आन्दोलनकारी (‘मनुहार भाभी’ की सोलहवीं कहानी)



श्री बालकवि बैरागी के
प्रथम कहानी संग्रह
‘मनुहार भाभी’ की सोलहवीं कहानी




आन्दोलनकारी 

पार्टी ने फैसला कर लिया था कि वह सरकार के खिलाफ मैदानी आन्दोलन चलाएगी। फैसले पर किसी को ऐतराज नहीं था। सब चाहते कि पार्टी अपने सोए बिखरे रूप को नई ऊर्जा दे और जूझने वाले कार्यकर्ता सरकार की जन-विरोधी छवि को उजागर करें। सवाल यह नहीं था कि आन्दोलन की परिणति क्या होगी। मूल बात यह थी कि जनता में चेतना पैदा की जाए और पार्टी अपनी खोल से बाहर निकल कर जनता के सामने आए। जनता के दुख-दर्द को जुबान दे। जब आन्दोलन का फैसला हो ही गया तो पार्टी के शिखर नेतृत्व ने सरकारी पार्टी के गढ़ कहे जाने वाले इलाके में कार्यकर्ताओं को चेतना देने और जनता को जगाने का निधान बाबू को सौंप दिया। नेतृत्व को भरोसा था कि निधान बाबू इस काम को पूरी निष्ठा के साथ अंजाम दे सकेंगे।

निधान बाबू ने इलाके का अध्ययन किया। मनोविज्ञान समझा। सरकार के तेवर को अपने लिहाज से सूँघ-सूँघ कर उसका विश्लेषण किया। यहॉँ-वहाँ से सूचनाएँ लीं। चाहे सरकार किसी भी दल की हो पर उसमें बैठे छोटे-बड़े कई अधिकारी-कर्मचारी निधान बाबू से लगाव रखते थे। पूरी नहीं तो भी किसी न किसी तौर पर सूचनाएँ उन तक पहुँच ही सकती थीं। अपने भूले-बिसरे सूत्रों को नए सिरे से जोड़ा । विश्लेषण का जो खाका बना उन्होंने गौर से देखा। उनके निष्कर्ष कुछ इस तरह निकले। सरकार इस आन्दोलन के लिए कोई रियायत नहीं देगी। हर तरह से दमन होगा। हो सकता है कि आन्दोलन शुरु होने से पहिले ही निधान बाबू सहित कई छोटे-बड़े कार्यकर्ता सींखचों के भीतर बन्द हो जाएँ। धारा 144 से लेकर कर्फ्यू तक की तैयारी सरकार की चल रही है। यहाँ से वहाँ तक पचासों लोगों के टेलिफोन निगरानी में ले लिए गए हैं। जहाँ से आन्दोलन शुरू होगा उस इलाके की सीमाबन्दी सरकार जरूर करेगी। आसपास के गाँव बन्द करवा दिए जाएँगे। आन्दोलन के लिए आने वाली भीड़ को पानी तक के लिए तरसा दिया जाएगा। खाना मिलने का तो खैर सवाल ही नहीं है। हजारों की तादाद में पुलिस होगी। लाठी और थ्री नॉट थ्री वाली पुलिस आन्दोलन की शुरुआत से पहले ही इलाके में यहाँ-वहाँ गश्त करेगी। आँसू गैस चलेगी। मौका लगने पर दंगा करवा दिया जाएगा और फिर गोलियाँ चलेंगी। सरकारी पार्टी के सैकड़ों कार्यकर्ता आन्दोलनकारियों में घुसपैठ करेंगे और ठीक वक्त पर शान्ति भंग करके सभा को बदहवास बना देंगे। जनता कर्फ्यू होगा ही। आन्दोलनकारी के, गाँव से चलकर गाँव वापसी की कोई सम्भावना एकाएक नहीं होगी। जम कर गिरफ्तारियाँ होंगी। आन्दोलन का आरम्भ करने वाला नेता न सड़क मार्ग से आ सकेगा, न रेल मार्ग से। हवाई मार्ग से अगर आया तो उतरने की सुविधा ही नहीं दी जाएगी। यदि उतर गया तो पूरे रास्ते पर काले झण्डों और ‘वापस जाओ’ जैसे नारों की भरमार होगी। यानी कि सरकारें तो सभी ने देखी हैं पर सरकार की सख्ती शायद इस बार ही देखने को मिले। कुल मिला कर ऐसा रूप सामने आ रहा था कि समूचा जनजीवन एक दहशत और सन्नाटे में साँस लेने लगा।

