चन्द्रसेन विराट
कहाँ से शुरु करूँ? चलो थोड़ी बुराई से शुरु करता हूँ। उनका कद थोड़ा छोटा है। इसी कद को उन्होंने अपनी कर्मठता से ठीक आदमकद सिद्ध करके दिखा दिया है। मेरी कही हुई बुराई का परिहार हो गया। इस कद के पीछे जो पूरा आदमकद मनुष्य, समर्थ रचनाकार, कुशल राजनीतिज्ञ, काव्य-मंचों का विजय-ध्वज-वाहक गीत-कवि, सभाजीत वक्ता, स्नेह-सम्बन्धों का निर्वाह करता व्यावहारिक पुरुष खड़ा हुआ है, वास्तव में वही दर्शनीय है। वही सच्चा बालकवि बैरागी है। पूरा आदमकद।
गाँव की गरीबी की गुदड़ी का यह लाल, गरीबी का गौरव तो सिद्ध हुआ ही, उसने देश के महानगरों के मंचों पर अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया। अपनी काव्य-प्रतिभा से, सुकण्ठ से अपनी कविता गायन की दक्षता से एवं अपनी अत्यन्त प्रभावी वक्तृत्व कला से देश के मंचों पर अलग तरह की विशेष छाप छोड़ी। सामान्य गाँव से उभरी यह प्रखर प्रतिभा, गाँव से चलकर देश की राजधानी दिल्ली के सबसे प्रतिष्ठित काव्य मंच पर ही पूजित नहीं हुई, वह संसद में भी लम्बी अवधि तक सक्रिय रूप में आसीन रही। सारस्वत सेवाओं के साथ-साथ, सामाजिक सेवा भी राजनीति के माध्यम से वे निरन्तर करते हैं।
उन्होंने ही भरी सभाओं में कहा है - ‘मैं मँगते से मन्त्री बना हूँ।’ इसमें पाताल से चलकर अन्तरिक्ष छूने की जो व्यंजना है, वह बैरागी ही कर सकते हैं। उनका यह घोषित ग्रन्थ - ‘मँगते से मिनिस्टर’ पढ़ने की मेरी जिज्ञासा अभी शेष है। मेरी प्रतीक्षा बनी रहेगी।
शुरुआत में मालवी कवियों की टोली का यह प्रतिभावान कवि गाँव-गाँव में काव्य-मंचों पर अलख जगाता रहा। सही समय पर इससे छिटककर उसनेविधिवत शिक्षा-दीक्षा ग्रहण की और अपने कृतित्व से अपने विशिष्ट व्यक्तित्व कानिर्माण किया।
इसी प्रखर गीत-कवि ने देश के नगरों, महानगरों के काव्य-मंचों पर अपने सधे हुए पंचम स्वर में यश के झण्डे लहराये। राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर से शाबासी पाई और अप्रतिम स्नेह भी पाया।
बैरागीजी के गीतकार का सौभाग्य है कि उनके लिखे कुछ गीतों को स्वर-साम्राज्ञी लताजी का स्वर मिला।
मैं उनके गीत-कवि का प्रेमी तो हूँ ही, तथापि मैं उनके गद्य लेखन का उससे भी बड़ा आशिक हूँ। क्या गद्य लिखता है यह कवि! विलक्षण-अद्भुत! मन में आता है कि उनकी लेखनी को चूम लिया जाए। सही मायनों में उन्होंने सिद्ध कर दिया है कि किसी कवि की कसौटी उसका गद्य-लेखन हो सकता है।
आपने उनकी कहानियाँ पढ़ी हैं क्या? नहीं पढ़ी हों तो प्रयत्न करके पढ़िए। आप मान जाएँगे कि मैंने सही कहा है। विख्यात कथाकार महीप सिंह ने अपने कथा-संकलन में बैरागीजी की कहानी सम्मिलित की है। रचनाकार वाले इतने लम्बे कैरियर में इतने प्रतिष्ठित पुरस्कार उन्हें मिल चुके हैं कि उन सबका उल्लेख करूँ तो पृष्ठ भर जाएगा।
ऐसे व्यक्ति के बारे में संस्मरण लिखना है तो इतनी न्यूनतम भूमिका परमावश्यक थी। उसके पहले एक बात और आपको बता दूँ। करीब 65-66 वर्षाें पूर्व मेरे पिताजी बैरागीजी के माँव मनासा में प्रधानाध्यापक रहे हैं। बैरागीजी स्वयं तब प्राथमिक शाला के छात्र थे। मैं चार-पाँच वर्ष का बालक रहा होऊँगा। कई भरी सभाओं में, जिनमें मैं भी उपस्थित था, वे बता चुके हैं कि ’इस स्थूलकाय चन्दू को तब मैं अपने कन्धों पर बिठाकर स्कूल ले जाया करता था। प्रधानाध्यापक का बेटा जो था। ‘खूब कन्धों पर बिठाया है इसे।’
