डॉ. शिव चौरसिया
अगर मालवा अंचल में यह सवाल पूछा जाए कि एक ऐसे व्यक्ति का नाम बताओ, जो अपने जीवन में सफलता के उच्च से उच्चतर सोपानों को छूने के बाद भी सहज, सरल और निरभिमानी बना रहा हो, तो इसका एक ही निश्चित उत्तर होगा-बालकवि बैरागी। जी हाँ, श्री बैरागी ही एकमात्र ऐसे व्यक्ति नहीं, व्यक्तित्व हैं, जिनकी अखिल भारतीय ख्याति है। बैरागी लोक भाषा मालवी और हिन्दी के श्रेष्ठ कवि हैं। उनकी काव्य-यात्रा श्रृंगार और अंगार के सोपानों को पार करते हुए, अब मानवता के लिए समर्पित हो जाने को समुत्सुक हो रही है। वे मंचजयी कवि हैं। उनकी उपस्थिति मात्र ही किसी कवि-सम्मेलन की सफलता की प्रमाण रही है। गद्यकार के रूप में भी बैरागी अप्रतिम हैं। उनके संस्मरणात्मक आलेख और कहानियाँ एक अनूठी आत्मीयता के साथ मानव-मन की विभिन्न अन्तर्दशाओं का अति सहज उद्घाटन करती हैं। उनकी सात-आठ पुस्तकें प्रकाशित हैं। अदभुत गद्य-शैली है उनकी।
इतना ही नहीं, वे एक सफल राजनेता हैं। सन् 1955-60 से ही वे राजनीति से जुड़े हैं। जमीनी आन्दोलनों से उनका गहरा नाता रहा है। इस लम्बी अवधि में बैरागी दो बार मध्य प्रदेश विधानसभा के सदस्य निर्वाचित हुए हैं। काँग्रेसी मन्त्रिमण्डलों में संसदीय सचिव और राज्यमन्त्री पदों पर भी रहे हैं। वे एक बार लोकसभा के तथा एक बार राज्यसभा के सदस्य भी रह चुके हैं। एक राजनेता के रूप में इन्हें संसार के विभिन्न देशों की यात्राओं का अवसर भी मिला है। स्पष्ट है कि व्यक्ति रूप में श्री बैरागी की ये सफलताएँ अद्भुत हैं, बहुत बड़ी हैं और वे भी तब, जबकि उनके जीवन की पृष्ठभूमि विपन्नता के धरातल पर खड़ी हो।
जी हाँ, बैरागीजी मुँह में चाँदी की चम्मच लेकर नहीं जन्मे। उनकी गरीबी और बेहद तकलीफों से भरी जिन्दगी से मैं पूरी तरह वाकिफ हूँ। वे मेरे आत्मीय हैं और मैं उनका स्नेह पात्र। वे मेरे लिए न तो राजनेता है और न ही कवि-लेखक। वे तो मेरे लिए मेरे दादा हैं। बस बड़े भाई। लगभग पैंतालीस वर्षों से मुझे उनका सान्निध्य प्राप्त है। लेकिन जब पहली बार मैं उनके घर मनासा गया था, शायद यह बात सन 1972 या 1975 की है, तब उन्होंने जो कहा था, उससे मैं भावविह्वल हो उठा था। उन्होंने कहा था-‘जानते हो, शिव! तुम आसपास जो घर देख रहे हो, इन सबसे मैं सुबह-सुबह आटा माँग कर लाता रहा हूं। इस सारे समाज का मुझ पर कर्ज है, और अब मैं अपनी सेवा से कोशिश कर रहा हूं कि यदि बन सके, तो इस समाज का थोड़ा बहुत कर्ज उतार दूँ।’
और सच भी यही है। श्री बैरागी अपने लेखन से अथवा राजनीतिक युक्तियों से समाज के ऋण से उऋण होने की लगातार कोशिश में लगे हुए हैं। एक खास बात जो बैरागीजी के चरित्र में मैंने देखी, वह है, उनकी निरभिमानता। वे एकदम सहज, सरल और शालीन होने के साथ अभिमानरहित हैं। अकसर होता यह है कि यदि अभावों से उठकर कोई आदमी ऊँचे पद पर पहुँच जाता है, तो वह घमण्डी हो जाता है, लेकिन बैरागी के साथ ऐसा नहीं हुआ। उन्होंने घमण्ड को पास नहीं आने दिया है। वे सदैव विनम्र और सादगी पसन्द बने रहे हैं। उनमें ‘श्रेष्ठता बोध’ (सुपीरीयरिटी काम्प्लेक्स) जैसी कोई चीज नहीं है। ‘प्रभुता पाई काहू मद नाही’ की उक्ति को उन्होंने अपने आचरण से बदल दिया है। इसी कारण वे सुख-दुःख के साथियों को नहीं भूले हैं, वे सबका यथोचित ध्यान रखते हैं। यह एक अच्छी बात है, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि बैरागी लुंज-पुंज मानसिकता वाले व्यक्ति हैं। नहीं, बिल्कुल नहीं! वे अपनी सारी विनम्रता के बावजूद सिद्धान्तों पर अडिग रहनेवाले, अपनी राजनीतिक पार्टी के निष्ठावान सिपाही हैं-एकदम दृढ़ और अडिग।
