शिखर सम्मान (कहानी संग्रह ‘बिजूका बाबू’ की आठवीं कहानी)

 



श्री बालकवि बैरागी के कहानी संग्रह
‘बिजूका बाबू’ की आठवीं कहानी

यह संग्रह, इन कहानियों के पात्रों को
समर्पित किया गया है।



शिखर सम्मान

गाँव कोई बहुत बड़ा नहीं था। यही कोई हजार-पाँच सौ कच्चे मकान और चालीस-पचास पक्के-अधपक्के भवन। गाँव के सबसे बड़े कहे जाने वाले आदमी का एक पूरा पक्का मकान। यही एक सबसे ऊँचा मकान, भवन या महल कुछ भी कह लीजिए। लोग उसे ‘हवेली’ कहते थे।

गाँव के लोगों ने एकत्र होकर गाँव के बीच जैसी जमीन देखकर एक मन्दिर बनाने का फैसला किया। मन्दिर का नक्शा बना। जरा सी ना-नुच के बाद बड़ी हवेली के मालिक ने भी अपनी हवेली से ऊँचा मन्दिर बनाने की सहमति दे दी। हैसियत भर सभी ने पैसा दिया। आस-पास के गाँववालों ने भी सहारा दिया। मन्दिर का निर्माण शुरु हुआ।

देखते-देखते बस्ती के हृदय प्रदेश में एक भव्य और सबसे ऊँचे शिखर वाला शिल्प आकार लेने लगा। आते-जाते लोग पल-दो पल ठिठकते, खड़े रहते, सूचनाएँ लेते-देते, समझने की कोशिश करते, सुस्ताते और चल देते। कारीगर अब शिखर बनाने में लगे हुए थे। ठीक देवमूर्ति के सिर पर एक सन्तुलित ऊँचाईवाला शिखर उभर आया। इसका मध्य स्थल वहाँ था, जिसके ठीक नीचे देव-प्रतिमा की स्थापना होने वाली थी।

देव-प्रतिमा, पास के शहर में एक कुशल मूर्तिकार के यहाँ बन रही थी। वहाँ एक गली में सुनार के यहाँ मन्दिर पर चढ़ाया जानेवाला स्वर्ण कलश बन रहा था। सुनार के पास ही एक ताम्रकार भाई के यहाँ शिखर की पीठ पर चार पत्थरों में फँसाकर मन्दिर की ध्वजा को उड़ाए रखनेवाले ध्वज-दण्ड पर चढ़ाया जानेवाला, ताँबे का डमरू और उस डमरू से बाँधी जानेवाली पीतल की, झनझनानेवाली छोटी-छोटी खूबसूरत घण्टियाँ, उन घण्टियों को लटकानेवाली पतली जंजीरें और उन जंजीरों की कड़ियों में लटकन का काम देनेवाले पीत-पर्ण तैयार किए जा रहे थे। गली के बिलकुल चौकवाले मोड़ पर-एक लुहार भाई को काम दिया गया था कि वह इस ध्वज-दण्ड से भी ऊपर लगाया जानेवाला लोहे का विशाल त्रिशूल तैयार कर दे। उस त्रिशूल के निचले सिरे से लेकर ठेठ मन्दिर की नींव तक धँसाई जानेवाली लोहे की एक लम्बी पत्ती भी लहराती हुई आकार ले रही थी। स्वर्णकार, ताम्रकार और लुहार-सभी मनोयोग और निष्ठा के साथ मन्दिर का ही काम कर रहे थे।

जब मन्दिर बनकर तैयार हो गया तो पण्डितों ने मूर्ति की प्राण-प्रतिष्ठा का मुहूर्त निकाला। अमृत, लाभ और शुभ के चौघड़िए निश्चित किए गए और यह तय किया गया कि मूर्ति की प्रतिष्ठा किस चौघड़िए में होगी, शिखर पर कलश किस चौघड़िए में चढ़ाया जाएगा तथा ध्वज-दण्ड का मंगल पूजन किस चौघड़िए में किया जाएगा। सभी की राय यह थी कि त्रिशूल की स्थापना चंचल चौघड़िए में ही हो।