बात तब की है जब मैं दतिया में लोक निर्माण विभाग के एक्जीक्यूटिव इंजीनियर के पद पर पदस्थ था। दतिया में तब वासुदेव गोस्वामी जैसे वरिष्ठ कवि थे और भी कई छोटे-बड़े साहित्यकार दतिया में थे। उनके साथ काव्य गोष्ठियाँ होती रहती थीं। दतिया के स्थानीय कवि/लेखकों से घनिष्ठता हो गई थी।
एक कवि महोदय ने इसी घनिष्ठता का लाभ लेते हुए एक दिन मुझसे निवेदन नहीं, आग्रह किया कि मैं उन्हें लोक निर्माण विभाग का एक विभागीय आवासगृह आबण्टित कर दूँ। चूँकि आवासगृह विभागीय था, अतः उसका आबण्टन विभाग से बाहर वाले किसी व्यक्ति को कैसे किया जा सकता था? उन्होंने केवल आग्रह ही नहीं किया, वे तो मेरे पीछे ही पड़ गए और आबण्टन की जिद सी पकड़ ली। मैंने उन्हें अपनी स्थिति समझाई, सफाई दी और आबण्टन न कर पाने की विवशता भी समझाई। लेकिन वे क्यों मानने लगे? उन्होंने अपनी जिद नहीं छोड़ी और मुझे धर्म-संकट में डाले रखा।
यह स्थिति लम्बे समय तक बनी रही और इसने विवाद का स्वरूप ग्रहण कर लिया। विभागीय स्टाफ ने भी इसका दबी जबान से विरोध शुरु कर दिया। सब राह देखने लगे कि देखें कब विराटजी यह अनियमित आदेश करते हैं। स्टाफ मेम्बरों से ही यह भी मैंने सुना कि वे कवि महोदय तुरुप चाल चलने वाले हैं। कहते सुने गए कि ‘विराटजी ऐसे नहीं मानेंगे। बालकवि बैरागी दतिया के दौरे पर आ रहे हैं। मेरा उनसे घनिष्ठ सम्बन्ध है। उनसे विराटजी को कहलाऊँगा। वे मंत्री तो हैं ही, मेरे परिवार के सदस्य जैसे भी हैं। उनका कहा विराटजी टाल ही नहीं पाएँगे। मुझे आवासगृह आबण्टित करना ही पड़ेगा। देखता हूँ, कैसे नहीं करते?’ मेरा धर्म-संकट बढ़ गया। मैं स्वयं आशंकित हो उठा। मन ही मन सहम भी गया कि यदि बैरागीजी ने कहा तो मैं उनकी अवज्ञा नहीं कर पाऊँगा और यह नियम विरुद्ध काम मुझसे हो ही जाएगा। मैं दुविधा में तो था ही, चिन्तित भी था।
आखिर मन्त्री बैरागीजी के दौरे का दिन आ ही गया। सुबह से दिन भर के बाद अपराह्न तक उनके दल के साथ दौरा हुआ। विभागीय कार्यों के बारे में पूछताछ हुई। सवाल-जवाब हुए। मुझे लगता रहा कि किसी भी समय मुझे थोड़ा अलग बुलाकर-कन्धे पर हाथ रखकर मुझे उन कवि महोदय वाली बात कहेंगे। मेरा डर गलत साबित हुआ। शाम तक दौरा पूरा हो चुका था और बैरागीजी जा चुके थे। मैं चकित था कि ऐसा कैसे हुआ। उन्होंने कुछ कहा क्यों नहीं?
रात को मेरे अधीनस्थ स्टॉफ से ज्ञात हुआ कि उन कवि महोदय ने बैरागीजी से अपनी बात खूब जोर देकर कही और आग्रह भी किया। बैरागीजी ने जो उत्तर उन कवि महोदय को दिया वह था - ‘मैंने चन्दू (विराट) को अपने कन्धों पर बिठाया है। अब मैं जो भी हूँ, उसके कन्धों पर चढ़कर नहीं बैठूँगा।’
बस।
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यह किताब मेरे पास नहीं थी। भोपाल से मेरे छोटे भतीजे गोर्की और बहू अ. सौ. नीरजा ने उपलब्ध कराई।
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