नारायण कुमार
(मेरी भावना रही है कि लेख के साथ लेखक का चित्र दिया जाए। किन्तु मुझे नारायण कुमारजी के बारे में कोई जानकारी नहीं है। किताब में दिए पते पर दो पत्र लिखे किन्तु जवाब नहीं मिला। सम्भव है, मेरे पत्र मुकाम पर नहीं पहुँचे। आप में से यदि कोई नारायण कुमारजी का कोई सम्पर्क सूत्र उपलब्ध करा सकें तो बड़ी कृपा होगी ताकि उनका चित्र प्राप्त कर लेख के साथ जोड़ा जा सके। - विष्णु बैरागी।)
नौ वर्ष की उम्र में यानी 1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन से दो वर्ष पहले 1940 से ही बैरागीजी कविता लिख रहे हैं। उन्होंने मूलतः मालवी में अपना काव्य लेखन किया। सन् 1951 में मनासा की एक विशाल जनसभा में नन्दराम नामक बालक ने जब अपने ओजस्वी स्वर और आत्मविश्वास के साथ अपनी कविता सुनाई तो वह सभा में उपस्थित जन समूह के लिए एक सुखद आश्चर्य की बात थी। एक विशाल सभा में राजनेताओं को यह देखकर आश्चर्य हुआ कि रामपुरा ग्राम में जन्मे बैरागी परिवार के इस छोटे से बालक की वाणी में कितनी विराटता और विचारों में कितनी उदारता है! और उसी समय उस विशाल सभा में मौजूद भारत के गृहमन्त्री डॉ. कैलाशनाथ काटजू ने घोषणा की कि यह हमारे देश का ‘बालकवि’ है। इस प्रकार श्री द्वारिकादासजी बैरागी और श्रीमती धापूबाई बैरागी के पुत्र उसी दिन से नन्दरामदास बैरागी से बालकवि बैरागी बन गए।
सातवें विश्व हिन्दी सम्मेलन के अवसर पर आयोजित कवि सम्मेलन में लगभग प्रातः 2 बजे जब मुख्य अतिथि के रूप में बालकवि बैरागी से काव्य पाठ करने का आग्रह किया गया तो उन्होंने देश-विदेश के प्रतिनिधियों को यह बताकर चकित कर दिया कि भारतीय प्रजातन्त्र में कैसे एक अत्यन्त विपन्न और निर्धन परिवार में जन्मा तथा बाल्यावस्था में भिक्षाटन कर अपना जीवन-यापन करनेवाला व्यक्ति सांसद और मन्त्री बनकर देश का नेतृत्व कर सकता है। 10 फरवरी, 1931 में जन्मे नन्दरामदास को मात्र साढ़े चार वर्ष की उम्र में उसकी माँ ने जो पहला खिलौना दिया था, वह भिक्षा पात्र था। बालक नन्दराम जब भिक्षाटन के लिए जाता था, तो लोगों से जो दुत्कार और फटकार मिलती थी, उसे भुलाना किसी के लिए भी मुश्किल है, लेकिन नन्दराम से बालकवि बने बैरागीजी उसे तत्कालीन गुलाम भारत की सामन्ती मानसिकता का हिस्सा मानते हैं तथा भिक्षा पात्र से मुक्ति को अपने जीवन का प्रेरणादायी संघर्ष।
बैरागीजी 4-5 वर्ष की उम्र से ही सक्रिय राजनीति में कूद पड़े थे। वे 1967 में मनासा विधानसभा से विधायक चुने गए तथा मध्य प्रदेश सरकार में संसदीय सचिव और राज्यमन्त्री भी रहे। आप भारतीय संसद के लोकसभा तथा राज्यसभा दोनों सदनों के सदस्य रहे और संसद सदस्य होने के नाते अनेक संसदीय समितियों के भी सम्माननीय सदस्य थे। राजभाषा संसदीय समिति के सदस्य के रूप में बैरागीजी ने हिन्दी को सरकारी कार्यालयों, निगमों, उपक्रमों आदि में प्रतिष्ठित करने में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। ऐसे