निर्माण समिति का शिष्टमण्डल गाड़ी-छकड़े लेकर शहर आया तथा मूर्तिकार, स्वर्णकार, ताम्रकार और लुहार का पारिश्रमिक तथा नेग चुकाकर सारी पूज्य और प्रतिस्थापनार्थ निर्मित वस्तुएँ साफ-सुथरे रेशमी कपड़ों और पवित्र काष्ठ से निर्मित पेटिकाओं में बन्द करके गाँव के लिए चल पड़ा। सभी के मनों में एक अतिरिक्त उत्साह था। गाँव में मन्दिर जो बन रहा था! यह शिष्टमण्डल प्राण-प्रतिष्ठा मुहूर्त की तैयारियों की चर्चा भी चलते-चलते कर रहा था। कौन आएगा, कौन नहीं आएगा, किसको निमन्त्रण देना है, किसे नहीं देना है। किसके जिम्मे कौन सा काम रहेगा, आदि-आदि। रास्ता भी कट रहा था और तैयारियाँ भी हो रही थीं।

बहस का विषय यह भी था कि प्राण-प्रतिष्ठा के लिए दूर-पास का कौन परिवार आएगा और कितनी बोली लगाएगा। स्वर्ण-कलश चढ़ाने का यश, नीलामी में किसके नाम पर जाने की सम्भावना है और ध्वज-दण्ड तथा त्रिशूल स्थापना का कितना पैसा वहाँ लगनेवाली बोलियों से वसूला जा सकता है। ध्वज-दण्ड का मेरु, जो सुनार तैयार कर रहा था, उसका नेग कितना होगा और उस मेरु का काष्ठ किस पेड़ का है। इस सारी बहस को, बहस के तर्कों को और सम्भावित परिणामों को देव-प्रतिमा, स्वर्ण-कलश, ध्वज-मेरु का ताम्र-कवच तथा डमरू और लौह त्रिशूल सभी सुन रहे थे। बातचीत में यह भी स्पष्ट होता जा रहा था कि देव-प्रतिमा का सिंहासन गर्भगृह में कितना ऊँचा-है। शिखर की ऊँचाई कितनी है और ध्वज-दण्ड, शिखर से कितना ऊँचा रहकर देव-ध्वजा को फहराएगा तथा ध्वजा के ऊपर तक लगाए जानेवाले लौह त्रिशूल की कुल ऊँचाई, कितनी होगी।

पहली आह रेशमी कपड़े में लिपटे-लिपटे ही स्वर्ण-कलश ने भरी। उसने कहा, ‘इन सारी धातुओं में मैं ही सबसे ज्यादा मूल्यवान हूँ। मेरी गढ़ाई और बनाई में इतना समय, इतनी कला और इतना परिश्रम लगा तब भी यह ताँबे का ध्वज-दण्ड, जो एक काठ पर लिपटा रहेगा, मुझसे भी ऊँचा स्थान पाएगा। क्या यही है मेरा सौभाग्य? प्राण-प्रतिष्ठा के पश्चात् मैं ही वह तत्व हूँ, जिसका दर्शन करके लोग एक बार देव-दर्शन तक को टाल दें तो भी वे स्वर्ग जाएँगे।’ शिखर और कलश दर्शन का इतना महत्व होते हुए भी सोने के सिर पर ताँबा सवार किए जानेवाले क्षण की कल्पना में वह सिसकियाँ भरने लगा।