निधान बाबू को इलाके में दौरा करके सरकार की बदनीयत और जन-विरोधी कारगुजारियों का भाँडा फोड़ना था। लम्बे समय में पार्टी का काम करते रहने के कारण उन्हें पता था कि उनकी पार्टी के कार्यकर्ता गाँव-गाँव साधन माँगेंगे और सरकार है कि हर साधन को अपने कब्जे में लेकर आन्दोलन को असफल करने में कोई कसर नहीं रखेगी। पार्टी के पास न धन है न साधन और पार्टी के कार्यकर्ता हैं कि दस कदम भी पैदल चलने में उनके पाँव काँपने लग जाते हैं। बात-बात में ऊपर वालों का मुँह देख-देख कर पार्टी के मैदानी कार्यकर्ताओं का आत्मविश्वास रसातल को चला गया था। बिल्कुल सोए कुम्भकर्ण को जगाना था। वे रह-रह कर सोचते थे कि क्या ये वे ही कार्यकर्तागण हैं जो कि चुनावों के समय भागदौड़ कर जमीन-आसमान एक कर देते हैं और खर्च करने को न जाने कहाँ-कहाँ से पैसा जुटाते हैं और अपने टिकट के लिए तरह-तरह के दावे-प्रतिदावे हर भाषा में करने लगते हैं। आज अगर सरकार उनके दल की नहीं है तो सब के सब मक्खी की तरह क्यों हो गए हैं? इनका मधुमक्खीपन कहाँ चला गया? आज की नाकारा सरकार को ये कितना चुप होकर सह रहे हैं? अपने आपको जनता का प्रवक्ता कहने वाले सभी वक्तव्य-वीर आज गूँगे होकर अपनी रजाइयों में दुबक कर क्यों बैठे हुए हैं? गॉँव-गाँव में इस सरकार के पापों से जो जनाक्रोश उबाल खा रहा है उसे पार्टी के लोग कब वाणी देंगे? सरकार दमन करके आखिर क्या करेगी? यही न कि आपका मकान तोड़ देगी। आपकी रोटी छीन लेगी। आपको जेल में डाल देगी। पर सहन करने की भी आखिर सीमा होती है। जनता ने पार्टी को, विरोध करने का जो जनादेश दिया है आखिर उसका अपमान पार्टी कर भी कैसे सकती है? लोकतन्त्र में प्रतिपक्ष की जिम्मेदारी है कि वह एक मदान्ध और पदान्ध सरकार पर अंकुश लगाए।

कुछ ऐसे ही उलझावों और ऊहापोह से निधान बाबू गुजर रहे थे। उन्हें दौरा भी करना था। आन्दोलन के शुभारम्भ का समय नजदीक आ रहा था। जब निधान बाबू का टेलिफोन टेप किया जा रहा था तब भी वे उसका भरपूर उपयोग कर रहे थे और अपने लोगों कोे सूचनाएँ दे भी रहे थे और उनसे ले भी रहे थे। सरकार की उन पर पल-पल पक्की निगरानी थी। अधिकारीगण तरह-तरह के बहाने बना-बना कर उनसे सम्पर्क करते और उनकी रणनीति और कार्यक्रम की जानकारी लेने की कोशिश करते। जो लोग उनसे कभी नहीं मिलते थे वे लोग तक इन दिनों उनके साथ चाय पीने के लिए आ बैठते थे। सवाल उनका एक ही होता था कि ‘आपका प्रोग्राम क्या है? आपका नेता किस तरह आएगा? क्या आप लोग अपनी गिरफ्तारी देंगे? क्या सरकार 144 लगाएगी? घुड़सवार पुलिस, महिला पुलिस, फायर ब्रिगेड और एम्बुलेन्सों की आखिर सभास्थल पर जरूरत क्या है? यह सरकार इतनी डरी और घबराई क्यों है?’ पाँच-पच्चीस सवालों का एक पुलिन्दा निधान बाबू पर घण्टे-आधा घण्टे में कहीं न कहीं से आ गिरता था। वे तनावमुक्त रहने की कोशिश करते और अपनी शैली में सवालों के उत्तर देने की कोशिश भी करते।

देखते-देखते अखबारों ने आन्दोलन को अपना विषय बना लिया और न जाने कहाँ-कहाँ से, न जाने किस-किस अखबार के प्रतिनिधिगण इलाके में दिखाई पड़ने लगे। जो भी आता निधान बाबू से जरूर मिलता, बात करता। अपनी शंकाएँ रखता। आन्दोलन के मुद्दे टटोलता। अगर साथ में कैमरामैन होता तो फोटो लिवाता वर्ना निधान बाबू से ही फोटो माँग लेता। चहल-पहल और सरगर्मी अच्छी खासी हो चली।

