राजेन्द्र जोशी
मन्त्रीपद की जिम्मेदारी बैरागीजी ने बड़ी निष्ठा, लगन, ईमानदारी और प्रतिबद्धता के साथ निभाई। अपने कर्तव्यों और उत्तरदायित्वों के प्रति सजग रहते हुए बैरागीजी ने अपने कविमन की कभी भी अनदेखी नहीं की। सूचना प्रकाशन विभाग के दायित्व को उन्होंने अपनी पूर्ण क्षमता के साथ निभाया। जहाँ वे साहित्यकारों के प्रति विनम्र थे, वहीं पत्रकारिता जगत से जुड़े लोगों के साथ उनके सम्बन्ध बड़े ही सौहार्द्रपूर्ण थे। अनेक पत्रकार उनके मित्र थे।
उस समय के प्रायः सभी पत्रकार बन्धुओं से उनका निरन्तर सम्पर्क रहता। कई पत्रकार मित्रतावश उनसे मिलने पुतलीघर बंगले पर आ जाते। बैरागीजी भी कुछ पत्रकार मित्रों के इतने ज्यादा घनिष्ठ हो गए थे कि वे उनके घर भी पहुँच जाया करते थे। उन दिनों सूचना-प्रकाशन विभाग और भाषा विभाग में साहित्यकारों की बहुतायत हुआ करती थी। कुछ नामी-गिरामी साहित्यकार, शिक्षा विभाग में और कुछ अन्य विभागों में कार्यरत थे। इन सरकारी महकमों के रचनाकारों को उन्होंने कर्मचारी के बजाय अपना मित्र समझा। मन्त्री और कर्मचारी के बीच के फासलों को उन्होंने तोड़ा था। तत्कालीन सूचना-प्रकाशन विभाग, (वर्तमान में जनसम्पर्क विभाग) में उन दिनों अनेक चर्चित कवि और लेखक कार्यरत थे। विभाग का दफ्तर शाहजहाँनाबाद स्थित ऐतिहासिक महत्व की इमारत गोलघर में लगता था। इस विभाग में उन दिनों एक से एक नामी कवि, गीतकार, कहानी और उपन्यास लेखक सेवारत थे। बैरागीजी बड़ा ही फख्र महसूस करते थे इस विभाग के रचनाकारों के बीच रहकर।
बैरागीजी से मेरी निकटता के कारण और उनके आग्रह पर विभाग ने उनके प्रचार कार्य के लिए मुझे उनसे सम्बद्ध कर दिया था। एक बार मैं जनसम्पर्क दौरे के समय उनके साथ उनके जिले के गाँवों में था। वहाँ कुछ ग्रामीण भाइयों ने बड़ी ही उत्सुकता और जिज्ञासा के साथ बैरागीजी से प्रश्न किया-‘दादा! आपके पास न तो पुलिस महकमा है, न ही मास्टरों का विभाग है और न ही पटवारियों और डॉक्टरों का महकमा है। फिर ये आपको मिला यह सूचना-प्रकाशन विभाग क्या करता है? इसमें क्या काम होता है और इस विभाग से हम गाँववालों की क्या मदद कर सकते हो?’
ग्रामीण भाइयों का प्रश्न सचमुच उनके दृष्टिकोण से जायज था। मन्त्री बैरागीजी एक क्षण तो कुछ ठिठके, फिर ठहाका लगाकर ग्रामीणों से ही प्रश्न किया-‘क्या मैं कवि नहीं हूँ?’ लोगों ने कहा-‘क्यों नहीं? आप तो बहुत बड़े कवि हो। आपसे हमारा मालवा अत्यन्त गौरवान्वित है।’ बैरागीजी ने उन लोगों के प्रश्न का जो उत्तर दिया, वह था-‘सुनो भैया! मैं उस विभाग का मन्त्री हूँ, जो विभाग सरकार के काम आता है और पूरी की पूरी सरकार आपके काम आती है।
जिस सरकार और उसके विभागों से आपका वास्ता पड़ता है, वे विभाग सरकार की बगिया के रंग-बिरंगे फूल हैं, जिन्हें आप अपनी आँखों से देख पा रहे हो और उन फूलों से उठनेवाली खुशबू का एहसास भी कर लेते हो। इस सुगन्ध को क्या आप देख पाते हो? और इस सुगन्ध को आप तक पहुँचानेवाली हवा का क्या आप स्पर्श कर पा रहे हो?’ सभी एक स्वर में बोल पड़े-‘नहीं।’ बैरागीजी ने कहा-‘बस यही भूमिका हमारे विभाग की है। इसका काम सरकार की बगिया के फूलों की खुशबू को जन-जन तक पहुँचाना है।’ और फिर गर्व से बोले-‘मैं उस विभाग में हूँ, जिसका मन्त्री यानी कि मैं, कवि हूँ। जिसके विभागाध्यक्ष संस्कृत और साहित्य के पण्डित अनन्त मराल शास्त्री हैं जिसमें श्री अम्बाप्रसाद श्रीवास्तव, जीवनलाल वर्मा ‘विद्रोही’, राजेन्द्र अनुरागी, दामोदर सदन, रामपूजन मलिक, राजेन्द्र कुमार मिश्र, बटुक चतुर्वेदी, राजेन्द्र जोशी, गुलशेर खाँ शानी, डा. बृजभूषण सिंह ‘आदर्श’ जैसे कवि और लेखक काम करते हैं। जिस विभाग में पण्डित हनुमान प्रसाद तिवारी, श्यामसुन्दर शर्मा जैसे चिन्तक और विचारक, भाऊ खिरवड़कर, श्री लक्ष्मण भाँड, वैखण्डे और नवल जायसवाल जैसे आर्टिस्ट हैं। मैं उस विभाग का मन्त्री हूँ जो शासन के बौद्धिक टैंक के रूप में जाना जाता है।’
सचमुच वह एक गर्व करने योग्य समय था, जब भोपाल के नामी-गिरामी कवि-लेखकों के महकमों के रूप में सूचना-प्रकाशन विभाग की ख्याति थी और बैरागीजी उस विभाग के मन्त्री थे।
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यह किताब मेरे पास नहीं थी। भोपाल से मेरे छोटे भतीजे गोर्की और बहू अ. सौ. नीरजा ने उपलब्ध कराई।
जिन दिन देखे वे कुसुम गई सु बीति बहार।
ReplyDeleteअब अलि रही गुलाब मैं अपत कँटीली डार॥
ब्लॉग पर आने के लिए तथा टिप्पणी करने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद।
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