ध्वज-दण्ड पर लिपटनेवाला ताम्र कवच पास ही रेशम के पवित्र वस्त्र में लिपटा पड़ा था। उसने स्वर्ण-कलश की पीड़ा को समझ स्वर्ण-सिसकियों का मर्म समझते उसे देर नहीं लगी। आखिर उसने सोने से ज्यादा आँच सही थी! कलश को कलेजे से लगाते हुए उसने कहा, ‘बन्धु! मन छोटा मत करो। मेरी नियति को देखकर अपना भाग्य सराहो। तुम तो तब भी प्रभु के ठीक माथे पर तो रहोगे। मुझे तो प्रभु की पीठ के पीछे स्थान दिया गया है। मैं तुमसे कुछ ऊँचा रहूँगा या लगूँगा, इसपर आँसू बहाकर यह मत भूलो कि मैंने तुमसे ज्यादा आँच सही है। यह भी मुझे कोई दुःखद स्थिति नहीं लगती है। मेरा दुःख मूलतः यह है कि यह जो लोहे का त्रिशूल है न, इसकी न कोई कीमत, न इसकी कोई औकात, न इसकी कोई हैसियत, तब भी यह मुझसे भी ऊपर स्थापित किया जाने वाला है। बताओ, क्या यह न्याय हैं? चंचल के चौघड़िए में इसे हम सभी के माथे पर गाड़ दिया जाएगा। क्या लाभ है उन लाभ, अमृत और शुभ के चौघड़ियों का? क्या मतलब हुआ इस देव-प्रतिमा और मूल्यवान धातु-जीवन का? शिखर सम्मान के सही हकदार को यह सम्मान मिलता कहाँ है? सम्मान तो अन्ततः लोहे का ही होना है न! न तो सोना सम्मानित है, न ताँबा, न अष्ट धातु, न अन्य कोई धातु। सबसे ऊँचा स्थान तो लोहे के इस टुकड़े को ही मिलेगा, रोने-चिल्लाने से क्या लाभ?’

लाल सूती कपड़ों में लिपटा हुआ त्रिशूल यह सब सुन रहा था। उसकी आँखों में आँसू आ गए। उसने देव को पुकारा। बोला, ‘प्रभो! मेरा न्याय करो। बेशक ये कीमती धातु के हैं। मुझसे ज्यादा सम्मान इनको इस समय भी मिला है। स्थापना हम सभी की कहीं-न-कहीं शिखर पर ही होगी। पर ये तो अभी भी रेशम के कपड़ों में लिपटकर ले जाए जा रहे हैं। मैं तो अभी भी सूती वस्त्र में बाँधा गया हूँ। जहाँ-तहाँ रखा हुआ हूँ। पर यह तो आप भी जानते हो कि इस सोने और ताँबे से ज्यादा आँच मैंने सही है। लुहार ने मुझे पीटा भी इनसे ज्यादा है। इनपर तो हथौड़ियाँ ही चली हैं, मुझ पर तो हथौड़े  चले हैं। इन पर चलनेवाली हथौड़ियाँ पराए गोत्र लोहे की थीं, पर मुझ पर तो वार और मार करनेवाले हथौड़े भी मेरी ही जाति और मेरे ही गोत्र के थे। मेरी पीड़ा का बदला यदि मुझे सर्वाेच्च स्थान पर स्थापित करके मिल रहा है तो इनको प्रसन्न होना चाहिए। बेशक मेरा मोल इनसे कम है, पर मैंने कष्ट तो इनसे ज्यादा ही झेले हैं। और फिर शिखर पर लगनेवाले धातुओं का यह प्रावधान कोई मैंने तो किया नहीं है। आखिर किन्हीं समझदार सोचवाले मनीषियों ने ही यह स्थान-निर्धारण किया है। अगर ये ज्यादा मूल्यवान धातु के हैं तो उनके मन में यह दो कौड़ी की ईर्ष्या क्यों है?’ और त्रिशूल का कण-कण मानो बगावत पर उतर आया। वह बोले ही जा रहा था। देव-प्रतिमा ने अपनी अन्तर्यामी अरूपा शक्ति से सभी के मन में झाँक लिया था।

मन-ही-मन एक सौम्य मुसकराहट की आभा संसार-प्रतिमा के भीतर सर्जित हो गई। प्रभु ने सभी को अभय का वरदान देते हुए कहा, ‘इस निरर्थक और मलिन विवाद को विराम दो। विराम ही नहीं दो, इसे समाप्त करो। तुम्हारी अपनी-अपनी पीड़ा अपने-अपने स्थान पर सही हो सकती पर  लोक-कल्याण का एक पक्ष तुम सभी से अज्ञात लग रहा है। कुछ दूर की सोचो।’

