‘गाड़ी ने लाड़ी देवा की नी वे’


‘लोक‘ जब बोलता है तो ‘गागर में सागर‘ भर देता है। दो पन्नों की बात दो शब्दों में बखान देता है। पर्दा बने रहने देता है और पर्दे के पीछे का सच उजागर कर देता है। कुछ इस तरह से बोलता है कि शरम बनी रह जाए और भरम टूट जाए।

मेरी बड़ी बहन गीता जीजी के निधनोपरान्त की उत्तरक्रियाओं का अन्तिम सोपान पूरा करने के लिए हम लोग, एक बार फिर, 7 दिसम्बर को निकुम्भ (जिला चित्तौड़गढ़, राजस्थान) में इकट्ठा थे। इस बार न केवल पूरा कुनबा अपितु हार-व्यवहार के लोग भी पहुँचे थे। अच्छा-खासा जमावड़ा था। ऐसे कई लोग थे जिन्हें मैं बरसों बाद देख रहा था। इन्हीं में एक था - बद्री दादा। मेरी मौसी का बेटा। वह, मन्दसौर जिले की गरोठ तहसील के गाँव चचावदा से आया था। ढाई-तीन सौ किलोमीटर की यह यात्रा उसने मोटर सायकिल से की थी। बरसों के अन्तराल ने हमें फौरन ही सहज नहीं होने दिया। लेकिन बहुत अधिक देर भी नहीं लगी। जल्दी ही हम दोनों ‘अपनीवाली’ पर आ गए। रतलाम से हम दोनों पति-पत्नी ही चले थे किन्तु नीमच से मेरा कक्षापाठी अर्जुन पंजाबी भी मिल गया - निर्धारित कार्यक्रमानुसार। एक दिन पहले ही उससे बात हो गई थी। बद्री दादा और हमारी बातों की दिशा मानो वही तय कर रहा था।

बातें चल ही रही थीं कि मेरा ध्यान बद्री दादा की फटफटी (मालवा के देहातों में मोटर सायकिल को अभी भी फटफटी कहा जाता है-यह जानकर मुझे आश्चर्य तो हुआ किन्तु अच्छा भी लगा) की तरफ गया। फटफटी पर लगी डिकी पर लिखा था (जो आपने भी पढ़ ही लिया होगा) - ‘मुझे माँगने पर बात खाली जावेगी।’ मैंने पूछा - ‘अब तो घर-घर में फटफटी है। कौन माँगता होगा जो आपको यह लिखवाने की जरूरत पड़ गई?’ मैंने सवाल मालवी में किया था सो जवाब भी मालवी में ही मिला - ‘माँगे तो कोई नी पण कदी कोई माँगे तो मुँडा ती नी नटणो पड़े। हामेंवारो खुद ई वाँची ने हमजी जावे।’ याने माँगता तो कोई नहीं किन्तु यदि कभी कोई माँगे तो मुझे इंकार करने की नौबत नहीं आती। माँगनेवाला पढ़कर खुद ही समझ जाता है। मैंने प्रति प्रश्न किया - ‘हामेंवारो भण्यो तको नी वे तो?’ याने सामनेवाला पढ़ा हुआ (शिक्षित) न हो तो? बद्री दादा तक पहुँचता उससे पहले ही अर्जुन ने मेरा सवाल बीच में ही लपक लिया। तनिक शरारत और दुष्टताभरी मुस्कुराहट से बोला - ‘हामेंवारो भण्योताके नी वेगा तो गण्योतको तो वेगा।’ अर्थात् सामनेवाला (फटफटी माँगनेवाला) पढ़ा हुआ (शिक्षित) भले ही नहीं होगा किन्तु ‘गुना हुआ’ (गुणी/समझदार) तो होगा। मैंने कहा - ‘मैं समझा नहीं।’

अर्जुन को शानदार मौका मिल गया मेरे मजे लेने का। मुझ पर तरस खाते हुए, बद्री दादा की तरफ देखता हुआ बोला - ‘‘यो विष्णु नी तो भण्यो तको हे ने नी गण्यो तको।’ याने - यह विष्णु न तो शिक्षित है न ही समझदार है। मुझे सचमुच में कुछ भी पल्ले नहीं पड़ा। बुड़बक या चिरकुट, ऐसी ही दशा में दोनों का मुँह देख रहा था। यह भी देख रहा था कि बरसों बाद मिला बद्री दादा भी मेरे मजे लेने में अर्जुन के साथ हो लिया था। अन्ततः, मानो मुझ पर ही नहीं, मेरी भावी पीढ़ियों पर भी उपकार कर रहा हो, कुछ इस तरह, बद्री दादा की तरफ देखते हुए अर्जुन बोला - ‘‘आक्खी दुनिया जाणे के ‘गाड़ी ने लाड़ी देवा की नी वे।’ जशी दो, पाछी, वशी की वशी नी मले। फरक पड़ी जा। पण या वात अणी विष्णु ने नी मालम।’ अर्थात् - सारी दुनिया जानती है कि ‘गाड़ी और लाड़ी (अर्थात् पत्नी) देने की नहीं होती। क्योंकि यदि दे दी तो जैसी दी थी, वैसी की वैसी वापस नहीं मिलती। दोनों की दशा में अन्तर आ जाता है। किन्तु यह बात इस विष्णु को नहीं मालूम।

बात तो हो रही थी हम तीनों में किन्तु तीनों तक सीमित नहीं थी। वे भी सुन रहे थे जो बातों में भाग नहीं ले रहे थे। सो, अर्जुन की बात सुनकर केवल बद्री दादा नहीं हँसा। आसपास बैठे कई लोग भी हँसे। बस, झेंपनेवाला मैं अकेला था।


इसके बाद कहने को क्या बाकी रह गया था?

2 comments:

  1. समाज में फैला ज्ञान शिक्षा से कहीं आगे है।

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