सुलतान मामा की यह तस्वीर कलवाली पोस्ट में देते हुए मैंने कहा था कि इसकी कहानी आज सुनाऊँगा। सो, सुन लीजिए।
मेरा विवाह फरवरी 1976 में हुआ। मेरी सुसराल सावेर में है। बोलचाल में इसे ‘साँवेर’ उच्चारित किया जाता है। लेकिन वास्तव में है यह सावेर। इन्दौर जिले का यह कस्बा, इन्दौर और उज्जैन के रास्ते में पड़ता है। इन्दौर से तीस-बत्तीस किलो मीटर और उज्जैन से बीस-बाईस किलो मीटर दूर। बारहों महीने मिलनेवाले, गरम-गरम और मीठे-स्वादिष्ट भुट्टे इस कस्बे की पहचान हैं। कस्बे के बाहर निकलनेवाली फोर लेन सड़क के दोनों ओर अच्छा-खासा ‘भुट्टा बाजार’ लगा हुआ है। उस इलाके के कई स्कूल, ‘आउटिंग’ और ‘पिकनिक’ के नाम पर अपने बच्चों को भुट्टे खिलाने के लिए यहाँ लाते हैं।
सावेर, आज तो अच्छा-खासा कस्बा है और ‘फोर लेन’ के कारण लोगों की नजर में नहीं आता। किन्तु 1976 में यह ‘बड़ा गाँव’ ही था। इन्दौर-उज्जैन के बीच यात्रा करनेवाले सारे वाहन गाँव के बीच में बनी सँकरी, सिंगल सड़क से ही निकलते थे। तब, थाने और अस्पताल के बीच सड़क पर बना यहाँ का बस स्टैण्ड ‘भुट्टा बाजार’ हुआ करता था।
इसी, सँकरी, सिंगल सड़क पर बनी, दो मंजिला जैन धर्मशाला में मेरी बारात को ‘जनवासा’ दिया गया था। ‘लड़की’ के घर पहुँचने के लिए मेरी बारात बैण्ड-बाजों के साथ जैन धर्मशाला से निकली। बारात को, बीच बाजार में बने गणेश मन्दिर के पासवाली गली से ‘लड़की’ के घर पहुँचना था। छोटा सा गाँव। छोटा सा रास्ता। मुश्किल से पन्द्रह मिनिट में पार किया जानेवाला। लेकिन तारवाली गली तक पहुँचते ही बारातियों ने नाचना शुरु कर दिया। मनासा से तो हम लगभग 40 बाराती ही आये थे लेकिन इन्दौर-उज्जैन और भोपाल से सैंकड़ों मित्र स्वस्फूर्त भाव से पहुँच गए थे - “क्या निमन्त्रण की बात करना? ‘अपने विष्णु की शादी है।’ या कि ‘बैरागीजी के छोटे भाई की शादी है।” सो, स्थिति सचमुच में ‘हम चौड़े, बाजार सँकरा’ वाली बन गई थी। लोग नाचे जा रहे थे और नोटों की करीब-करीब बरसात ही हो रही थी। बैण्ड वाले को भी यह सब मनमाफिक लग रहा था। वह बारातियों से भी ज्यादा जोश और खुशी में बजाए जा रहा था। इन्दौर-उज्जैन से आनेवाले छोटे-बड़े तमाम वाहन रुके खड़े थे। जाम लग गया था।
दादा के परम मित्र, ‘बैरागी परिवार’ के ‘परिवारी’, कवियों सहित, मालवी के मीठे कवि सुलतान मामा भी बारातियों में शरीक थे। बारातियों की भीड़ में अच्छे-भले खड़े-खड़े आनन्द ले रहे थे। अचानक, पता नहीं क्या हुआ कि मामा नाचने वालों के बीच आ गए और नाचने लगे। मामा के नाचने ने सबके नाच को परे धकेल दिया। बैण्ड पर, जग विख्यात राजस्थानी ‘घूमर’ बज रही थी। और मामा? क्या कहने! क्या तो लचक और क्या ठुमके! दुनिया से बेखबर, आँखें मूँदे, मामा नाचे चले जा रहे थे। मामा के नाच ने बारात के मजमे को, बीच सड़क में मानो ऐसी इन्द्र सभा बना दिया था जिसमें, ऋषियों, तपस्वियों की तपस्या भंग कर देनेवाली उर्वशी, पुरुष वेश में नाच रही थी। बाकी बारातियों की बात छोड़िए, दादा सहित, मामा के तमाम कवि-मित्र, मुँह बाये, हैरत से मामा का यह स्वरूप देख रहे थे। ‘घूमर’ बज रही थी, मामा नाच रहे थे, लोग नोट वारे जा रहे थे। बैण्ड पार्टी के दो सदस्य लपक-लपक कर नोट इकट्ठे कर रहे थे।
लेकिन हर बात की एक हद होती है। सो, अन्ततः बारात सरकी और कुछ ही मिनिटों में मुकाम पर पहुँच गई। उसके बाद जो होना था, वह सब क्या लिखना! कुछ भी तो अनूठा नहीं!
