‘वे’ अप्रसन्न और खिन्न होकर ही नहीं, मुझ पर कुपित होकर भी गए। जाते-जाते उलाहना दे गए - ‘लोग तो मौके तलाशते हैं और एक आप हैं कि मैं आपका फोटू छपवाने का मौका लेकर आया हूँ और आप मुझे मना कर, बेरंग लौटा रहे हैं।’
वे एक संस्था चलाते हैं। कुछ न कुछ उठापटक, कोई न कोई आयोजन कर, अखबारों में बने रहने के प्रयत्न करते रहते हैं और अपनी मनोकामना पूरी करने में सफल भी होते हैं। इस बार वे गरीब छात्रों को किताबें और शाला के गणवेश दान करने के लिए आयोजित समारोह में मुझे मुख्य अतिथि बनाना चाहते थे। मैंने पहली ही बार में मना कर दिया।
ऐसे आयोजन मुझे नहीं सुहाते। गरीब और गरीबी का अपमान लगते हैं मुझे ऐसे आयोजन। लोगों के जमावड़े के बीच किसी बच्चे को मंच पर बुलाकर उसे किताबें/कपड़े (या ऐसा ही कोई ‘दान’) देना मुझे क्षुब्ध कर देता है। ऐसे क्षणों में मुझे हर बार लगता है कि हम उस बच्चे को न केवल उसकी गरीबी अनुभव कराते हैं अपितु उसके समुचित लालन-पालन-शिक्षण के लिए उसके पिता-माता की अक्षमता भी उसे अनुभव कराते हैं। इसका सुनिश्चित परिणाम होता है - उस बच्चे में आजीवन हीनता बोध रोप देना। मेरा बस चले तो मैं ऐसे आयोजनों को ‘दण्डनीय अपराध’ बना दूँ। किन्तु भगवान गंजे को नाखून नहीं देता। लेकिन मेरा नियन्त्रण तो मुझ पर है ही। इसलिए ऐसे आयोजनों के निमन्त्रणों को, पूरी बात सुने बिना ही अस्वीकार कर देता हूँ। इसके बाद भी, एक-दो अवसर ऐसे आए जहाँ मुझे संकोचग्रस्त होकर जाना पड़ा। उनकी ग्लानि अब तक बनी हुई है।
क्या ऐसा नहीं किया जा सकता कि जिन बच्चों की सहायता की जानी है, उनके विद्यालयों के प्रमुखों को सामग्री सौंप दी जाए? या, ऐसे बच्चों के घर जाकर उन्हें या उनके माता-पिता को सामग्री दे दी जाए? ऐसा ‘दान’ करने में वास्तविक सेवा भाव तो होता ही होगा किन्तु इसमें तो तनिक भी संशय नहीं कि प्रदर्शन और प्रचार भाव भरपूर रहता है। मेरे बताए उपायों में आयोजन के प्रदर्शन का घाटा भले ही उठाना पड़ेगा किन्तु विद्यालय प्रमुख को या बच्चे के पालकों को सामग्री सौंपने के चित्र अवश्य खिंचवाए जा सकते हैं और अखबारों को भेजे जा सकते हैं।
इसी तरह, शासकीय चिकित्सालयों में भर्ती रोगियों को फल-बिस्किट वितरित करने का उपक्रम भी मुझे समझ नहीं आता। रोगी के या उसके परिचारक के हाथों में एक केला और बिस्किट का एक पेकेट देते हुए, पाँच-सात लोगों के फोटू जब अखबारों में देखता हूँ तो तनिक विचित्र लगता है। दो-तीन रुपयों की सामग्री और फोटू कम से कम पाँच रुपयों का! यह तब और अधिक अखरता है जब किसी लेटे हुए रोगी के पेट या छाती पर केला-बिस्किट रख कर फोटू खिंचवाए जाते हैं। मुझे तो इस बात पर भी आश्चर्य होता है कि चिकित्सालय के प्रभारी/प्रशासकीय अधिकारी/चिकित्सक को ऐसे उपक्रमों पर आपत्त् क्यों नहीं होती? इस तरह बाँटी गई सामग्री यदि विषाक्त अथवा प्रदूषित हुई और कभी किसी रोगी पर उसका घातक/प्राणलेवा प्रभाव हो गया तो कौन जवाबदार होगा? क्या ऐसा नहीं हो सकता कि रोगियों को वितरित की जानेवाली ऐसी सामग्री चिकित्सालय के प्रभारी/प्रशासकीय अधिकारी/चिकित्सक को सौंप दी जाए और इसी क्षण का फोटू खिंचवा कर छपवा लिया जाए? इसी के समानान्तर यह सवाल भी मेरे मन में कौंधता है कि ऐसी ‘सेवा’ के लिए केवल शासकीय चिकित्सालय ही क्यों चुने जाते है? निजी चिकित्सालयों में भी तो गरीब रोगी भर्ती रहते हैं! उनकी ‘सेवा’ करने का विचार क्यों किसी को नहीं आता?
