मेरा जोरदार समर्थन किया लेकिन बताया नहीं

       डॉ. स्वदेश भारती

क्या कोई कह सकता है कि एक भाव विभोर कवि अपने सर्जनात्मक लेखन के साथ राजनीति के कर्मपथ पर चलता हुआ संसदीय सचिव, मन्त्री, सांसद के विविध पड़ावों को पार करता 78 वर्ष में भी जीवन्त हँसी, आत्मीय सम्बन्धों और कविता की विविध अभिव्यक्ति के साथ समाज और संस्कृति को प्रेरणा और आदर्श-बोध दे रहा है? उसमें कोई ग्रंथि नहीं है? वे मुक्त आकाश की तरह खुले हुए हैं। इतना कुछ देने के बाद भी वह कभी खाली नहीं हुए। हमेशा भरे-भरे रहे । अतीत की विसंगतियों को याद करते हुए आँखें नम हो जाती हैं। कुछ पल के लिए जैसे खो जाते हैं और बड़ी शीघ्रता से अतीत की स्मृतियों से उभरकर वर्तमान की वास्तविकता में आ जाते हैं। वे अपने संघर्ष के बीच जीवन में आगे बढ़ते रहे। पीछे मुड़कर बहुत कम देखा है। उनमें देश प्रेम, सांस्कृतिक औदार्य, सामाजिक कर्म-निष्ठा कूट-कूट कर भरी है। वे भावों के चिरकुमार अन्वेषी है। अपनी कविताओं के प्रखर स्वर से श्रोताओं को मन्त्र मुग्ध करनेवाले बालकवि बैरागी। एकाग्रता की साधना का श्रेष्ठ और ज्येष्ठ रचनाकार। हिन्दी का अद्वितीय गीतकार, कवि।

बैरागी को मैं लगभग 35 वर्षों से जानता हूँ। 1972 में कलकत्ता के कलामन्दिर में आयोजित कवि सम्मेलन में पहली बार उनकी ओजस्वी, लयात्मकवाणी सुनकर आत्मविभोर हो उठा। हाल में बैठे एक हजार श्रोताओं की करतल ध्वनि में मेरी सबसे अधिक तेज और जोशीली थीं। मेरा मन था कि कवि से मंच पर जाकर मिलूँ। परन्तु बिना परिचय के इस तरह मंच पर जाते-जाते रुक गया। दूर से ही प्रणाम किया। उन्होंने उस भीड़ में मेरे प्रणाम का उत्तर हाथ हिलाकर दिया। उसके बाद वे जब भी कलकत्ता आए समय निकालकर, मैं उनके कवि सम्मेलन में जाता रहा। उसी दौरान हिन्दी गीतों के विरोध में कुछ आवाजें उठीं और आलोचकों ने गीतों को हिन्दी कविता से अलग कर दिया।

सत्तर और अस्सी के दशक में नए कवियों के प्रगतिशील आन्दोलन की नई-नई कविता, अकविता का दौर शुरु हुआ और मंचीय कवियों के विरुद्ध एक तीखा तेवर दिखाई देने लगा। उसी दौर में अज्ञेय ने जिन सात कवियों को लेकर चौथा सप्तक सम्पादित किया, उसमें मुझे भी शरीक कर लिया। फिर तो मैं आलोचकों के लक्ष्य पर आ गया और मुझे कई-कई बार कई मंचों पर गीतकारों के साथ बैठने से रोका भी गया, किन्तु गीतकार मित्रों के मेरी प्रति आत्मीयता कम नहीं हुई। भवानी भाई, नीरज, सोम ठाकुर, बालकवि बैरागी, दुष्यन्त कुमार मेरे प्रिय कवि बने रहे और उनकी कविताओं का हितेषु प्रशंसक बन गया। इसी बीच मैंने अपने कवि मित्रों से कहा - बिना छन्द के कविता में प्राण नहीं होता। छान्देयता, कविता की आत्मा है और कवि का यही कर्म होना चाहिए कि वह समष्टि-संचेता बने और अपनी कविता को छन्दबद्ध करे। उसमें वसन्त की गन्ध, पावस का भीगापन, शिशिर का वन-विन्यास, जब पीली पत्तियाँ अपने वृत से टूटकर गिरती हों, उनके टूटने की कसक, वेदना का मौन स्वर, खाली पेट और रोटी का दर्द कवि की आत्मा में गूँजता हो। उस माहौल में विभिन्न भावों, उपभावों से बुना गया छन्दबद्ध काव्य ही अधिक सार्थक और सम्प्रेषणीय होता है। इस काम में कविवर बैरागीजी निपुणता के साथ लगे रहे और अपनी कविता को तराशा, निखारा और काव्य रसिकों को रससिक्त किया।