ऐसे ही गहमागहमी के माहौल में निधान बाबू ने एक दिन अपने मित्र की सहायता से एक गाड़ी की व्यवस्था की और पार्टी का आदेश सिर-आँखों लेकर लिया इष्ट देव का नाम और घर से दौरे पर चल पड़े। अपने मनोबल और अनुभव के सिवाय उनकी जेब में फूटी कौड़ी भी नहीं थी। अपनी पार्टी के प्रखण्ड स्तरीय कार्यकर्ताओं को उन्होंने बिल्कुल चुपचाप सूचना दी और उनका दौरा शुरु हो गया। बेशक सरकार की पैनी नजर उन पर घर छोड़ने के साथ ही चस्पा हो गई।

अपने कार्यकर्ताओं की पहली ही बैठक में निधान बाबू ने समझ लिया कि इस आन्दोलन को लेकर नेतागण पीछे हैं। कार्यकर्ता आगे हैं। उन्हें लगा कि इस बार सेनापतियों ने सेना को आवाज नहीं दी है अपितु सिपाहियों ने सेनापतियों को ललकारा है कि तुम इस आन्दोलन के लिए आगे आते हो या नहीं? निधान बाबू को शकुन शुभ ही मिला। उन्होंने महसूस किया कि गाँवों में जनता और कार्यकर्ताण इस सरकार को निपटाने के लिए हर कीमत चुकाने को तैयार बैठे हैं। वे उतावले हैं। चाहे उनके मकान गिरा दिए जाएँ। चाहे उनके रिश्तेदारों के तबादले कर दिए जाएँ। चाहे वे नौकरियों से निकाल दिए जाएँ। चाहे उनकी रोटी चली जाए। पर इस सरकार के पाप अब किसी भी हालत में सहन नहीं किए जा सकते। कार्यकर्ताओं की शिकायत उलटे यह थी कि पार्टी ने यह आन्दोलन अभी तक शुरु क्यों नहीं किया? आखिर इस निकम्मी सरकार से किसको मीठा खाने को मिल रहा है? वगैरह-वगैरह। आम कार्यकर्ता के गुस्से का आलम यह था कि वह हर नेता पर कोई न कोई टिप्पणी जरूर कर रहा था। बड़ा अजीब-सा माहौल। निधान बाबू को यह अनुमान भी नहीं था कि जनता और कार्यकर्ता इस सरकार से इतने भरे बैठे हैं।

जब सभी बोल चुके तो निधान बाबू अपनी बात कहने के लिए खड़े हुए। उन्होंने अपनी शैली में बोलने से पहले चारों ओर सिर घुमा कर एक नजारा लिया। उन्होंने देखा कि कार्यकर्ताओं की इस छोटी-सी भीड़ में दो-चार वे स्थानीय नेतागण भी शामिल हैं जो ऐन आम चुनाव या किसी उपचुनाव के वक्त अपने टिकट की दावेदारी बढ़ा-चढ़ा कर पेश किया करते हैं। उन्हें पाट से कम सरोकार था, अपनी कुर्सी और अपने भविष्य से ज्यादा लगाव रहता था। उनके रास्ते का हर मोड़ ले-दे कर कुर्सी और पद की तरफ ही मुड़ता था। निधान बाबू शुरु हुए - 

‘प्रखण्ड के अध्यक्षजी और दोस्तों! आपका अपना यह छोटा सस गाँव अब केवल आपका गाँव नहीं रह गया है। आपका गाँव इस जन आन्दोलन का दहाना है। इस सरकार के खिलाफ पार्टी के जन-आन्दोलन की विशाल नदी यहीं से निकलने जा रही है। आन्दोलन के मुद्दे मैं आपको पढ़ कर सुना रहा हूँ। इनमें स्थानीय मुद्दे आप अपनी ओर से अवश्य जोड़ सकते हैं। आन्दोलन के शुभारम्भ की तारीख, समय और स्थान आपको उसी दिन ज्ञात हो गया था जिस दिन कि इस आन्दोलन का उद्घोष हुआ था। आप हम सौभाग्यशाली हैं कि इस संघर्ष की शुरुआत के लिए पार्टी ने हमारे क्षेत्र को चुना है। इस महान यज्ञ में पहली आहुति हमीं से शुरु होगी। इतना बड़ा प्रदेश है पर पार्टी ने हमारे अपने ही इलाके को इस लोकतान्त्रिक संघर्ष के लिए चुना। इसके लिए हम पार्टी और उसके नेतृत्व के आभारी हैं। आप सभी को बधाई! आपका हार्दिक अभिनन्दन! हमारा यह आन्दोलन सौ फी सदी अहिंसक और शान्तिपूर्ण होगा।’