सभी चौकन्ने होकर भगवान की बात सुनने लगे। प्रभु बोले, ‘गाँव में मन्दिर और मन्दिर के शिखर की सर्वाेच्च ऊँचाई देने की अवधारणा मात्र मन्दिर के महत्व या उसकी दिव्यता और पवित्रता के कारण नहीं है। जिस ऊँचाई को लेकर तुम लड़ रहे हो, उससे भी ऊँचा होता है आकाश, और आकाश में मात्र देवगण ही नहीं होते, वहाँ और भी बहुत कुछ है, जिसके प्रकोप से विश्व-सर्जना को बचाना आवश्यक है। तुमने बादलों का नाम सुना होगा। वर्षा का मतलब तुम समझते होगे। इन्द्र की सत्ता से तुम्हारी सहमति होगी। चंचला, सौदामिनी बिजली की मार का अनुमान तुमको होगा। शिखर को ऊँचाई इसलिए दी गई है कि मन्दिर का शिखर गाँव पर पड़नेवाली बिजली को अपने सिर पर झेलकर एक बार स्वयं ध्वस्त हो जाए, पर वह सारे गाँव को बचा ले। उसपर स्वर्ण-कलश इसलिए चढ़ाया जाता है कि उस चंचला की मार को शिखर-पाषाण से पहले वह झेले और खुद स्वाहा हो जाए, पर शिखर को बचा ले। अगर शिखर बच-गया तो देव-प्रतिमा, जो प्राण-प्रतिष्ठा से प्रतिष्ठित और वरदात्री है, वह बच जाए। ताँबे का ध्वज-दण्ड, कवच और डमरू तथा पीतल की घण्टियाँ, पत्तियाँ इसलिए कलश से भी ऊँची हैं कि पहला वार वे झेल लें और देव-प्रतिमा तथा अमूल्य धातु स्वर्ण को बचा सकें। सबसे ऊपर त्रिशूल को इसलिए रखा है कि उसमें चोट सहने की शक्ति तुम सभी से ज्यादा है और मन्दिर के सहारे लोहे की लम्बी पत्ती को जमीन तक जोड़कर वह शिखर से भूमि तक अपना सम्बन्ध रखे और चंचला विद्युत की पहली मार अपने कलेजे पर झेलकर उसे भूमि में उतार दे, ताकि यदि जले और नष्ट भी हो तो कम-से-कम मूल्य की धातु ही नष्ट हो और उसके कारण ताँबा, सोना, शिखर और देव-प्रतिमा के साथ-साथ पूरा मन्दिर सही-सलामत-बच सके और विद्युत वेग और चपेट को भूमि में उतारकर वह सारे गाँव और जन-जन तथा प्राण-प्राण की रक्षा कर सके। सभी को अपने-अपने जीवट और संघर्ष-शक्ति के अनुरूप स्थान मिला है। अगर बिजली ने चोट करके तुम सभी को नष्ट कर दिया और प्राण-प्रतिष्ठित प्रतिमा ही नष्ट हो गई तो कौन आएगा दर्शन करने? क्या मतलब रहेगा उस मन्दिर का? तुम जले-भुने बैठे रहना अपने-अपने शिखरों पर। मन्दिर की, गाँव और जनजीवन की रक्षा आकाश से टूटनेवाली बिजलियों से वही कर सकेगा, जिसका सिर आकाश की छाती पर टिका हो, जिसके पाँव जमीन से जुड़े हों, जिसने अपनी कर्मठ भुजाओं में मन्दिर के पूरे आकार को कस रखा हो, जिसने सबसे ज्यादा आग का सामना किया हो, जिसने सबसे ज्यादा अपने ही खानदान और गोत्रवालों की चोटें सही हों, जो आकाशीय प्रहार को अपने कर्मठ कलेजे पर झेलने की शक्ति रखता हो, जो स्वयं को नष्ट करके भी पूरी आकाशीय आग को धरती में उतारने का दम रखता हो, और समय आने पर यदि उसे बदलने का उपक्रम करना पड़े तो जो कम-से-कम मूल्य चुकाकर बदल दिया जा सके, ताकि किसी लखपति-करोड़पति का मुँह जनजीवन को नहीं देखना पड़े। जो अकिंचन हो, आसान हो और सहज उपलब्ध हो, शिखर सम्मान का उचित और सर्वाेपरि अधिकारी वही होगा।

