तीसरा वर

असम्मान का बीज: सम्मान की फसल शीर्षक मेरी पोस्ट, साप्ताहिक ‘उपग्रह’ में मेरे स्तम्भ ‘बिना विचारे’ में छपी तो आलेख पर, फोन पर मिली प्रशंसाभरी प्रतिक्रयाओं और टिप्पणियों ने मुझे बौरा दिया। यह मेरे लिए सर्वथा अकल्पनीय था। मुझे लगता रहा है कि भाई लोग पढ़कर, अखबार को चुपचाप एक ओर रख देते हैं, कहते-लिखते कुछ नहीं। किन्तु ‘कहने’ के मामले में, कृपालुओं ने मेरी यह धारणा इस बार तो ध्वस्त ही कर दी।


सब तो उल्लेखनीय है ही किन्तु इससे अधिक उल्लेखनीय यह है कि अधिकांश ने कहा/चाहा कि प्रचारार्थ किए जानेवाले, प्रदर्शनभरे ‘ऐसे सेवा कार्यों’ को लेकर मेरे पास यदि और कुछ हो तो मैं वह भी प्रस्तुत करूँ। इसका सीधा-सीधा एकमेव सन्देश यही है कि हममें से अधिकांश लोग, अमानवीय और गरीब तथा गरीबों का अपमान करनेवाले ऐसे आयोजनों को पसन्द नहीं करते।

चूँकि बात मेरी मानसिकता को समर्थन मिलने की है, इसलिए मैं एक संस्मरण प्रस्तुत कर रहा हूँ जो मेरे पहलेवाले आलेख को या तो पोंछ कर रख देगा या उसकी सान्द्रता बढ़ा देगा।


बात 1977 से 1980 के बीच की है। अन्तरराष्ट्रीय स्तर के एक सेवा संगठन ने अपना जिला अधिवेशन आयोजित किया था। तब, उस संगठन के जिले में तीन राज्य (मध्यप्रदेश, गुजरात और राजस्थान) शामिल हुआ करते थे। स्वर्गीय शिवमंगलसिंहजी ‘सुमन’ मुख्य अतिथि थे। सभागार खचाखच भरा हुआ था। कुर्सियों से बची खाली जगह पर भी लोग खड़ हुए थे।


कार्रवाई शुरु हुई और जैसा कि उस संगठन की परम्परा थी, कोई डेड़ घण्टे तक विभिन्न औपचारिकताएँ पूरी की गईं। इन्हीं में से एक थी - सुमनजी के हाथों, विकलांगों को पहियेदार कुर्सियाँ देना। जब भी किसी को ऐसी कुर्सी दी गई, तब प्रत्येक बार, उस कुर्सी के दानदाता का नाम उल्लेखित किया गया और विकलांग को वह कुर्सी सौंपते समय, चित्र खिंचवाने के लिए, सुमनजी और अन्य मंचासीन लोगों के साथ उस दानदाता को भी बुलवाया गया।


ऐसी सारी नीरस औपचारिकताएँ पूरी होने के बाद जब, उद्बोधन हेतु सुमनजी को आमन्त्रित किया गया तो स्वागत में बजी तालियों की गड़गड़ाहट के बाद सभागार में नीरव शान्ति व्याप्त हो गई - इतनी कि लोगों की साँसों की आवाजें साफ-साफ सुनी जा सकती थीं। सुमनजी के वक्तृत्व पर कोई टिप्पणी करना याने अपनी मूर्खता जताना होगा। फिर भी खुद को रोक पाना मेरे लिए सम्भव नहीं हो रहा। सुमनजी को जिसने भी सुना है वह इस बात से सहमत होगा कि सुमनजी अपने श्रोताओं को अपने साथ बहा ले जाते थे। वास्तविकता क्या होती थी, यह या तो सुमनजी जानें या भगवान किन्तु लगता था कि सुमनजी खुद को विसर्जित कर बोल रहे हैं। लगता था, वे शरीर नहीं, वाणी हो गए हैं और उनका रोम-रोम बोल रहा है। अपनी दोनों बाहें फैलाकर, अपनी गर्दन को जुम्बिश देकर, ललाट पर आई लट को झटक कर, अनन्त आकाश में देखते हुए जब वे अपनी कविता पंक्ति ‘जरा मशाल जलाओ, बड़ा अँधेरा है’ उच्चारते तो लगता, वे अपने श्रोताओं को सम्बोधित नहीं कर रहे, देवताओं को आदेश दे रहे हैं।


सुमनजी माइक पर आए। आयोजकों के प्रति सम्मान प्रकटीकरण का शिष्टाचार निभाया और बोले कि आने से पहले वे काफी कुछ सोच कर, तय करके आए थे कि यह बोलेंगे, वह बोलेंगे। किन्तु कार्रवाई और औपचारिकताओं को देखकर उन्हें एक किस्सा याद आ गया जिसे सबसे पहले सुनाना अब वे जरूरी समझ रहे हैं। किस्सा कुछ इस तरह था -


