वासुदेव धर्मी




श्री बालकवि बैरागी के कविता संग्रह
‘आलोक का अट्टहास’ की छत्तीसवीं कविता 




वासुदेव धर्मी

विशाल, विराट् और
वन्दनीय वट-वृक्षों की
वनस्थली में
मैं अकेला हूँ
पीपल का पेड़।
जिसके पास
न कोई जटा
न कोई जूट
जिसपर न किसी का घोंसला
न किसी चील
या गिद्ध की लम्पट-लूट।

आते-जाते धरा-पुत्र
बाँध देते हैं, अपना पशुधन
मेरे तने से
यदाकदा आ जाती हैं
दो-चार सुहागनें
चढ़ा जाती हैं एकाध श्रीफल
लगा जाती हैं कुंकंुम
कर जाती हैं गिनकर
सात परिक्रमाएँ
ढाँककर माथा
माँग लेती हैं
अपने अहिवात की
शुभकामनाएँ।

जती-जोगी, बाबा-बैरागी
धूनी रमाते हैं वटों के नीचे
लेकिन
मानते हैं मुझे वासुदेव
पता नहीं क्यों
करते हैं मेरी अभ्यर्थना
अब मैं भी करूँ
किस-किसको मना?

चलती है ज्यों ही
जरा सी आड़ी-टेढ़ी हवा
काँप उठता है मेरा पत्ता-पत्ता
और तब चीख पड़ती है
वट-वृक्षों की अहम पीड़ित सत्ता।
डाँटते हैं मुझे, समझाते हैं,
‘हवा के हलके से आघातों से
यों क्या काँप-काँप जाते हो
जरा सी चोट से भी
हाँफ जाते हो?
हमें देखो,
आँधी-तूफान सब झेल जाते हैं
जड़ बनती जटाओं के सहारे
सारे खेल, खेल जाते हैं।
यों हाँफना काँपना बन्द करो
ध्यान रखो अपनी ऊँचाई का
संवेदना को समझाओ
भावना की भाँवर का प्रबन्ध करो।’
और..... मैं.....
समझा नहीं पाता हूँ
इन विराट वटों को
संवेदना-वेदना और
वायुवेग से मिताई
मेरा मूल-धन है

परिवेश को अनागत से
अवगत रखना
मेरा तपोव्रत परम पवित्र है
करुण हो या कठोर
किन्तु हवा की हलकी सी थपकी से
काँप जाना
मेरे पत्तों का चरित्र है।
मेरे पास प्राणवायु तक
मेरी अपनी है
मेरी अपनी ही प्राणवत्ता है
यही मेरी अस्मिता
और इयत्ता है।
सम्भावित वायुवेगों की
पूर्व सूचनाएँ मैं ही देता हूँ
अपशकुनों और अपशकुनियों से
सावधान रखता हूँ, तुम्हे
अपने इस वासुदेव धर्म के बदले
तुमसे क्या लेता हूँ ?

तुम बेशक बनाने दो
अपने घर में उल्लुओं को घोंसले
अपनी अनन्त जटाओं को
अहर्निश बढ़ाओ
पर मर्म समझो मेरे वासुदेव धर्म का
एक चरित्रवान से
उसका चरित्र
मत छुड़ाओ।
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संग्रह के ब्यौरे
आलोक का अट्टहास (कविताएँ)
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - सत्साहित्य प्रकाशन,
          205-बी, चावड़ी बाजार, 
          दिल्ली-110006
सर्वाधिकार - सुरक्षित
संस्करण - प्रथम 2003
मूल्य - एक सौ पच्चीस रुपये
मुद्रक - नरुला प्रिण्टर्स, दिल्ली



















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