जब बैरागीजी को थाने में कविता सुनानी पड़ी

बी. एल. पावेचा


सन् 1965 में मेरा तबादला, सिविल जज मनासा के पद पर हुआ। तब तक बैरागीजी देश के अच्छे कवि के रूप में स्थापित हो चुके थे और वे मेरे लिए सम्माननीय हो चुके थे। मनासा में नौकरी ज्वाइन करने के बाद उनसे मेरी घनिष्ठता तो हुई किन्तु उससे पहले उनके बारे में कुछ अनूठी और रोचक जानकारियाँ मिलीं।

बहुत कम लोगों को मालूम होगा कि उनका मूल नाम नन्दराम दास बैरागी है। उनके पिताजी का नाम द्वारकादासजी बैरागी है। मुझे यह भी मालूम हुआ अर्थोपार्जन के लिए उन्होंने अपना केरियर वकील के मुंशी के रूप में शुरु किया था। बहुत कम लोगों मालूम है कि वे मनासा के तत्कालीन अग्रणी वकील जमनालालजी जैन साहब के मुंशी थे। वे (बैरागीजी) प्रतिभाशाली थे और भाषा पर उनका अधिकार था। इसलिये, जो काम दूसरे मुंशियों के लिए घण्टों का होता था, उस काम को बैरागीजी मिनिटों में निपटा देते थे।

मनासा के वकीलों और मुंशियों ने एक बड़ी रोचक जानकारी दी। मुंशीगिरी करते हुए बैरागीजी को दिन भर में जो कमाई होती थी, उससे वे, शाम को घर जाने से पहले कोर्ट के सारे मुंशियों को इकट्ठा कर, चाय-समोसे का नाश्ता कराते और बची रकम लेकर घर जाते थे। धन-संचय की इच्छा उनमें कभी नहीं रही। उन्हें धन से नहीं, सरस्वती से मोह था। यही उनकी प्रकृति थी।

आपने बैरागीजी को राष्ट्रीय मंचों पर कविता-पाठ करते देखा-सुना होगा। किन्तु शायद ही कोई कल्पना कर सकेगा कि बैरागीजी पुलिस थाने में कविता-पाठ करें। लेकिन बैरागीजी को पुलिस थाने में कविता-पाठ करना पड़ा था। मैं इस अनूठी घटना का चक्षु-साक्ष्य हूँ।

मेरे कार्यकाल मे, मनासा में गुलाबसिंहजी थानेदार थे। उनका तबादला हो गया। थाने के पुलिस कर्मचारियों ने उनका विदाई समारोह आयोजित किया। चाय-पानी, स्वल्पाहार की व्यवस्था थी। मैं भी इस आयोजन में निमन्त्रित था। मैं पहुँचा। थोड़ी देर में बैरागीजी भी आ पहुँचे। वे भी वहाँ निमन्त्रित थे। आप विचार कीजिए, थानेदार के तबादले की पार्टी में चाय-पानी के अलावा और क्या हो सकता है? कविता कैसे हो सकती है? लेकिन गुलाबसिंहजी ने अचानक ही दादा बैरागीजी से कविता सुनाने की फरमाइश कर दी। लेकिन दादा ने इस फरमाईश को सहज भाव से पूरा कर दिया। उन्होंने क्षण भर भी नहीं सोचा कि मैं अखिल भारतीय स्तर का कवि हूँ। इन पुलिसवालों को कविता क्यों सुनाऊँ? उन्होंने बहुत सुन्दर कविता सुनाई। कविता की शुरुआती पंक्तियाँ मुझे अब भी याद हैं - ‘जब तक मेरे हाथों में है नीलकण्ठिनी लेखनी, दर्द तुम्हारा पीने से इनकार करूँ तो कहना।’

वे जितने अच्छे कवि थे, उतना ही समृद्ध, उतना ही मधुर कण्ठ उन्होंने पाया था। इसके चलते उनकी कविता का प्रभाव अविस्मरणीय होता था।

थाने में कविता पाठ को लेकर दादा और मैं एक मामले में बराबर रहे। उन्होंने इससे पहले और बाद में, मृत्यु-पर्यन्त कभी थाने में कविता-पाठ नहीं किया और मैंने भी उससे पहले से लेकर अब तक किसी कवि को थाने में कविता-पाठ करते नहीं देखा-सुना।

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पावेचाजी के दफ्तर में, पावेचाजी के साथ मैं।


दादा से जुड़ा, पावेचाजी का एक और रोचक संस्मरण और पावेचाजी का संक्षिप्त परिचय यहाँ पढ़िए। 


पावेचाजी का यह संस्मरण मेरे यू ट्यूब चेनल ‘बैरागी की बातें’ पर यहाँ देखा-सुना जा सकता है।


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