‘अपने-अपने स्थान पर सजीव बने रहो। आकाश को अपने माथे पर झेलने की अपनी क्षमता को सँभालो। एक-दूसरे से ईर्ष्या नहीं करो। तुम जानते नहीं हो कि प्राण-प्रतिष्ठा के समय सबसे बड़ी बोली मेरे निमित्त लगेगी, गाँव के गरीब हाथ मलते देखते रह जाएँगे। मेरे बाद सबसे बड़ी बोली स्वर्ण-कलश की लगेगी, गाँव का गरीब फिर टुकुर-टुकुर देखता रह जाएगा। उसके बाद फिर सबसे बड़ी बोली ताँबे के इस ध्वज-दण्ड, कवच और डमरू आदि की लगेगी। गाँव के निर्धन फिर मन मसोसते खड़े रह जाएँगे। केवल यह लोहे का सस्ता सा त्रिशूल ही है, जिसपर सबसे अन्त में बोली लगेगी और गाँव के गरीबों को इसी पर अपना पसीना न्योछावर करने का अवसर मिलेगा। गरीब-से-गरीब आदमी भी इसपर बोली लगाने का साहस कर सकेगा। जिसे एक भी गरीब का सहारा मिल जाएगा, वह कितना ऊँचा उठ जाएगा, इसपर खुशी मनाओ।

‘शिखर सम्मान की समीक्षा करते समय तुम्हें कई का ध्यान रखना होगा। अगर कीमती, मूल्यवान और ऊँचे खानदान में जन्म लिया है तो ईर्ष्या जैसी ओछी आग से बचो। मुझे ही देख लो मैं बिलकुल पत्थर का हूँ और सबसे नीचे, हाँ, हाँ तुम सभी से नीचे स्थापित किया जाऊँगा। इसीलिए पूजा भी जाऊँगा। अगर मूल्यवान होने का ही दुःख है तो फिर गिन लो, गणित लगा लो। लोहे का यह त्रिशूल तो तब भी मुझसे ज्यादा मूल्यवान धातु का है। इस बेचारे ने तो कभी नहीं कहा कि यह पत्थर का टुकड़ा क्यों प्राण-प्रतिष्ठा पा रहा है? एक तुम हो जो बराबर रोए जा रहे हो। वह ‘प्राण-प्रतिष्ठा’ निरर्थक है, जिसके आस-पास जनजीवन के लिए ‘प्राण-प्रतिष्ठा’ के उपादान नहीं हों। तुम्हारा सौभाग्य है कि तुम जनजीवन की ‘प्राण-प्रतिष्ठा’ के उपादान हो।’ और देव-प्रतिमा चुप हो गई। गाड़ी-छकड़े चलते रहे।

शिखर सम्मान की इस परम्परा और प्रस्थापना का विवेचन न जाने कब होगा।

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‘बिजूका बाबू’ की सातवी कहानी ‘आसमानी सुलतानी’ यहाँ पढिए।

‘बिजूका बाबू’ की नौवी कहानी ‘आम की व्यथा’ यहाँ पढिए।


कहानी संग्रह के ब्यौरे -

बिजूका बाबू -कहानियाँ
लेखक - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - प्रभात प्रकाशन, 4/19, आसफ अली रोड़, नई दिल्ली-110002
संस्करण - प्रथम 2002
सर्वाधिकर - सुरक्षित
मूल्य - एक सौ पचास रुपये
मुद्रक - नरुला प्रिण्टर्स, दिल्ली

  


 



  


 


 

 

   

   



 

 

 

 

 


 

  

 


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