एक व्यक्ति को अतिसमृद्धि से वैराग्य हो गया और सब कुछ छोड़-छाड़कर वह जंगल में जाकर ईश्वर आराधना करने लगा। अपने स्मरण से प्रसन्न होकर भगवान उसके सामने साक्षात् प्रकट हो गए और कहा - ‘मैं तेरी भक्ति से प्रसन्न हूँ। माँग, जो कुछ तू माँगना चाहता है।’ ईश्वर को सामने देख कर वह व्यक्ति तो गद्गद हो गया। उसकी वाणी रुद्ध हो गई और प्रेमाश्रु बहने लगे। ईश्वर को अपलक निहारते हुए, रुँधे कण्ठ से बोला - ‘प्रभु! आपका दिया सब कुछ तो था मेरे पास! वह सब छोड़कर ही तो आपकी शरण में आया हूँ! मुझे तो कुछ भी नहीं चाहिए। और अब तो आपके साक्षात् दर्शन हो गए! अब और क्या चाहिए?’ ईश्वर उससे सहमत नहीं हुए और कहा कि उनकी तो पहचान ही यही है कि वे भक्तों पर प्रसन्न होकर उन्हें वर देते हैं। इसलिए, वह चाहे जो वर माँग ले। भक्त ने फिर से इंकार कर दिया। स्थिति यह हो गई कि इधर ईश्वर वर देने पर अड़े हुए और भक्त इंकार पर। अन्ततः ईश्वर ने कहा - ‘तू भले ही मत माँग। मैं अपनी ओर से तुझे दो वर देता हूँ। पहला वर यह कि जिस बीमार पर तेरी छाया पड़ेगी वह स्वस्थ हो जाएगा और दूसरा वर यह कि जिस मृत व्यक्ति को तू छू लेगा, वह जी उठेगा।’

वर देकर ईश्वर जाने लगे तो भक्त ने कहा - ‘मेरे माँगे बिना आपने दो वर दे दिए तो अब मुझे तीसरा वर चाहिए।’ ईश्वर ने हैरत से उसे देखा। बोले - ‘तू विचित्र आदमी है! जब मैंने कहा तब तो इंकार कर दिया और अब तीसरा वर माँग रहा है? कोई बात नहीं। बता। तू कौनसा वर चाहता है?’ व्यक्ति ने कहा - ‘प्रभु! आपके दिए वरदानों के प्रभाव से यदि मेरे हाथों से वैसा ही हो जाए जैसा कि आपने कहा है, तो मुझे तीसरा वर यह दीजिए कि ऐसा किया हुआ मुझे याद न रहे।’ सुनकर प्रभु परम् प्रसन्न हुए और ‘तथास्तु’ कह कर अन्तर्ध्यान हो गए।


किस्सा सुना कर सुमनजी तनिक रुके। सभागार में बैठे/खड़े श्रोताओं पर भरपूर नजर डाली और तनिक व्यथित किन्तु धीर-गम्भीर स्वरों में बोले - ‘हे! समाज सेवकों!! आप तीसरा वर कब माँगेंगे?’ सुमनजी की बात समाप्त होते ही तालियों की गड़गड़ाहट ऐसी हुई, लगा कि सभागार की दीवारें भरभरा कर गिर पड़ेंगी और सुमनजी का सवाल, सैलाब बन कर पूरी बस्ती को अपने साथ बहा ले जाएगा। तालियाँ बजाने में वे भी शरीक थे जो दान का बखान कर रहे थे, करवा रहे थे और विकलांगों के साथ फोटू खिंचवा रहे थे।


मैं इस घटना का प्रत्यक्षदर्शी था। सुमनजी के सवाल ने (और उससे अधिक उनकी वाणी में व्याप्त व्यथा ने) मुझे लील लिया था। बैठ पाना मेरे लिए सम्भव नहीं रह गया था। अपने कुर्ते की बाँहों से अपनी आँखें पोंछता हुआ मैं बाहर चला आया। मुझे नहीं पता, उसके बाद आगे क्या हुआ।

5 comments:

  1. तीसरा वर! वाकई विचारणीय बात है. अगर हमारा उद्देश्य प्रचार के बजाय समस्या निवारण होता तो दुनिया कब की स्वर्ग बन गयी होती. आपका हार्दिक आभार इस संस्मरण और कथा के लिए.

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  2. तीसरा वर निस्पृहता से आता है, धन तो आ जाता है यह गुण आते आते ही आता है।

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  3. तीसरा वर कठोर आत्मसंयम की बात है , प्रशंसा के लोभ से बच पाना कहाँ इतना आसान है !

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  4. तीसरा वर आज के सेवक नहीं मांगते और मांगने वाले को बेवकूफ़ समझते है। वर्ना, समाज सेवा के नाम पर उनकी तोंद कैसे बढ़ने लगी है?????

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  5. भावुकता पूर्ण आपका यह संस्मरण इधर भी अपना असर कर ही गया.

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