मर्दों की कविता



श्री बालकवि बैरागी के कविता संग्रह
‘रेत के रिश्ते’ 
की इकतीसवीं कविता 

यह कविता संग्रह
श्री पं. भवानी प्रसादजी मिश्र को 
समर्पित किया गया है।


मर्दों की कविता

या तो सूखा या बेहद बरखा
यानी कि
दोनों तरफ दुश्मन पानी
और गडबड़ा जाये हर भविष्यवाणी।
एक के बाद दूसरा अभाव
तिस पर फिर मानव का स्वभाव?
जीना और वह भी ऐसा
कि राम ही जाने
जाने कैसा।
उस पर फिर अमावस?
वह भी उजास की आस में
चिकनी और काली
अब कैसे मने दीवाली?
पर आ ही गई, है आँगन में तो
स्वागत करो
जैसी हैसियत, वैसी हिम्मत
जैसी हिम्मत, वैसा हौसला
चलो गूँधो मिट्टी
बनाओ दीया।
ढूँढो कोई चिन्दी या फटी लत्ती
बँटो बत्ती
नहीं है तेल तो रोओ मत
निचोड़ो शरीर
नितारो पसीना
और फिर चकमक लो संकल्प की।
अब मारो चोट, चमकाओ चिनगारी,
छँटने दो आग के फव्वारे
झड़ने दो फुलझड़ी
बारूद की बदतमीजी में लगा दो पलीता,
दुःख का क्या? वह तो पहिले ही गया-बीता।
छाती ठोक के आसमान से बोलो
तू एक नहीं लाख बरस, मत बरस,
और तेरा मन पड़े उस बस्ती को डुबा दे
परस-परस 
हम भी हैं मरद के बच्चे
धरती पर जब भी चलेगी
मरदों की चलेगी
और तू बरसाता रह
अभाव, अँधियारा, अनय और उल्का,
मर्दों के घर दीवाली की रोशनी
जलेगी, जलेगी और करोड़ बार जलेगी।
बहुत हो गई तेरी बक-बक,
अपनी आसमानी सुल्तानी
अपने घर रख।
-----
 

रेत के रिश्ते - कविता संग्रह
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - साँची प्रकाशन, बाल विहार, हमीदिया रोड़, भोपाल
प्रथम संस्करण - नवम्बर 1980
मूल्य - बीस रुपये
मुद्रक - चन्द्रा प्रिण्टर्स, भोपाल
-----
 
 

 






















1 comment:

आपकी टिप्पणी मुझे सुधारेगी और समृद्ध करेगी. अग्रिम धन्यवाद एवं आभार.