मुझे बराबर याद है कि सन् 1967 में श्री बैरागी मध्य प्रदेश विधानसभा में काँग्रेस के विधायक थे, संसदीय सचिव भी थे कि अचानक दल-बदल की आँधी चली । काँग्रेस की सरकार गिर गई। राजमाता सिंधिया की उठापटक से श्री गोविन्द नारायण सिंह के नेतृत्व में संविद सरकार बनी। तब राजमाता श्रीमती विजयाराजे सिंधिया ने श्री बैरागी के पास सन्देश भेजा था कि दल बदलकर हमारी तरफ आ जाओ, तुम्हारा मन्त्री पद बना रहेगा। ऐसी स्थिति में राजनेता प्रायः ही लुढ़क जाते हैं। अनेक लुढ़ककर राजमाता के पक्ष में गए भी थे, लेकिन श्री बैरागी ने एक अनूठा उत्तर, उस समय की सर्वाधिक ताकतवर और प्रभावी नेता राजमाता सिंधिया को दिया था-‘राजमाताजी! मैं आपको प्रणाम करता हूँ। पूरी विनम्रता के साथ आपका आदर करता हूँ। लेकिन मैं आपकी बात नहीं मान सकता। मैंने आज सुबह ही अपने हाथ-पैरों के नाखून काटे हैं। आपकी सारी शक्ति और सम्पदा उन्हें भी नहीं खरीद सकती। अतः मुझे भी खरीदने की मत सोचिए।’
यह चरित्र है बालकवि बैरागी के राजनेता रूप का। आज की राजनीति में ऐसी बातें प्रायः दुर्लभ हैं, लेकिन बैरागी ऐसे ही हैं-राजनीति की काजल की कोठरी में भी प्रायः बेदाग छवि वाले। उनके इतने लम्बे राजनीतिक जीवन में सुरा, सुन्दरी अथवा आर्थिक छल-प्रपंच का कोई आरोप नहीं है। इसके पीछे उनकी साहित्य साधना का ही प्रभाव है। सरस्वती का वरदहस्त ही उनकी इस दृढ़ता का कारण है। उनके जीवन के विविध प्रसंगों से, मैं अच्छी तरह परिचित हूँ। चाहे राजनीति हो या साहित्यिक क्षेत्र, वे दोनों जगहों पर अति विनम्र भी हैं और अति दृढ़ भी। चरित्र का ऐसा विरोधाभासी सामंजस्य प्रायः दुर्लभ ही होता है, लेकिन सरस्वती के इस सेवक ने इस दुर्लभता को अपने आप में संजोया है, समाहित किया है और अपने से बड़ों का आदर तथा छोटों से प्यार करते हुए अपने जीवन के सत्तहत्तर वसन्त हँसते, गाते, मुस्कराते और ठहाके लगाते हुए पूरी मस्ती के साथ पार किए हैं। उनकी यात्रा निरन्तर चल रही है। यह ऐसी ही जिन्दादिली से लिखते-पढ़ते चलती रहे......चलती रहे।
प्रभु से यही प्रार्थना है।
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(शिव दादा का चित्र, उनके बेटे प्रिय डॉ. विवेक चौरसिया से प्राप्त।)
(दादा से जुड़ा, शिव दादा का एक और रोचक, पठनीय संस्मरण यहाँ उपलब्ध है।)
यह किताब मेरे पास नहीं थी। भोपाल से मेरे छोटे भतीजे गोर्की और बहू अ. सौ. नीरजा ने उपलब्ध कराई।
नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा शुक्रवार 15 जुलाई 2022 को 'जी रहे हैं लोग विरोधाभास का जीवन' (चर्चा अंक 4491) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। 12:01 AM के बाद आपकी प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।
बहुत-बहुत धन्यवाद। बडी कृपा है आपकी। मैं पूरी कोशिश करूँगा, चर्चा अंक 4491 पढने की।
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ReplyDeleteउत्तम जानकारी
ReplyDeleteब्लॉग पर आने के लिए और टिप्पणी करने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद।
Deleteसच्चे लोग अपने विरुद्ध विचारों से समझौता नहीं करते . बढ़िया जानकारी
ReplyDeleteब्लॉग पर आने के लिएऔर टिप्पणी करने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद।
Deleteब्लॉग पर आने के लिए और टिप्पणी करने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद।
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