करके देखो




श्री बालकवि बैरागी के कविता संग्रह
‘आलोक का अट्टहास’ की पैंतीसवीं कविता 




करके देखो

घर-घर, देहरी-देहरी
छज्जे-छज्जे, आले- आले
सुहागनों ने रख दिए
अपने दीये
बरसा दिए अपने
आँचलों से
आसमान भर उजाले।
जगमग हो गया जगत
हर मुँडेर हो गई सुहागन
तब भी तुम्हारी
उदासी नहीं गई।
शर्तें लगाते हो
रोज नई-नई,
‘ऐसा हो तो वैसा करूँ
वैसा हो तो ऐसा करूँ’
ऐसे में कौन आएगा
दीया रखने
तुम्हारे सुनसान बियाबान में
शोकसभा करते रहो
जिन्दगी भर
अपने मसान में ।
फुरसत नहीं है दुनिया को
जो तुम्हारे सुख की सोचे
अपनापन देकर
तुम्हारे आँसू पोंछे।
अपना दीया खुद बनाओ
उसे नेह से भरो
बाती रखो संघर्षवती
संकल्पशील तीली की
जुगत करो।
दोस्ती करो उजाले से
बात करो
अपने गुमसुम आले से
देहरी लीपो
माँडो एकाध माँडणा
टेढ़ा-मेढ़ा।
और सुरे-बेसुरे ही सही
अगर तुमने ‘हीड़’
का कोई सुर छेड़ा
तो जुट जाएँगे लोग
कट जाएँगे सारे मनोरोग
अपने आप सज जाएगी
लक्ष्मी-पूजा की छोटी-बड़ी थाली
भाग खड़ी होगी
अमावस काली
कहेगी,
‘अरे! अरे!!
ये तो मनाने लगा
अच्छी -खासी दीवाली।’
मरी उदासी को कूड़े पर फेंका
और कुछ नहीं
कर पा रहे हो तो
ऐसा ही करके देखो।
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संग्रह के ब्यौरे
आलोक का अट्टहास (कविताएँ)
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - सत्साहित्य प्रकाशन,
          205-बी, चावड़ी बाजार, 
          दिल्ली-110006
सर्वाधिकार - सुरक्षित
संस्करण - प्रथम 2003
मूल्य - एक सौ पच्चीस रुपये
मुद्रक - नरुला प्रिण्टर्स, दिल्ली



















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