अत्यधिक अनिच्छापूर्वक मैं यह तर्क स्वीकार कर लेता हूँ कि ऐसे आयोजनों/उपक्रमों के प्रदर्शन/प्रचार से लोगों को ‘सेवा’ करने की प्ररणा मिलती है। किन्तु इसका अर्थ यह तो कदापि नहीं होता कि इसके लिए किसी को उसकी असहायता, अक्षमता, निर्धनता का सार्वजनिक बोध कराया जाए। ‘सेवा’ में यदि ‘सम्मान भाव’ नहीं है तो वह ‘सेवा’ अपना अर्थ खोकर ‘असम्मान‘ और ‘सार्वजनिक उपहास’ में बदल जाती है। यह तब और अधिक आपत्तिजनक हो जाता है जब हम अपना सम्मान बढ़ाने के लिए किसी का ऐसा, यन्त्रणादायक असम्मान करें। हम कहावतें और मुहावरे खूब वापरते हैं। कहते हैं कि दूसरों के साथ हम वैसा ही व्यवहार करें जैसा अपने साथ चाहते हैं। कहते हैं कि हम जैसा बोएँगे, वैसा ही काटेंगे। ऐसे में भला, किसी का असम्मान (वह भी सार्वजनिक/सामाजिक रूप से) कर हम खुद के लिए कैसे सम्मान प्राप्त कर सकते हैं? असम्मान बोकर सम्मान की फसल कैसे काटी जा सकती है?
‘दान’ की बात जब-जब भी आती है तब-तब हमें परामर्श दिया जाता है कि दान इस तरह किया जाना चाहिए कि दाहिना हाथ दे तो बाँये हाथ को मालूम न पड़े। दान का बखान, दान की महिमा और महत्व नष्ट करता है। दान यदि अपना मूल सरोकार और चरित्र खो दे तो वह अन्याय से आगे बढ़कर अत्याचार बन जाता है। अपने जीवन के शुरुआती कुछ वर्षों तक मैंने, घर-घर जाकर, ‘रामजीऽ ऽ ऽ ऽ की जय’ की हाँक लगा-लगा कर मुट्ठी-मुट्ठी आटे की भीख माँगी है। ऐसे आयोजनों में जब-जब भी किसी बच्चे को किताबें, कपड़े या और कोई सामग्री लेने के लिए हाथ बढ़ाते देखता हूँ तो मुझे वह बच्चा नहीं, मुट्ठी भर आटा लेने के लिए अपना लोटा बढ़ाते हुए खड़ा मैं ही दिखाई देता है मुझे।
सम्भव है, आत्मपरकता के आवेग के अधीन मेरी बातें ‘अपवाद’ या ‘अशियोक्ति’ लगे। किन्तु मुझे यह कहने से मत रोकिए कि ‘दान’ या ‘सेवा’ का आधार ‘मानवीयता’ और ‘सामनेवाले का सम्मान’ तो होना चाहिए। यदि ऐसा नहीं है तो वह अत्याचार के अतिरिक्त और कुछ नहीं है।
‘वे’ मुझसे अप्रसन्न, खिन्न और कुपित होकर लौटे इस बात का मुझे दुःख अवश्य है किन्तु अपने निर्णय पर मुझे रंचमात्र भी खेद नहीं है।
उनका अप्रसन्न होना छु गया.....जब तक वे अप्रसन्न नहीं होंगे तब तक वे अपने दायरे में कैसे आयेंगे..... आपका अनुभव हमें एक नया आत बल देगा इन मठाधीशो से लड़ने के लिए...... himanshu rai saxena
ReplyDeleteदान का अभिमान बड़ा ही तुच्छ जान पड़ता है, पुण्य पर ग्रहण जैसा।
ReplyDeleteदिखावा करनेवालों को भी मतलब भर के चमचे मिल रहे हों तो काम करने की ज़रूरत क्या है। और फिर काम में तो समय, श्रम, धन के साथ चिंतन-मनन भी लगता है, किसके पास इतना भेजा फाल्तू पड़ा है औरों के लिये। ऐसे लोग जिस दरवाज़े जायें, वहाँ कुपित किये जायें, तब भी समझने वाले नहीं।
ReplyDeleteएक दम सही विचारधारा. किसी एक कहानी में पढ़ा था की अरब का कोई बादशाह जब भी दान देता था तो उपर की ओर निगाए करके देता था, इस चक्कर मै वो किसी की शक्ल नहीं देख पता था. बड़ी हिम्मत करके उसके एक मुलाजिम ने पूछा की ये उपर के ओर निगाहे करके दान देना के पीछे कारण क्या है, आप तो ये भी नहीं देख पते की किसको दान दिया? बादशाह कहता है की मै तो उपर वाले का शुक्रिया देता हूँ की इतनी ताकत होने के बावजूद भी उसने अपने बन्दों की मदद के लिए मुझे चुना.