अनेक प्रसंग मुझे याद आते हैं, जहाँ उन्होंने हिन्दी के प्रश्न पर बड़े-बड़े मन्त्रियों तथा सरकार के उच्चाधिकारियों को राजभाषा नियमों की अवहेलना के लिए न सिर्फ प्रताड़ित किया, बल्कि हिन्दी में काम करने के लिए प्रेरित और प्रोत्साहित भी किया। बैरागीजी में एक विशेषता यह है कि वे राष्ट्रहित तथा विशेष रूप से हिन्दी भाषा के सवाल पर सभी राजनीतिक दलों के सदस्यों को अपने साथ मिला लेते थे, चाहे वे राष्ट्रीय जनता दल के शंकर दयाल सिंह हों या भारतीय जनता पार्टी के जगदम्बी प्रसाद यादव। यहाँ तक कि सीपीएम और डीएमके जैसे दलों के सदस्य भी हिन्दी के सवाल पर उनका हमेशा समर्थन करते थे। डा. रत्नाकर पाण्डेय हमेशा उनका साथ देते ही थे। बैरागीजी ने संकल्प कर लिया कि ‘मारुति’ कार पर ये तीन अक्षर हिन्दी में भी लिखे जाएँ। उन्होंने तब तक इस मुद्दे को नहीं छोड़ा जब तक उस कार पर देवनागरी में ‘मारुति’ शब्द अंकित नहीं किए गए।
इसी प्रकार यू.टी.आई. और एक्सिस बैंक के चेयरमैन ने जब यह कहा कि वे सरकारी संस्था नहीं हैं तथा राजभाषा नियम उन पर लागू नहीं होते, तो बैरागीजी ने जिस दृढ़ता से उनके मत और अहंकार को धराशायी किया कि उन्हें समिति के समक्ष क्षमा याचना कर अपने-अपने कार्यालयों में हिन्दी में काम करने को विवश होना पड़ा।
संसद सदस्य के रूप में भी उन्होंने भारतीय भाषाओं के प्रचार-प्रसार, गरीबी, उन्मूलन, शिक्षा तथा स्वास्थ्य जैसे विषयों पर हमेशा सरकार को अपने बहुमूल्य और व्यावहारिक विचारों से अवगत कराया। मुझे याद आता है कि ‘बचपन बचाओ’ विधेयक पर संसद में सदस्यगण बाल्यावस्था के बारे में सुनहरे शब्दों में अच्छी-अच्छी बातें कह रहे थे और बता रहे थे कि बचपन के दिन इतने सुन्दर और सुहाने होते हैं कि कोई उसे भूलना नहीं चाहता तो बालकवि के इस वक्तव्य से पूरे सदन में सन्नाटा छा गया कि ‘माननीय मन्त्री और उच्च वर्ग के सदस्यगण ग्रामीण भारत के गरीब परिवार के बच्चों की स्थिति नहीं जानते।’ उन्होंने निर्भीक और स्पष्ट शब्दों में कहा - ‘आप अपने बचपन को भूलना नहीं चाहते, लेकिन मैं अपने बचपन को याद कर भयभीत हो जाता हूँ - एक हाथ में भिक्षापात्र और दूसरा हाथ कभी पेट पर अथवा आँसू पोंछने के लिए आँखों पर।’ बैरागीजी की स्पष्टवादिता ने उनके व्यक्तित्व को निखारा है। आज की राजनीति के धूल-धूसरित वातावरण में भी बैरागीजी ने अपने जीवन मूल्यों और मर्यादा को न सिर्फ बरकरार रखा है, बल्कि सामाजिक एवं राजनीतिक क्षेत्र में एक आदर्श मानदण्ड स्थापित किया है।
न्यूयार्क में जुलाई, 2007 में आयोजित विश्व हिन्दी सम्मेलन की स्थायी समिति तथा विश्व हिन्दी सम्मान समिति में मैं भी उनके साथ एक सदस्य था। बैरागीजी की धर्मपत्नी श्रीमती सुशील चन्द्रिका बैरागी अत्यधिक अस्वस्थावस्था में दिल्ली के एम्स में दाखिल थीं। बैरागीजी साउथ एवेन्यू में अपेक्षा से अधिक किराया (मार्केट रेण्ट) देकर रहते थे। इस सबके बावजूद उन्होंने विश्व हिन्दी सम्मेलन के आयोजन तथा सम्मान चयन समिति के क्रियाकलापों में सक्रिय रूप से भाग लिया और समय-समय पर उचित मार्गनिर्देशन देकर सम्मेलन को सफल बनाने में अपना सम्पूर्ण सहयोग प्रदान किया।