शादी के छह-आठ महीनों बाद मैं ससुराल गया। मैं पैदल ही था। अचानक एक अधेड़ सज्जन सामने आ खड़े हुए। उन्होंने पहले मुझे ध्यान से देखा और दोनों हाथ जोड़कर बोले - ‘आप तो हाथीवाले महन्तजी के कँवर सा’ब हो!’ मुझे पता नहीं था कि मेरे ससुरालवाले ‘हाथीवाले’ भी हैं। मैं चुप ही रहा। वे अधेड़ सज्जन मालवी में कुछ ऐसा बोले - ‘भगवान आपकी जोड़ी अम्मर करे कँवर सा’ब। आप खूब फले-फूलें। आपकी शादी ने मेरे दलीद्दर धो दिए।’ मैं कुछ नहीं समझा। मैं तो उन्हें (उन्हें तो क्या, पूरे सावेर में, मेरे ससुराल के दो-तीन लोगों के सिवाय और किसी को भी) जानता भी नहीं था। मैं उनकी शकल देखता रहा। उन्होंने बताया - ‘मैंने सैंकड़ों शादियों में बैण्ड बजाया है और खूब ईनाम भी लिया है। लेकिन जितनी निछावर आपके प्रोसेशन में मिली, उतनी न तो उससे पहले कभी मिली न ही आगे भी कभी मिलेगी। महन्तजी से जितना मेहनताना ठहराया था, उसकी दो-ढाई गुना निछावर उस दिन मुझे मिली। नोट बटोरनेवाले मेरे दोनों आदमी उस दिन पगला गए थे कँवर सा’ब!’ और वे सज्जन, अपने दोनों हाथ, आकाश की ओर उठाकर मुझे, हमारी जोड़ी को असीसने लगे। उनकी बातें सुनकर, उनकी दशा देखकर मेरा मन भर आया। मैं कुछ भी नहीं बोल पाया। उनकी बातें सुनता रहा। उनकी आशीषें समेटता रहा।
मेरा ध्यान कभी इस ओर गया ही नहीं था। वैसे भी मैं नोट न्यौछावर करने को फूहड़ और अश्लील हरकत मानता रहा हूँ। भले ही बारात मेरी थी और जश्न का नायक भी मैं ही था पर मुझे तब भी अच्छा नहीं लग रहा था। लेकिन मेरा नियन्त्रण मुझ तक ही सीमित है। और फिर, एक तो उस वक्त मैं ‘घुड़सवार’ था और किसी को रोकता-टोकता तो ‘घूमर’ के शोर में मेरी सुनता कौन? लेकिन सच कह रहा हूँ, उस दिन, उन अधेड़ सज्जन की बात सुनकर मुझे अच्छा लगा था। बैण्डवालों को बारहों महीनों काम नहीं मिलता। काम-काज के, गिनती के दिन ही मिलते हैं उन्हें पूरे साल भर में। उनकी आर्थिक दशा भी बहुत अच्छी नहीं होती। सो, उनकी बातें मुझे ‘बुराई में अच्छाई’ लग रही थीं।
लेकिन मुझे तब भी लगा था और इस समय भी, जब मैं यह सब लिख रहा हूँ, लग रहा है कि उन अधेड़ सज्जन की सारी आशीषें, सारी दुआएँ, सारी प्रशंसा निस्सन्देह मुझे सम्बोधित थीं लेकिन वे सब जमा हो रही थी सुल्तान मामा के खाते में। वे ही इस सबके वास्तविक अधिकारी तब भी थे और अब भी हैं। मैं इसे अपना सौभाग्य मान सकता हूँ कि मैं इसका निमित्त बना।
मामा अब हमारे बीच नहीं हैं। ईश्वर उनकी आत्मा को शान्ति दे और उन अनजान, अधेड़ सज्जन की सारी दुआएँ मामा की आत्मा पर बरसाए।
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सच दुआओं से ही इंसान फलता फूलता है। बैंडवालों के बारे में सच में इतना कौन सोचता है। कभी-कभी जिसे हम मामूली बात समझकर भूल जाते है वह किसी के लिए कितनी अहम् होती हैं इसका हमें बहुत बाद में पता चलता है
ReplyDeleteबहुत अच्छा प्रेरक प्रसंग। ऐसे शादी सबकी हो और नाचने वाले मामा जैसे
ब्लॉग पर आने के लिए और टिप्पणी करने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद। आपने पोस्ट का मान और मेरा हौसला बढाया। फिर से धन्यवाद।
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