नये सिरे से



श्री बालकवि बैरागी के कविता संग्रह
‘रेत के रिश्ते’ 
की छब्बीसवीं कविता 

यह कविता संग्रह
श्री पं. भवानी प्रसादजी मिश्र को 
समर्पित किया गया है।


नये सिरे से

फिर कस गई हैं उनकी मुट्ठियाँ
फिर भिंच गये हैं उनके जबड़े
फिर आँखों में उतर आया है
उनका आत्म-विद्रोह।

शायद वे फिर खा गये हैं धोखा
अपनी ऊर्जा का आकलन
फिर से करने लगे हैं वे
फिर जुटने लगे हैं उनके जुलूस

फिर ले रहे हैं सुराग
वैसा ही सब कुछ।
फिर शुरु हो गया है
नये सिरे से
पहिले घूँसा तान कर
केवल कसमसा कर रह गये थे वे,
लगता है इस बार वे कुछ करके रहेंगे।

वैसा, जैसा कि पहिले होना था
पर हुआ कुछ नहीं
सोचता हूँ क्यों उन्होंने मेरी कनपटी को
आज तक छुआ नहीं।

स्फटिक पत्थर
जितना ठण्डा ऊपर से होता है
उतना भीतर से नहीं होता
चिनगारियों की चिनाव बहती है
उसके कलेजे में
जब वह पड़ जाता है किसी गोफन में
और कर बैठता है चोट।
तो गाड़ देता है पीढियों के क्रान्ति-ध्वज
आदमखोरों के भेजे में।
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रेत के रिश्ते - कविता संग्रह
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - साँची प्रकाशन, बाल विहार, हमीदिया रोड़, भोपाल
प्रथम संस्करण - नवम्बर 1980
मूल्य - बीस रुपये
मुद्रक - चन्द्रा प्रिण्टर्स, भोपाल
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