बालकवि बैरागी हिन्दी के वरिष्ठ कवि और श्रेष्ठ साहित्यकार के साथ-साथ हिन्दी भाषा के समर्पित प्रचारक भी हैं। द्वितीय हिन्दी भाषा कुम्भ में मैंने जब उनसे मैसूर हिन्दी प्रचार परिषद की ओर से ‘वरिष्ठ हिन्दी सेवी सम्मन’ स्वीकार करने का सादर निवेदन किया तो उन्होंने हमारी भावनाओं का सम्मान करते हुए और हमारे उत्साह को बनाउ रखने के लिए, अत्यन्त विनम्र शब्दों में, अपनी पूर्व व्यस्तता और स्वास्थ्य के कारण इस समारोह में सम्मानित होने में अपनी असमर्थता व्यक्त की। फिर भी मेरे आग्रह अथवा दृढ़धर्मिता तथा कुम्भ के अध्यक्ष डा. रत्नाकार पाण्डेय और उपाध्यक्ष डा. वि. रामसंजीव्या के प्रति आदर और स्नेह के कारण उन्होंने काफी देर से बैंगलूर आने की स्वीकृति भेजी। समय पर उनसे कविता प्राप्त न कर पाने के कारण स्मारिका में प्रकाशन के लिए उनकी कविता की कुछ पंक्तियाँ हमें कहीं से मिलीं। स्मारिका लगभग मुद्रित हो चुकी थी, फिर भी हमने बैरागीजी की, हिन्दी के सन्दर्भ में लिखी उन पंक्तियों को उनके ऐसे वक्तव्य के रूप में समझा, जो हिन्दी के भविष्य के लिए जरूरी है। आइए उनके वक्तव्यों पर विचार करें -
- हिन्दी यहीं थी-यहीं है और यहीं रहेगी।
- आज नहीं तो कल, जब भी जाएगी, भारत से अंग्रेजी ही जाएगी
- जो हाथ हिन्दी में अपना हस्ताक्षर करने में भी काँपते हैं-वे हिन्दी का झण्डा कैसे उठाएँगे?
- हिन्दी विवाद की नहीं, विकास की भाषा है।
- किसी भी भारतीय भाषा से हिन्दी का विवाद नहीं है।
उपर्युक्त सूक्तियों, सुभाषितों तथा सन्देश के साथ-साथ उन्होंने एक कविता भी भेजी थी, जो हिन्दी के प्रसार और विकास के सन्दर्भ में अत्यन्त उपयोगी तथा व्यावहारिक है। मैं उस कविता को यहाँ उद्धृत करने का लोभ सँवरण नहीं कर पा रहा हूँ।
जैसी भी गाती है जनता-गाने दो।
नदियों की कल-कल है हिन्दी।
हिमगिरी की हलचल है हिन्दी।
मरुथल का मधुजल है हिन्दी।
सचमुच बहुत सरल है हिन्दी।
इसकी बदली जैसी भी,
छाई है-छाने दो।
जैसे भी आती है-हिन्दी आने दो।
भारत माँ के मन की बोली।
राष्ट्रदेव की कुंकुम रोली।
नहीं माँगती आसन डोली।
हर भाषा की यह हमजोली।
कल्याणी को अपनी माँ का,
सुन्दर रूप सजाने दो।
जैसे भी आती है-हिन्दी आने दो।
इसके पथ को सुगम बनाओ।
सुरा-बेसुरा मिलकर गाओ।
सही समय है आ भी जाओ।
मत कतराओ, मत सकुचाओ।
पूरब-पश्चिम, उत्तर-दक्षिण,
इसको रस बरसाने दो।’
जैसे भी आती है-हिन्दी आने दो।
यह भारत की राष्ट्रभाषा हिन्दी का राष्ट्रगीत है, जिसमें सबको साथ ले चलने की उदारता, सुरे-बेसरे सभी को समाहित करने की सहिष्णुता, हर भाषा की हमजोली होने की उदारता और राष्ट्रभाषा को सरल, सुगम एवं सुन्दर बनाने की विराटता विद्यमान है। बैरागीजी आज के समाज में व्याप्त पाखण्ड, आलस्य एवं दुराचरण से अत्यन्त क्षुब्ध रहे हैं। उन्होंने ‘उनका पोस्टर’ शीर्षक कविता शहीदों को सम्बोधित करते हुए ख़ुद को निर्लज्ज अपराधी घोषित करते, कठोर सजा की माँग की है तथा अपनी बेबसी और कायरता को इन शब्दों में व्यक्त किया है -
