हो अगर मंजूर

श्री बालकवि बैरागी के काव्य संग्रह 
‘वंशज का वक्तव्य’ की बीसवीं कविता

यह संग्रह, राष्ट्रकवि रामधरी सिंह दिनकर को समर्पित किया गया है।




हो अगर मंजूर

प्राण
कभी नहीं लेता है प्रभु।
लेता है केवल पवन
याने कि झीनी और अमूर्त साँस।
मात्र एक तत्व।
शेष चार
जल, थल, आकाश और अनल
मूर्त का यह सारा जंगल
छोड़ देता है तुम्हारी क्षमता पर।
तो भी तुम्हारी आर-पार पीढ़ियाँ
मचा देती हैं कुहराम।
रचती हैं समाधियाँ, बनाती हैं स्मारक
छापती हैं स्मारिका
तब प्रभ की नीहारिका
मुसकातो हैं अनन्त मुसकानें ।
हो अगर स्वीकार
तो चलो प्रभु के दरबार
मैं करवा देता हूँ तुम्हारा समझौता
कि वह नहीं छीनेगा तुमसे
तुम्हारी साँस का सुग्गा
तुम उसे शौक से पालो
बस लौटा देना उसे उसका पिंजरा
हो अगर मंजूर
तो चलो, सारा राजपाट सम्हालो!
-----










वंशज का वक्तव्य (कविता संग्रह)
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - ज्ञान भारती, 4/14,  रूपनगर दिल्ली - 110007
प्रथम संस्करण - 1983
मूल्य 20 रुपये
मुद्रक - सरस्वती प्रिंटिंग प्रेस, मौजपुर, दिल्ली - 110053



यह संग्रह हम सबकी ‘रूना’ ने उपलब्ध कराया है। 
‘रूना’ याने रौनक बैरागी। दादा की पोती। 
रूना, राजस्थान राज्य प्रशासनिक सेवा की सदस्य है और यह कविता प्रकाशन के दिन उदयपुर में अतिरिक्त आबकारी आयुक्त के पद पर पदस्थ है।


No comments:

Post a Comment

आपकी टिप्पणी मुझे सुधारेगी और समृद्ध करेगी. अग्रिम धन्यवाद एवं आभार.