सुल्तान मामा
(सुल्तान मामा भी अब हमारे बीच नहीं हैं। लगभग तीन बरस पहले, 2019 में उनका निधन हो गया। मामा के इस चित्र से जुड़ी एक रोचक याद की कहानी कल सुनिएगा।)
बात उन दिनों की है जब में 18-20 वर्ष का रहा होऊँगा। एक आंचलिक कवि सम्मेलन में मुख्य अतिथि थे पण्डित सूर्यनारायण व्यास। कवि सम्मेलन में मालवी कवि आनन्द राव दुबे इन्दौर, मदन मोहन व्यास टोंकखुर्द, गिरिवरसिंह भँवर बेटमा, बालकवि बैरागी मनासा, हरीश निगम उन्हेल, हुकुमचन्द शिल्पकार देवास, नरेन्द्र सिंह तोमर पिवड़ाय, शिवनारायण ‘शिव’ तराना, सुश्री पुखराज पाण्डे आदि पधारे थे। इस कवि सम्मेलन में बैरागीजी ने अपना प्रथम रचना पाठ किया -
रचना सबको भा गई। मैंने अपने मित्रों के बीच कहा कि ऐसा तो मैं भी लिख सकता हूँ। कुछ दिनों बाद मैंने एक रचना तैयार की और हरीश निगम को, जो उन दिनों तराना में अध्यापक थे, बताई। कुछेक संशोधन के बाद रचना मुझे दी गई और इस प्रकार मैंने रचनाधर्मिता को स्वीकारा। लेकिन हरीश निगम ने यहीं सन्तोष नहीं किया। उनके अनुसार मुझे अपने हुलिए में भी परिवर्तन करना पड़ा। अपनी रौबदार मूँछों, हाथ में लट्ठ एवं गर्वीली चाल, जो मुझे दादा किस्म की पहचान देती थी, छोड़नी पड़ा। इस प्रकार मैं बालकवि बैरागी एवं हरीश निगम के प्रयास से कवि बन गया।
रचना लिखने और सुधार करवाने के कारण मेरी घनिष्ठता हरीशजी से बढ़ी। परिवार का सदस्य बनते हुए मैं उनके तथा रचना के प्रति संकल्पित हुआ। निगमजी की पत्नी ने मुझे राखी बाँधी। बच्चे मुझे मामा कहते। यहीं से मैं कवि जगत मामा के रूप में चर्चित हुआ और सुल्तान मोहम्मद से सुल्तान ‘मामा’ कहलाने लगा। गंजबासौदा के कवि सम्मेलन में मुकुट बिहारी सरोज भी पधारे थे। सर्दी के कारण कार्यक्रम समय पर समाप्त हुआ। कवि सम्मेलन के कवियों को दुमंजिले भवन में ठहराया गया था। बैरागी एवं मैं दूसरी मंजिल पर रजाई ओढ़े सो रहे थे। हमारी तलाश में मुकुट बिहारी ऊपर आए। रजाई हटाई और ठण्डा पानी डाल दिया। वे लगभग चिल्ला रहे थे ‘कहाँ है साला सुल्तान और बैरागी।’ कवियों के बीच हँसी, मजाक का वह एक अनूठा दृश्य था। बैरागी ने भाई सरोजजी के इस कृत्य पर नाराजी कतई जाहिर नहीं की, बल्कि उन्होंने इसे हास्य-विनोद का एक सहज तरीका मानकर खूब आनन्द लिया।
सन् 1962 के चीनी आक्रमण से भारतीयों में आक्रोश था। उन दिनों झाँसी में एक अखिल भारतीय कवि सम्मेलन हुआ। यहाँ भी मैं और बैरागी मालवा का प्रतिनिधित्व कर रहे थे। सर्दी तेज थी। राष्ट्रीय विचारधारा हिलोरंे मार रही थी। इसमें सुश्री तारकेश्वरी सिन्हा, श्री गोपाल प्रसाद व्यास, जयकिशन गीतकार, श्री भवानी प्रसाद मिश्र, काका हाथरसी, देवराज दिनेश, वीरेन्द्र मिश्र, आनन्द मिश्र के साथ-साथ, कवियों का जमावड़ा था। आठ-दस कवियों के रचना पाठ के बाद मुझे बुलाया गया तो श्री बैरागी ने मेरे रचना कर्म के बारे में मंच से मेरा परिचय दिया। मेरी मालवी रचना थी-