इसके बाद निधान बाबू ने संघर्ष के मुद्दे पढ़ कर सुनाए और फिर उनके पास जो भी सूचनाएँ तथा जानकारी थीं उसके आधार पर सरकार द्वारा किए जाने वाले सम्भावित दमन और रोकटोक तथा गिरफ्तारियों का भयानक वर्णन किया। सुनने वाले सिहर-सिहर गए। वे स्पष्ट देख रहे थे कि बेचैनी की लहर पूरे माहौल पर घनी होती चली जा रही है।

तब फिर निधान बाबू ने यह छोटी-सी कहानी सिलसिले से पेश की। वे बोले, ‘राजा-महाराजाओं और जमींदारों-जागीरदारों के जमाने में हर महल या रावले में कम से कम दो घोड़े हुआ करते थे। एक घोड़ा वह जो शिकार और युद्ध के समय काम में आता था और दूसरा घोड़ा वह जो कि गाँव, बस्ती या रावले से रसूख रखने वाले लोग अपने बाल-बच्चों के ब्याह-शादी के लिए माँग कर ले जाते थे। ठाकुर साहब ज्यों ही जानते कि फलाँ आदमी अपने बेटे के विवाह के लिए घोड़ा माँगने आया है तो वे उसे वह शिकार या युद्ध में काम आने वाला घोड़ा कभी नहीं देते थे। अब यह अलग बात है कि ब्याह-शादी साल में आठ महीने तक होते रहें और युद्ध सारी जिन्दगी में कभी-कभार। शिकार भी साल में दो-चार बार ही होता था। खैर, ज्यों ही आसपास युद्ध की रणभेरी या नगाड़ा बजता था कि ठाकुर साहब का युद्ध वाला घोड़ा अपने कान खड़े कर देता। पूरी ताकत से हिनहिनाता और खुरों से अस्तबल को खोद-खोद कर आसमान सिर पर उठा लेता था। उसे लगता था कि अब उसका समय आ गया है। जीन-काठी उसकी पीठ पर होगी और उसका जन्म सकारथ हो जाएगा। पर उसी अस्तबल में बँधा हुआ वह शादी-ब्याह के काम आने वाला घोड़ा उस रणभेरी, उस नगाड़े को सुनते ही अपना दाना-पानी छोड़ देता और हिनहिनाना भूल कर लीद करने लग जाता था। मित्रों! एक ही मालिक, एक ही अस्तबल, एक ही सईस, एक ही खुर्रा, एक ही रंगरूप और देखभाल बराबरी की। सब कुछ समान। पर एक घोड़ा था कि कनौती खड़ी करके हिनहिनाकर हर्षनाद करता था और अपलक तुरंग होने की घोषणा करके वायु वेग से भागने के लिए खुरों से जमीन को टाप दर टाप खोदता हुआ मालिक को आवाज देता था कि मैं तैयार हूँ। और एक घोड़ा वह भी था। जो यह सब देख कर लीद करने का लग जाता था। मैं आपसे कहने आया हूँ कि पार्टी के अस्तबल में जो संघर्ष और युद्ध तथा शिकार वाले घोड़े हों वे ही निश्चित दिन, निश्चित समय पर आन्दोलन स्थल पर पहुँचें। आप खूब जानते हैं लीद करनेवाले घोड़े वहाँ नहीं......।’ और निधान बाबू का वाक्य पूरा होते-होते सारा माहौल ठहाकों में डूब गया। भाई लोग कनखियों से एक दूसरे को देख रहे थे। पहचानते भी सभी थे कि संघर्ष काल का घोड़ा कौन है और लीद करने वाला थोड़ा कौन है? 