बैरागीजी से पहली बार मेरा साक्षात्कार केन्द्रीय हिन्दी समिति की बैठक में वर्ष 2005 में हुआ। हम होटल सम्राट में ठहरे थे। उसी समय मेरा महाकाव्य ‘सागर प्रिया’ छपकर आया था। रिसेप्शन से कमरा नम्बर पूछकर, अपनी पुस्तक लेकर बैरागीजी के कमरे में चला गया। उनके  दरवाजा खोलते ही मैंने कहा - ‘जी! मैं स्वदेश भारती।’ उन्होंने तपाक से हाथ मिलाया। फिर भेंटते हुए कहा - ‘आपको कौन नहीं जानता? मेरे अहोभाग्य, जो स्वदेश भारती मुझसे मिलने आए हैं।’ मुझे बैठाया। मैंने ‘सागर प्रिया’ दी तो काफी देर तक उसके कई पृष्ठ पढ़ते रहे। फिर उन्होंने चाय मँगाई। आधे घण्टे तक हमारे बीच साहित्य जगत की चर्चा चलती रही और मैंने पाया कि बैरागीजी एक राजनेता ही नहीं, बल्कि साहित्य मर्मज्ञ भी हैं। इसके बाद जब भी केन्द्रीय हिन्दी समिति की बैठकें हुई, बैरागीजी के साथ मेरी घनिष्ठता बढ़ती रही। उन्होंने जब बैरागी की डायरी की प्रति मुझे दी तो मैं रात में देर तक उसे पढ़ता रहा। सबेरे उठकर मैं उनके कमरे में गया और साधुवाद दिया। वे बेहद प्रसन्न हुए। इसके बाद वर्ष 2007 में 13 से 15 जुलाई को न्यूयार्क में आयोजित आठवें विश्व हिन्दी सम्मेलन के अवसर पर नई दिल्ली-न्यूयार्क की 10 घण्टों की फ्लाइट में जाते और लौटते हुए तथा सभा मंच के गलियारों में उनसे कई बार चर्चा हुई। आत्मीयता की एक ताजी सुगन्ध हर भेंट-मुलाकात में मुझे प्राणवन्त बनाती रही।

मुझे 8वें विश्व हिन्दी सम्मेलन में जब सम्मानित किया गया तो मंच से मैंने अतिथियों को प्रणाम किया। मैंने देखा बैरागीजी अगली पंक्ति में सबके साथ खड़े होकर उत्साह से तालियाँ बजा रहे थे। मंच से नीचे आने पर उन्होंने सबसे पहले मुझे बधाई दी। मैं उनके इस सौहार्द्रपूर्ण प्रेम से द्रवित हो गया। उन्होंने कहा - ‘आप इस सम्मान के सर्वथा योग्य हैं।’ फ्लाइट में लौटते समय बड़े, पूर्व सांसद भाई डॉ. रत्नाकर पाण्डेय, ने बताया कि उनके साथ बालकवि बैरागी विदेश मन्त्रालय, भारत सरकार द्वारा गठित पुरस्कार चयन समिति के सदस्य थे तथा उन्होंने मेरे नाम का जोरदार समर्थन किया था।

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उत्तरायण
331, पशुपति भट्टाचार्या रोड़,
कोलकाता-700041





नंदा बाबा: फकीर से वजीर
ISBN 978.93.80458.14.4
सम्पादक - राजेन्द्र जोशी
प्रकाशक - सामयिक बुक्स,
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    दरियागंज, एन. एस. मार्ग,
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मोबाइल - 98689 34715, 98116 07086
प्रथम संस्करण - 2010
मूल्य - 300.00
सर्वाधिकार - सम्पादक
आवरण - निर्दोष त्यागी


यह किताब मेरे पास नहीं थी। भोपाल से मेरे छोटे भतीजे गोर्की और बहू अ. सौ. नीरजा ने उपलब्ध कराई।  

 


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