कविता मालवी बोली में थी। लोक भाषा की इस कविता ने सन्नाटा खड़ा कर दिया, फिर जोरदार तालियाँ बजीं और बैरागीजी को बुलाया गया। उनकी रचना ने भी मन्त्रमुग्ध कर दिया। तालियों की गड़गड़ाहट में मालवा गुंजायमान हो रहा था। इस मौके पर बैरागीजी की कविता ‘गोरा-बादल’ खूब जमी। सम्मेलन की समाप्ति पर कविगण चाय पान कर रहे थे। बैरागजी ने मुझे नीचे उतरकर होटल पर चलने का संकेत दिया। यहाँ श्रोताओं की प्रतिक्रिया सुन हमारी हँसी फूट पड़ी। एक वृद्ध कह रहे थे ‘सम्मेलन में कई सारे कवि देखे-सुने, पर ये जो दो मालवी लौंडा आए थे, उन्होंने सबकी धज्जी बिखेर दी।’ मैंने यह जनप्रतिक्रिया सुनी तो लगा मैं सफल हो गया।
झाबुआ के मंच पर तत्कालीन मुख्यमन्त्री प्रकाशचन्द्र सेठी ने अध्यक्षता की थी। मंच के सामने भीड़ थी और मंच के पीछे गड्ढा। बैरागी दादा की कविता जोश भरी थी -
कविता काफी जमी तो दाद देने में मंच पर भी हँसी-ठहाके के साथ तालियाँ बजी। आनन्द में झूमते हुए मंचासीन लोग आगे-पीछे हुए तो इस हलचल में कुछ कवि लुढ़क पड़े।
सन् 1969 में बैरागीजी द्वारा रतलाम में मालवी मेला आयोजित किया गया था, जिसमें राष्ट्रकवि स्वर्गीय रामधारी सिंह ‘दिनकर’ आशीर्वाद दाता थे। सम्मेलन में मुझे भी अच्छी दाद मिली। इस दाद मिलने के पीछे दादा बैरागीजी द्वारा इस कार्यक्रम में की गई मेरी प्रशंसा को ही श्रेय जाता है। प्रायः प्रत्येक आयोजन में, जहाँ मुझे उनके साथ मंच पर जाने का मौका मिलता रहा, उन्होंने मुझे भरपूर प्रोत्साहित किया।
श्री पन्नालाल नायाब ‘बा’ के गाँव सागौर में जत्रा लगती है। इसमें मालवी कवि सम्मेलन हुआ, जिसके मंच पर कवियों ने श्री नायाब की पुस्तक ‘थूू और फू’ का विमोचन किया। बालकविजी मुख्य अतिथि थे। यहाँ पर देर तक कवि सम्मेलन चला। दूसरे दिन बस स्टैण्ड पर कवि लोग बसों का इन्तजार करते रहे, इसी बीच एक वृद्ध आए और दो-चार आने देने का अनुरोध किया। गिरिवर सिंह भँवर ने मजाकिया अन्दाज में कहा कि ‘तुम्हारे कोई रखवाले नहीं हैं?’ वृद्ध ने फरमाया-‘भैया, बच्चा तो दो हैं-एक वकील सा’ब अपनी घरवाली ने लई ने अलग चली गया ने दूसरो कवि बनी गयो। अब उनी कुतरा के कई कूँ?’ (भैया! बच्चे तो दो हैं। एक वकील है। वह अपनी पत्नी को लेकर अलग हो गया। दूसरा कवि बन गया। उस कुत्ते के पिल्ले को क्या कहूँ?) इस पर बैरागीजी ने ठहाका लगाया और बोले, ‘बा साहब! हमें ही तुम्हारा दूसरा पुत्र मान ला।’ बैरागीजी फिर भँवरजी से बोले-‘इस बिचारे को क्या मालूम कि हम भी कवि हैं!’ सभी ने राशि एकत्र की और वृद्ध को भेंट करते हुए कहा हम भी कवि हैं तथा चरण छुए।
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यह किताब मेरे पास नहीं थी। भोपाल से मेरे छोटे भतीजे गोर्की और बहू अ. सौ. नीरजा ने उपलब्ध कराई।
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