बात को निधान बाबू ने ही सँभाला। उन्होंने कहना जारी रखा - ‘साथियों!  आप जानते हैं कि युद्व रोज-रोज नहीं होते। इसके विपरीत ब्याह-शादी आए दिन होते रहते हैं। आपको पता ही है कि जब शादी का बैण्ड बजता है तब घोड़ों पर क्या बीतती है। ज्यों ही शादी का बैण्ड बजता है, वह लीद करनेवाला घोड़ा बड़ा खुश होता है। उसे लगता है कि अब उसका सिंगार होगा, उसे सजाया जाएगा। उस पर दूल्हा या दुल्हन सजा-धजा कर बैठाया जाएगा। छत्र-चँंवर होंगे। रोशनी होगी। लोग उसके आगे नाचेंगे और वह खुद भी नाचने लग जाता है। जिस समय यह घोड़ा नाचता है उस समय अस्तबल में बँधा हुआ, संघर्ष में जूझने वाला वह घोड़ा मारे शर्म के सिर नीचा करके दाना-पानी छोड़ देता है। मन ही मन सोचता है, ’वाह रे भगवान! मेरे खानदान में तूने ऐसा भी लाल पैदा कर दिया है जो बैंड बाजों पर सरे बाजार नाचता हुआ घूमता फिरता है। लानत है इस अश्व जीवन पर।’ और निधान बाबू हल्का-सा विराम लगाएँ-लगाएँ तब तक फिर एक ठहाका वहाँ गूँज गया। 

निधान बाबू निरन्तर कहते रहे, ‘दोस्तो! मैं संघर्ष काल के घोड़ों को न्यौेता देने आया हूँ। वे इस आन्दोलन के सच्चे आन्दोलनकारी होंगे। वे हिनहिनाते हुए अपनी पार्टी का झण्डा लेकर चल पड़ें। पर साथ ही ब्याह-शादी के घोड़ों को भी आश्वस्त करता हूँ कि लीद मत करो। अपने खूँटे से बँंधे रहो। आराम से खुर्रा करवाओ। चारा-चना डट कर खाओ। हर संघर्ष के बाद, हर युद्ध के बाद एक शान्तिकाल आता है। उसमें फिर बैण्ड भी बजेंगे, बयाह-शादियाँ भी होंगी। मेरा मतलब चुनावों से है। पार्टी टिकिटों के लिए मौसम आएगा ही। उन दिनों वे घोड़े बड़े मजे से जौहर दिखाएँ। ध्यान इतना ही रखना कि आन्दोलन का आरम्भ करने के लिए पार्टी के जो नेतागण आने वाले हैं उनके पास इतना समय नहीं है कि आपकी लीद उठाते फिरें। चाहे हम गिरफ्तार हों न हों, पर उस दिन  मैंदान में हमारे संघर्ष के चिह्न छूटने चाहिए। ऐसा नहीं हो कि शादी-ब्याह के घोड़ों की लीद से मैदान भरा मिले। मैं आशा करता हूँ कि मेरे जाने के बाद आप जो भी सूची आन्दोलनकारियों की बना कर पार्टी को देंगे उसमें मेरी इस कहानी का पूरा ध्यान रखेंगे। मेरी आपसे यह विनम्र प्रार्थना है। आपने पार्टी के आन्दोलन कार्यक्रम को जिस गम्भीरता से लिया है उसके लिए मैं आपका आभारी हूँ। धन्यवाद और जय-हिन्द। भारत माता की जय।’ 

निधान बाबू के इस भाषण के साथ ही प्रखण्ड के अध्यक्ष महोदय ने बैठक समाप्ति की घोषणा कर दी। निधान बाबू के इस भाषण की नोटिंग लेकर सरकार का गुप्तचर सीधा राजधानी पहुँचा। अनुभवी सचिवों ने सरकार को अपनी टिप्पणी केवल एक पंक्ति में दी। वह पंक्ति थी-‘आन्दोलनकारियों की भीड़ आशा और अनुमान से अधिक ही होगी।’

निधान बाबू का दौरा बहुत क्या बहुत ही बहुत सफल रहा।
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कहानी संग्रह के ब्यौरे

मनुहार भाभी - कहानियाँ
लेखक - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - नीलकंठ प्रकाशन, 1/1079-ई, महरौली, नई दिल्ली-110030
प्रथम संस्करण 2001
मूल्य - 150/- रुपये
सर्वाधिकार - लेखक
मुद्रक - बी. के. ऑफसेट, नवीन शाहदरा, दिल्ली-110032



रतलाम के सुपरिचित रंगकर्मी श्री कैलाश व्यास ने अत्यन्त कृपापूर्वक यह संग्रह उपलब्ध कराया। वे, मध्य प्रदेश सरकार के, उप संचालक, अभियोजन  (गृह विभाग) जैसे प्रतिष्ठापूर्ण पद से सेवा निवृत्त हुए हैं। रतलाम में रहते हैं और मोबाइल नम्बर 94251 87102 पर उपलब्ध हैं।

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