डॉ. रत्नाकर पाण्डेय
कविता की पंक्तियां-‘मैं दिनकर का वंशज हूँ’ सिद्ध करती हैं कि श्री बालकवि बैरागी दिनकर के वंश से भले ही न हो, परन्तु कविता की जो मानवीय अन्तर्द्वन्द्व की वेदना है और उससे उपजी जो सच्ची प्रभावशाली अनुभूति है, उसके सर्जक, सम्प्रेषणकर्ता और सहजता से अभिव्यक्ति करनेवाले ऐसे कवि हैं, जिन्हें हिन्दी कविता के शक्तिप्रकाश से ओझल नहीं किया जा सकता।
बैरागीजी ने बहुत-सी कविताएँ लिखी हैं। ‘मैं दिनकर का वंशज हूँ’ कविता पाठ करते हुए मैंने उन्हें पहली बार सुना और समझा था। कविता पढ़ते समय भावभंगिमा, शारीरिक मुद्रा और भावना जन आरोह-अवरोह की उत्ताल तरंगें लेते हुए मंच पर खड़े इस कवि को देखकर ऐसा लगा जैसे भागीरथ धरती पर गंगा को उतारने के लिए तपस्यालीन है।
श्री बैरागी ने दिनकरजी के अवसान पर लिखी अपनी इस कविता में दिनकर के व्यक्तितव और उनके अवदान को जिस प्रभावकारी ढंग से प्रस्तुत किया, वह अद्भुत है। रचना की पंक्तियाँ हैं -
इस रचना में श्री बैरागी ने स्व. दिनकर के काव्य-संस्कार को अक्षुण्ण बनाए रखने का का संकल्प लेते हुए लिखा हैं -
बैरागी कवि, साहित्यकार, राजनेता, प्रशासक और काँग्रेस के समर्पित, कार्यकर्ता होने के साथ ही साथ समझ रखनेवाले ऐसे व्यक्ति जो स्वाभिमान के प्रश्न पर अडिग है तथा अविश्रान्त संघर्ष से पलायन करने वाले नहीं, बल्कि आराधन का आराधन से दृढ़ उत्तर देने में विश्वास करते हैं।
मैं सन् 1986 में राज्यसभा का सदस्य चुना गया। उस समय संसदीय राजभाषा समिति का सदस्य बना। बैरागीजी भी उस समिति के सदस्य थे। हम दोनों सम्भवतः तृतीय उप समिति के सदस्य थे। देशव्यापी दौरों में शुरु में वे नहीं आते थे। मुझे चिन्ता हुई। कार्यालयों का निरीक्षण करते हुए माननीय संसद सदस्य तो बहुत थे, मगर साहित्यकार के रूप में मैं अकेला पड़ रहा था। मैंने आग्रह किया कि हिन्दी की समिति में आपको चलना चाहिए। हिन्दी का काम चुनाव क्षेत्र और काँग्रेस के काम से कम महत्वपूर्ण नहीं है। मेरी बात मानकर वे देशव्यापी
निरीक्षण और इस समिति की बैठक में लगातार उपस्थित होकर अपने विचार प्रस्तुत करते थे। संसदीय राजभाषा समिति के दो संस्मरण उनके विषय में बताता हूँ -
एक बार विशाखापट्टनम में संसदीय समिति दौरा कर रही थी। 11 बजे से निरीक्षण का कार्यक्रम था। सारे सदस्य कार्यालय भवन के नीचे खड़े थे और बैरागीजी ऊपर के कमरे में ही थे। हम स्टील अथारिटी आफ इण्डिया के अतिथि थे। पहला निरीक्षण उसी संस्थान का था। निरीक्षण में प्रत्येक सदस्य को अलग गाड़ी और कोआर्डीनिटर मिलता है। मैंने अपने कोआर्डीनिटर से कहा कि बैरागीजी से कहो कि मैं उनकी प्रतीक्षा कर रहा हूँ। वह भागा-भागा गया और बैरागीजी से कहा-‘सर! आपका सखी नीचे आपका वेट कर रहा है।’ बैरागीजी की समझ में आया कि उनके काव्य की कोई प्रेमिका नीचे प्रतीक्षारत है। वे कोआर्डिनेटर के साथ तुरन्त नीचे आए और पूछा कि वह कहाँ है? कोआर्डिनेटर ने मेरी ओर इशारा करके कहा कि ये ही सखी बुलाया है। जब पूरी बात का पता लगा तो सदस्यों ने बड़ा ठहाका लगाया। परन्तु बैरागीजी ने कहा कि जो अहिन्दी भाषा-भाषी हैं, जो हिन्दी नहीं जानते और हिन्दी बोलने-सीखने, लिखने का प्रयास कर रहे हैं उनके हिन्दी प्रयोग के ऐसे ज्वलन्त उदाहरण को स्त्रीलिंग-पुल्लिंग के झंझट में फँसाकर गलत सिद्ध किया जाएगा तो हिन्दी इस देश में कभी नहीं आएगी।
