हो गया फैसला

श्री बालकवि बैरागी के काव्य संग्रह 
‘वंशज का वक्तव्य’ की नौंवी कविता

यह संग्रह, राष्ट्रकवि रामधरी सिंह दिनकर को समर्पित किया गया है।




हो गया फैसला



माना कि तम बहुत घना है
माना कि कण्ठ खोल कर गाना मना है
पर इसका अर्थ यह नहीं कि
बात लाइलाज हो गई है
और दिनकर की नवासी वह किरन
कतई बाँझ हो गई है।
कभी कभी चाँदनी भी नखरों वाली हो जाती है
और प्रकाश की बौखलाहट
रात से भी ज्यादह काली हो जाती है ।
याने कि अँधेरा, अँधेरा नहीं
एक अहसास है
हकीकतन वह बहुत दूर है
पर ऐसे वह तुम्हारे
दिल और दिमाग के आसपास है!
तो फिर नकारो इस अहसास को
रात और अँधेरे के ऊलजलूल आभास को।
तुम पूछोगे 
कहाँ है किरन?
किधर है रोशनी?
और तब मुझे कहना है
मुझे क्या, मेरे कवि को ऊगना है
कि ये घबराहट ये निकम्मापन
दिमागी आवारगी के रिावाय
कुछ भी नहीं है।
बात फकत इतनी-सी है कि
तुमने अपने आप से बात करना
बन्द कर दिया है।
तुम सिर्फ दशा को देख रहे हो
दिशा को नहीं।
विचलित हो गया है तुम्हारा धु्रव
आकाश जहाँ का तहाँ है
सूरज बिलकुल वैसा का वैसा है
मौसम की हर हरकत के बावजूद
फसल वो की वो है!
सविता ने संन्यास नहीं लिया है
तुम कामचोर हो गये हो
याने कि उपदेशक
और उससे भी आगे बढ़कर
नेता
अर्थात् अँधेरे के अभिनेता।
उजेला अपने आप में कोई नारा नहीं लगाता
वह आसमान तक उजला और
साफ होता है।
वह रात की तरह अपने भाग्य पर कब रोता है?
तुम जिसे तम समझ रहे हो न
वह तमतमाहट है उजाले की
तुम जिसे प्रतिबन्ध समझते हो न
वह इजाजत है भैरवी के पनाले की।
सच तो यह है कि
तुम्हारे मुँह बहुत-अधिक खुल गये हैं..
और आँखें चौंधिया कर
चिपचिपी हो गई हैं
बोटियों का फड़कना
मुट्ठियों का भिंचना
गले का फटना
और चाल का भरभरा जाना
धौले दोपहर भटकने जैसा है।
अब तुम खुद देखो कि
तुम्हारा हाल कैसा है?
प्रकाश के प्रमाद को अवसाद मत मानो
इस घुटन को शताब्दि का प्रसाद मत मानो।
वर्तमान में भविष्य खोजने का
शायद यही समय है।
तुम मानो तो मानो कि तम बहत घना है
तुम मानो तो मानो कि कण्ठ खोल कर
गाना तक मना है
पर मुझसे क्यों कहते हो कि मैं भी
यह सब मानूँ?
जैसा तुम जान रहे हो
वैसा मैं भी जानूँ?
तुम आज का रोना रो रहे हो
मैं भविष्य की बात कर रहा हूँ
मैं समझ गया
तुम शैतानों को मारना चाहते हो
देवताओं और देवदूतों को
ढालना चाहते हो
याने तुम समय को नष्ट करने पर
तुले हुए हो और
आज की तारीख में
‘मनुष्य’ का निर्माण टालना चाहते हो।
बस हो गया फैसला
कोई कह गया है न
काम बहुत है और उम्र छोटी है
तो बात यूँ खत्म हुई कि
मेरी नजर में तुम महान हो
और तुम्हारी नजर में
मेरी अक्कल मोटी है।
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वंशज का वक्तव्य (कविता संग्रह)
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - ज्ञान भारती, 4/14,  रूपनगर दिल्ली - 110007
प्रथम संस्करण - 1983
मूल्य 20 रुपये
मुद्रक - सरस्वती प्रिंटिंग प्रेस, मौजपुर, दिल्ली - 110053




यह संग्रह हम सबकी ‘रूना’ ने उपलब्ध कराया है। 
‘रूना’ याने रौनक बैरागी। दादा की पोती। 
रूना, राजस्थान राज्य प्रशासनिक सेवा की सदस्य है और यह कविता प्रकाशन के दिन उदयपुर में अतिरिक्त आबकारी आयुक्त के पद पर पदस्थ है।


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