राजेन्द्र जोशी
(दादा, साहित्य को ‘सर का साफा’ और राजनीति को ‘पाँव की जूती’ कहा करते थे। कहा करते कि जब साफे का सम्मान संकट में हो तो रक्षा के लिए वे जूती हाथ में ले लेते हैं। राजेन्द्र भाई का यह आलेख, दादा की इन्हीं बातों को प्रखरता से उजागर करता है कि साहित्यकारों के सम्मान की रक्षा करने के लिए और उन्हें सहयोग करने के लिए उन्होंने किस तरह राजनीति को औजार बनाया। - विष्णु बैरागी)
लेखकों और कवि मित्रों को अपने से जोड़े रखना और निरन्तर उनके और उनके परिवारजनों के हालचाल जानते रहना, बैरागीजी के गुणों की महत्वपूर्ण खासियत है। सांसद, विधायक और मन्त्री रहते हुए उन्होंने अपने लेखक मित्रों से दूरी बनाकर नहीं रखी। सभी के सुख-दुःख में हाजिर होकर बड़ी उदारता और सहिष्णुता का परिचय देने में वे आज भी पीछे नहीं रहते।
मध्यप्रदेश में जब उन्हें सूचना तथा प्रकाशन मन्त्रालय के राज्य मन्त्री पद की जिम्मेदारी मिली थी, उस समय कवि दुष्यन्त कुमार भाषा विभाग में कार्यरत थे। कतिपय विभागीय कारणों से दुष्यन्तजी को प्रताड़ित किया जा रहा था और वे कुछ समय के लिए मध्य प्रदेश से बाहर बिजनौर चले गए थे। पूर्ववर्ती सरकार की कार्रवाई के शिकार दुष्यन्तजी के प्रकरण की बैरागीजी ने विभागीय मन्त्री की हैसियत से समीक्षा की और प्रशासनिक स्तर पर उनके पक्ष में आदेश निकलवा दिया। आदेश तो जारी हो गया किन्तु श्री दुष्यन्त कुमार को कैसे मिले, यह समस्या प्रशासन के सामने थी, क्योंकि वे उस समय उत्तर प्रदेश में थे।
बैरागीजी ने उत्तर प्रदेश में सम्बन्धित जिले के कलेक्टर के माध्यम से दुष्यन्तजी को ढुँढवाकर भोपाल बुलवाया। दुष्यन्त कुमार को लगा कि आखिर क्या माजरा है कि उन्हें प्रशासन के माध्यम से ढूँढकर सरकार ने भोपाल बुलवाया है! आखिरकार दुष्यन्तजी को भोपाल आना ही पड़ा। भोपाल आकर उन्हें जानकारी मिली कि उनके पक्ष में शासन ने निर्णय ले लिया है और उन्हें तत्काल पदभार ग्रहण करने के आदेश की प्रति दी जानी है। दुष्यन्त कुमार समझ गए कि यह विभाग के नए मन्त्री बैरागीजी का चमत्कार है। वे फौरन बैरागीजी के पास गए और तमतमाते हुए बोले - ‘बैरागीजी! मुझपर कोई एहसान जताने के लिए तो यह आदेश जारी नहीं कराया गया है? यदि ऐसा है तो संभालो अपने इस आदेश को। मैं तो ये चला।’ बैरागीजी ने उनसे साफ-साफ कहा - ‘दुष्यन्तजी! इसके पीछे एहसान जताने जैसी बात नहीं है। यह तो आपका अधिकार था, जो आपको मिल रहा है।’ उन दिनों साहित्य-जगत और प्रशासनिक क्षेत्रों में खूब चर्चाएँ रहीं कि मित्रों के प्रति बैरागीजी के सहयोगात्मक रुख की वजह से दुष्यन्त कुमार पुनः ससम्मान अपनी ड्यूटी पर लौट आए।(दुष्यन्तजी का, 60 के दशक का यह चित्र मन्दसौरवाले मेरे प्रिय अशोक त्रिपाठी ने उपलब्ध कराया है।)
पुतलीघर बंगले में निवास के दौरान एक और वाकया हुआ, जिसका मैं प्रत्यक्ष गवाह हूँ। विख्यात गीतकार पण्डित आनन्दी सहाय शुक्ल और उनका परिवार बैरागीजी का मेहमान बनकर रहा। आनन्दी सहाय परिवार के लिए पुतलीघर बंगला एक ऐसा माध्यम भी बना, जहाँ रहते हुए उनकी बड़ी बेटी आशा का विवाह होशंगाबाद निवासी विख्यात कवि श्री सुरेश उपाध्याय के साथ सम्पन्न हुआ। बैरागीजी और मान बाबू (श्री हनुमान प्रसादजी तिवारी) की पहल से ही यह वैवाहिक बन्धन सम्भव हो सका। उन दिनों श्री बैरागी के सान्निध्य से अपने ऊपर घिरे संकटों से शुक्ल परिवार को मुक्ति की राह मिली।