ReplyDeleteआपके 'वे' को और उन जैसे कई औरो को अपना नजरिया बदलना चाहिए, समझना चाहिए की वो सिर्फ और सिर्फ एक जरिया हैं. वर्ना दान तो पैसे से करेंगे लेकिन जितना करेंगे उतना ही दिमागी रूप से गरीब भी होंगे.
आपने बिलकुल उचित कदम लिया, 'वे' शायद इसे कभी ना समझ पायेंगे।
ReplyDeleteआपने बिलकुल उचित कदम लिया, 'वे' शायद इसे कभी ना समझ पायेंगे।
ReplyDeleteआपने बिलकुल उचित किया - यह गलत है ही | यह "दान" नहीं होता - यह "दाता" का अहम् पोषण होता है | जिसे सच में दान देना होता है - वे अकेले में - या anonymously भी कर सकते हैं !!!
ReplyDeleteBairagi ji ... Main aapki baat se puurntta hi sahmat hoon . mainey ek bar rotry club ke ex sammaroh meyn viklong jano ko trycycle baatney ke sammaroh meyn gaya tha.. vaha pr ek ek viklong ke sath rotariyan si ki patniyon das das bar photo khichvaa rahi thi .. mainey is baat pr manch se hi ghoor virodh kiya thaa .. tb se aise sammarohon me nahi jaata hooo. .... yeh english me type kr raha hooon kyoki hindi ho nahai pa rahi hai ...chma krna.
ReplyDelete@ Vishnukant Mishra
ReplyDeleteमुझे लगता है, ऐसे अनुभवधारियों की संख्या बहुत अधिक है किन्तु लिहाज में कोई भी बोलता नहीं। आपने मंच से अपनी असहमति व्यक्त की - यह सचमुच में साहसी और उल्लेखनीय बात है। ऐसे प्रसंग यदि निरन्तर होने लगें तो गरीबों का अपमान बन्द हो जाए। आपके आत्म बल को मैं नमन करता हूँ।
मेरी यह पोस्ट रतलाम से प्रकाशित होनेवाले साप्ताहिक उपग्रह में, मेरे स्तम्भ 'बिना विचारे' में प्रकाशित हुई थी। उस पर मन्दसौर के श्री वीरेन्द्र जैन की यह टिप्पणी प्राप्त हुई -
ReplyDeleteअसम्मान के बीज: (और) सम्मान की फसल।
वाह! वाह! विष्णु भाई, सार्थक रही पहल।।
छुटभैयों की श्रृंखला, तिकड़मबाजी कर्म।
समाचार छपते रहें, पहला उनका धर्म।।
दकियानूसी सोच पर, किया आपने वार।
कलम आपकी यूँ चली, जैसे तेज कटार।।
सीढ़ी दर सीढ़ी चढ़ै, लगे न कौड़ी दाम।
धन्धेबाजों के लिए, और नहीं कुछ काम।।
आत्मपरक लेखन नहीं, यह तो सच्ची सीख।
अपने फोटो छपवाकर, बाँट रहे वो भीख।।
‘बिना विचारे’ जो लिखा, बात बड़ी मन भाई।
‘उपग्रह’ अन्तिम पृष्ठ पर, अच्छी डाँट लगाई।।
ई-मेल से प्राप्त, बिलासपुर के श्रीयुत राहुलसिंहजी की टिप्पणी -
ReplyDelete''नेकी कर दरिया में डाल''.