दुःख-सुख जो चाहे दे डालो

श्री बालकवि बैरागी
के प्रथम काव्य संग्रह ‘दरद दीवानी’ की दसवीं कविता



                        दुःख-सुख जो चाहे दे डालो

                                मैंने झोली फैला दी है।


                नाम तुम्हारा लेकर मैंने कुटुम्ब कबीले छोड़ दिये

                कितने ही नयनों को प्रियतम, मैंने गीले छोड़ दिये

                        पग में पायल पहन तुम्हारी

                        सारी दुनिया ठुकरा दी है।

                                        दुःख-सुख जो चाहे.....


                रूठी नींदें, टूटे सपने, विवश उमंगें, व्यथित बहारें

                आहें, आँसू, अन्तर-पीड़ा, बैरन रातें, दिन दुखियारे

                        सब कहते हैं मैंने अपनी

                        नाव भँवर में उलझा दी है।

                                        दुःख-सुख जो चाहे.....


                अपने हाथों जो भी दोगे, हँस कर शीश चढ़ाऊँगी

                इतना चल कर आई हूँ तो, खाली हाथ न जाऊँगी

                        आज प्रतीक्षा की परिभाषा

                        अभिलाषा को सिखला दी है।

                                        दुःख-सुख जो चाहे.....


                द्वार उघारो, बाहर आओ, जो देना हो, झट दे डालो

                मेरा सरबस लेनेवाले, ड्योढ़ी पर से ही मत टालो

                        दाता होकर क्यों ड्योढ़ी की

                        भीतर साँकल लगवा दी है।

                                        दुःख-सुख जो चाहे.....


                अच्छा, अच्छा, कुछ मत देना, पर सूरत तो दिखला जाओ

                जो कुछ मेरे पास बचा है, वह ही लेने को आ जाओ

                        वर्ना फिर बस राख मिलेगी

                        कल ही मेरी शादी है।

                                        दुःख-सुख जो चाहे.....

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दरद दीवानी
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - निकुंज निलय, बालाघाट
प्रथम संस्करण - 1100 प्रतियाँ
मूल्य - दो रुपये
आवरण पृष्ठ - मोहन झाला, उज्जैन
मुद्रक - लोकमत प्रिंटरी, इन्दौर
प्रकाशन वर्ष - (मार्च/अप्रेल) 1963












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