अपने परिचित लेखकों के प्रति उनकी उदारता के अनेक प्रसंग देखने को मिलते हैं। गजल और व्यंग्य के उद्भट कवि श्री माणिक वर्मा भी खण्डवा छोड़कर हरदा में बसने की अपनी कहानी में बैरागीजी से मिले सहयोग का उल्लेख अक्सर करते रहते हैं। अस्पताल में एक बार घायल अवस्था में भरती माणिक भाई को बैरागीजी ने उपयुक्त सुविधा और उपचार की समुचित व्यवस्था कराई थी तथा उनकी आँखों के आपरेशन के लिए अपने गृहनगर में बुलाकर बैरागीजी ने प्रसिद्ध नेत्र विशेषज्ञ से उनका उपचार करवाया। (यह प्रसंग यहाँ पढ़ा जा सकता है।)
साहित्यकार प्रेमशंकर रघुवंशी ने जब कुछ विभागीय परेशानियों से नौकरी छोड़ने का मन बनाया, तब बैरागीजी की सान्त्वना और परामर्श ने उन्हें अपना इरादा बदलने पर विवश कर दिया। (यह प्रसंग यहाँ पढ़ा जा सकता है।)
नया मध्य प्रदेश बनने पर सी. पी. एण्ड बरार, मध्य भारत तथा विन्ध्य प्रदेश से भोपाल आए शासकीय सेचकों को तो शासकीय आवासगृह की पात्रता थी किन्तु भोपाल राज्य के शासकीय सेवकों को आवास आबण्टन की पात्रता नहीं थी। एक नियम यह जरूर था कि यदि कोई कर्मचारी मन्त्री की स्थापना में पदस्थ होता है तो भोपाल राज्य के ऐसे कर्मचारी को भी शासकीय आवास मिल सकता था। जब बैरागीजी प्रदेश में मन्त्री बने, तब तक भोपाल को राजधानी बने एक दशक से ऊपर होचुका था। सूचना विभाग में कार्यरत कवि श्री बटुक चतुर्वेदी भोपाल राज्य के कर्मचारी होने के कारण शासकीय आवासगृह के पात्र नहीं थे, इसलिए वे किराए के मकान में अपने परिवार के साथ रहा करते थे। श्री चतुर्वेदी को शासकीय आवास दिलाने की राह निकल ही आई। श्री बैरागीजी ने श्री चतुर्वेदी को अपने निजी सहायक के रूप में अपने साथ पदस्थ कर लिया और शासन के नियमानुसार श्री चतुर्वेदी को परी बाजार में एक शासकीय आवासगृह आबण्टित हो गया। जब भी और जिस सूत्र से भी उन्हें कवियों और लेखकों की समस्याओं की जानकारी मिलती, बैरागीजी ने सदैव ही शासकीय मर्यादाओं के बीच रहकर सभी को राहत और सहयोग प्रदान करने का भरसक प्रयास किया। किसी को सहायता पहुँचाते वक्त वे उसके स्वाभिमान और प्रतिष्ठा का भी ध्यान रखते थे।
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यह किताब मेरे पास नहीं थी। भोपाल से मेरे छोटे भतीजे गोर्की और बहू अ. सौ. नीरजा ने उपलब्ध कराई।
संग्रहणीय जानकारी
ReplyDeleteटिप्पणी करने केलिए बहुत-बहुत धन्यवाद।
Deleteसाहित्य सर का साफा और राजनीति पाँव की जूती.. सिर्फ कहा ही नहीं साहित्यकारों के लिए इतना कुछ किया भी...नमन ऐसी शक्शियत को🙏🙏 ।
ReplyDeleteजी। दादा ऐसे ही थे। टिप्पणी करने केलिए बहुत-बहुत धन्यवाद।
Deleteसंग्रहणीय संकलन।
ReplyDeleteबहुत ही बढ़िया 👌
सादर
टिप्पणी करने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद। आपने पोस्ट का मान और मेरा हौसला बढाया।
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