दूसरी घटना मुम्बई की है। हम लोग निरीक्षण करने यहाँ महाराष्ट्र इनकम टैक्स कमिश्नर के दफ्तर में थे। सौभाग्य कहिए या दुर्भाग्य कि वहाँ के कमिश्नर बहुत अच्छे कथाकार और उपन्यासकार थे, उनका नाम मैं नहीं लूँगा। जब निरीक्षण की कार्रवाई शुरु हुई और समिति सदस्यों ने उनसे उनके कार्यालय के काम और विवरण के आधार पर प्रश्न पूछना शुरू किया तो वे इन्कमटे क्स कमिश्नर रुआब दिखाते हुए कहने लगे - ‘मैं इनकम टैक्स का काम करूँ या राजभाषा का? मुझे राजभाषा का काम मालूम है।’ इस पर मैंने बड़ी कड़ाई के साथ उस अधिकारी से कहा कि आप संसदीय समिति की अवहेलना कर रहे हैं। इन आपत्तियों के तहत यह समिति आपकी नौकरी ले सकती है, क्योंकि आप इनएफीसिऐंसी प्रदर्शित कर रहे हैं और अनुत्तरदायित्वपूर्ण जवाब दे रहे हैं। उक्त अधिकारी महोदय को कँपकपी छूटने लगी। बैरागीजी ने कहा कि आपने बहुत बड़ी गुस्ताखी की है। जब तक आप अपने को राजभाषा के दायित्वों का निर्वहन करने योग्य नहीं बना लेते, तब तक यह निरीक्षण स्थगित किया जाता है। और समिति बिना निरीक्षण किए तथाकथित साहित्यकार कमिश्नर के अनुत्तरदायित्वपूर्ण रवैये पर खेद प्रकट कर अपने लिखित नोट के साथ वहाँ से चली आई। वे अधिकारी पीपल के सूखे पत्ते की तरह काँपते रहे। कुछ ही समय में उन्हें मुम्बई की मलाईदार पदस्थापना से चेतावनी के साथ स्थानान्तरण कर दिया गया। हिन्दी के प्रश्न पर बैरागीजी कहीं चूकने को तैयार नहीं हैं।
एक बार हम लोग राजस्थान में एक कार्यालय का निरीक्षण कर रहे थे। दिसम्बर का अन्त था और नये वर्ष का आगमन था। पहली जनवरी को बैरागीजी के चुनाव क्षेत्र नीमच में निरीक्षण का कार्यक्रम रखा गया था। नया वर्ष होने के कारण दूसरे सदस्य राजस्थान से ही, नीमच के अन्तिम कार्यक्रम को छोड़कर लौट रहे थे। मुझे भी लौटना था, पर बैरागीजी का आदेशात्मक व्यंग्य- ‘रत्नाकर भाई! आप भी लौट जाइए। मेरी कांस्टीट्यूएन्सी का मामला है।’ मैंने जितनी तैयारी की थी, सब बेकार हो गई। उनके मन की वेदना और सहोदर भ्राता वाले स्नेह से वशीभूत होकर मैंने कहा-मैं नहीं जाऊँगा। मुझे लगा उस कवि हृदय के सूखते हुए धान पर पानी की बूँदे गिरने लगीं। हम अकेले सीधे उनके घर गए। वहाँ उन्होंने घर में प्रवेश करने के पहले मुझसे पूछा - ‘मेरी सबसे अच्छी कृति आपका कौन-सी लगती है?’ मैंने टालने के लिए कहा आपकी तो सभी कविताएँ अच्छी लगती हैं। उन्होंने अंगुली उठाकर जिस तरफ इशारा किया वह उनका अपना नवनिर्मित घर था। वहीं उनके पिताजी और परिवार से मिलने का अवसर मिला। मैंने पिताजी का चरणस्पर्श किया। बैरागी वहाँ से हट गए। बैरागीजी के पिताजी ने मुझे पुत्र वत्सल प्यार देकर कहा-‘बेटा जब मैं भीख माँगता था, तब भी इस बात का ध्यान रखता था कि किसी गलत और बेईमान की भीख न लूँ। मैंने अपने बच्चों को भी यही सिखाया है।’
कितनी बड़ी बात है कि एक मँगते के घर में उत्पन्न होकर बैरागीजी ने साहित्य और जनसेवा के क्षेत्र की ऊँचाई को स्पर्श किया है। बैरागीजी के कृतित्व का यह एक आश्चर्यजनक निर्माण है।
‘खेती अपने कर्म से उत्पादन करती है और पुत्र पिता के धर्म से आगे बढ़ता है।’
आज भी मेरी आंखों में नगर पालिका नीमच में बैरागीजी की अध्यक्षता में किया गया जगमगाता अभिनन्दन कौंध रहा है।
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