इस कायर भीड़ से अलग दीख नहीं पाया
मेरे शहीदों! मेरी दीवार पर
उनके पोस्टर के पीछे लगा तुम्हारा खून पपड़ रहा है
और यह पपड़ाता लहू
मुझे न जाने, कौन-कौन से पाठ पढ़ा रहा है।
(यह कविता यहाँ पढ़ी जा सकती है।)
इन प्रतिकूल परिस्थितियों के सामने बालकवि पराजयबोध से कुण्ठित नहीं होते। वे चुनौतियों को समरक्षेत्र में कूदने का अवसर मानते हैं। भले ही आधुनिक चिन्तक को वे कहते हों कि ‘अपने अकेलेपन पर झल्लाना उनकी लाचारी है। आपके भविष्य की चिन्ता में जीना उनकी बीमारी है।’ लेकिन वे इसे भी स्वीकार करते हैं कि ‘बाकी तो सब हैं कचड़े कूड़ेदान के, राम रे राम!! तलवार कब तक, नखरे सहे, इस खाली म्यान के?’ तथाकथित बुद्धिजीवियों, चिन्तकों तथा पराश्रित चेतना के असूर्य के कारण व्याप्त पागल अँधेरे से मुक्ति का आह्वान करते हुए बालकवि बैरागी ने लिखा है -
और मावस धौंस देकर, चाह ले सारा सबेरा,
तब तुम्हारा हार कर, यूँ बैठ जाना बुजदिली है, पाप है,
आज की इन पीढ़ियों को बस यही सन्ताप है।
हाय रे! अब भी समय है, आग को अपनी जगाओ,
बाट मत देखो सुबह की, प्राण का दीपक जलाओ।’
बालकवि का बचपन का भिक्षापात्र अब उनके हाथों से हटकर उनके हृदय में आ गया है। वे आज की पराजित मानसिकता से कुण्ठित समाज को यह सन्देश देते हैं कि हारकर बैठ जाना बुजदिली और पाप है तथा वे अपने हृदय के भिक्षा पात्र को सबके सामने फैलाकर पूर्ण समर्पण भाव से राष्ट्र और राष्ट्रभाषा के लिए आपकी सेवा की याचना करते हैं ताकि हम सुबह की प्रतीक्षा में बैठकर समय बर्बाद न करें और अपने मन में सुप्त आग को जगाकर प्राण का दीपक जलाएँ।
अपने इन्हीं ओजस्वी विचार, तेजस्वी व्यक्तित्व और यशस्वी कृतित्व के कारण बालकवि बैरागी हमारे युग के ऐसे कालजयी व्यक्ति बन गए हैं, जो कभी भी अन्याय से समझौता नहीं करता और अँधेरे से युद्धरत होकर भावी पीढ़ी को प्रकाश की नवीन रश्मियाँ प्रदान करता है।
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यह किताब मेरे पास नहीं थी। भोपाल से मेरे छोटे भतीजे गोर्की और बहू अ. सौ. नीरजा ने उपलब्ध कराई।
सादर नमस्कार ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (18-7-22}
को सैनिकों की बेटियाँ"(चर्चा अंक 4495)
पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
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कामिनी सिन्हा
बहुत-बहुत धन्यवाद। बडी कृपा आपकी।
Deleteहिन्दी के वरिष्ठ कवि और श्रेष्ठ साहित्यकार व हिन्दी भाषा के समर्पित प्रचारक बालकवि बैरागी के बारे में सुंदर जानकारी
ReplyDeleteटिप्पणी करने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद।
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