निश्चिन्त।

आखिर में बैरागीजी को, जहाँ मैं रहता था, कासलीवाल जी के घर, वहाँ एक कमरे में बन्द किया। कागज, पेन उपलब्ध किया और समय-समय पर खाने-पीने की व्यवस्था कर दी। बैरागीजी की प्रतिभा देखने को मिली। दो दिन में 20 पदों का, स्वर और लय में सुन्दर गीत तैयार कर दिया। पण्डितजी के सामने जैसे-जैसे एक-एक राज्य की टोली गुजरती गई, वे एक-एक कड़ी गाते चले गए - 

‘एकदेश के, एक वेश के आए नए जवान रे।
सब सन्तानें भारत माँ की, सबका हिन्दुस्तान रे।

पूरी बम्बई इस उत्साह से गूँज उठी।

1998 में मुझे यू.एन.ओ. में बोलने का अवसर मिला। दुनिया के 92 राज्यों के 400 प्रतिनिधि उपस्थित थे। मैं बोलता गया और मन में विचार दौड़ा - चीन, अमेरिका, ब्रिटेन आदि इतने देश यहाँ होते हुए भी मेरे भारत जैसा कोई दूसरा देश दुनिया में नहीं। फिर कुछ पंक्तियां लिखकर बैरागीजी के पास भेजीं। कुछ ही दिनों में एक अद्भुत गीत बनाकर भेज दिया ‘एक दुलारा, देश हमारा प्यारा हिन्दुस्तान’। उनके इन सुन्दर गीतों ने बैरागीजी को लोकप्रिय बना दिया है।

मैं पहली बार मध्य भारत के इन्दौर गया 1952 में। हिन्दी बोलना नहीं आता था तो बात करना मुश्किल होता था। फिर भी कुछ लोगों से घनिष्ठ मित्रता हुई, उनमें थे बालकवि बैरागी। उस समय वे बालकवि नहीं बने थे। (प्रसंगवश उल्लेख कर रहा हूँ कि दादा का ‘बालकवि’ नामकरण, भारत के तत्कालीन गृह मन्त्री डॉ. कैलाशनाथ काटजू ने दिनांक 21 नवम्बर 1951 को, हमारे गृह-ग्राम मनासा में, एक आम सभा में किया था।)

मन्दसौर जिले के मनासा गाँव के अपने घर बैरागीजी मुझे ले गए। घर तो क्या, वह एक ऐसी झोंपड़ी थी, जिसके अन्दर जाने के लिए पूरा झुककर जाना पड़ा था। उनके पिताजी ऐसे विकलांग थे कि खड़े भी नहीं हो सकते थे, लेकिन उस परिवार में कितना आनन्द था और उस झोंपड़ी में कितनी खुशी थी कि उस हँसी-खुशी के वातावरण में कभी लगता नहीं था कि हम झोंपड़ी में हैं। लगता था बड़े अमीर के महल में हैं। दुनिया को सन्देश जा रहा था कि आर्थिक गरीबी के कारण अपने को दीन महसूस करने की जरूरत नहीं है।

बैरागी का बड़प्पन यह था कि वे जब मन्त्री बने, तब अपने विकलांग पिताजी को भी सम्मान सहित भोपाल के मन्त्री बंगले में मात्र रखा ही नहीं, बल्कि आनेवाले सब बड़े-छोटे अतिथियों से परिचय कराते थे। पिताजी भी खूब हँसते हुए सबके साथ बातचीत करते थे।

बैरागीजी की पत्नी सुशील और ससुर श्री सुन्दरम भी जब उनके अपने अनुकूल ही मिले तो बैरागी परिवार इसका एक उदाहरण बन गया कि आर्थिक अभाव के कारण कोई भी अपने आपको दीन महसूस न करे, बल्कि प्रतिष्ठा के साथ जिए। 

धन्य है बैरागी परिवार।

-----

निदेशक,
राष्ट्रीय युवा योजना
221, डी.डी. उपाध्याय मार्ग
नई दिल्ली-110007



(अब सन्-संवत याद नहीं। अपनी, किसी एक रतलाम यात्रा में सुब्बरावजी, सदैव की तरह हमारे घर आए थे। जिनके पड़ौस में मैं रहता हूँ, उस ‘छाजेड़ परिवार’ को भी मैंने बुलवा लिया था। उसी समय के दो चित्र। इस चित्र में बाँये से हम सबके भैया साहब श्री सुरेन्द्र कुमारजी छाजेड़, मैं, भैया साहब की पोती साक्षी छाजेड़, भाई  साहब सुब्बरावजी, मेरा बड़ा बेटा वल्कल, वल्कल की गोद में भैया साहब का पोता ईशान छाजेड़, मेरी जीवन संगिनी वीणा बैरागी और मेरे मित्र, रतलाम के अग्रणी अभिभाषक श्री सुनील जैन। पोस्‍ट के शीर्षक के साथ दिए चित्र में भाई साहब सुब्बरावजी को विदा करने के लिए घर से बाहर आते हुए मैं। )
-----




नंदा बाबा: फकीर से वजीर
ISBN 978.93.80458.14.4
सम्पादक - राजेन्द्र जोशी
प्रकाशक - सामयिक बुक्स,
          3320-21, जटवाड़ा, 
    दरियागंज, एन. एस. मार्ग,
    नई दिल्ली - 110002
मोबाइल - 98689 34715, 98116 07086
प्रथम संस्करण - 2010
मूल्य - 300.00
सर्वाधिकार - सम्पादक
आवरण - निर्दोष त्यागी

 

 


5 comments:

  1. रोचक जानकारी ,गीत लिखने की सुंदर बात

    ReplyDelete
    Replies
    1. ब्‍लॉग पर आने के लिए तथा टिप्‍पणी करने के लिए बहुत-बहुत धन्‍यवाद। विलम्बित उत्‍तर के लिए मुझे क्षमा कर दें।

      Delete
  2. बहुत सुंदर प्रसंग और स्मृतियों की गीतमाला : ) आभार ।

    ReplyDelete
    Replies
    1. ब्‍लॉग पर आने के लिए तथा टिप्‍पणी करने के लिए बहुत-बहुत धन्‍यवाद। विलम्बित उत्‍तर के लिए मुझे क्षमा कर दें।

      Delete
  3. बहुत-बहुत धन्‍यवाद। बडी कृपा आपकी। विलम्बित उत्‍तर के लिए मुझे क्षमा कर दें।

    ReplyDelete

आपकी टिप्पणी मुझे सुधारेगी और समृद्ध करेगी. अग्रिम धन्यवाद एवं आभार.