ऐसा कहीं और हुआ हो तो बताइएगा



डाक के डिब्बे में पत्र डालने के तीसरे ही दिन, भारत के किसी भी कोने में पत्र पहुँचा देना, किसी जमाने में भारतीय डाक विभाग की पहचान हुआ करता था। आज की दुर्दशा किसी से छिपी नहीं है।किन्तु यहाँ जो उदाहरण प्रस्तुत है, वह दुनिया में अब तक तो कहीं भी देखने को नहीं मिला है और लगता नहीं कि कभी देखने को मिलेगा भी।



नष्टप्रायः हो चुकी हमारी डाक सेवाओं को लेकर मैं एक पोस्ट की तैयारी कर ही रहा था कि आदरणीय डॉक्टर जयकुमारजी जलज ने मुझे फोन कर एक सूचना दी। मेरी पोस्ट जल्दी ही प्रस्तुत करूँगा किन्तु पहले जलजजी की सूचना।



डाक विभाग की कार्यकुशलता का विचित्र उदाहरण। इस चित्र को ध्‍यान से दखिए। यह पत्र परसों, 22 दिसम्‍बर को प्रात: 10.58 पर कोटा (राजस्‍थान) भेजने के लिए रतलाम मुख्‍य डाकघर को सौंपा गया था। यहॉं दिए ट्रेकिंग ब्‍यौरे के मुताबिक यह पत्र रतलाम से इन्‍दौर, मुम्‍बई, जयपुर होते हुए 24 दिसम्‍बर को दोपहर 13.47 पर कोटा के लिए भेज दिया गया किन्‍त इस समय, जबकि 24 दिसम्‍बर की रात के साढे आठ भी नहीं बजे हैं, यही पत्र जयपुर में, आज आधी रात को 1.26 बजे इस पत्र वाला डाक का थैला प्राप्‍त कर खोल लिया गया है और पत्र जयपुर डाक घर में प्राप्‍त कर लिया गया है। चित्र के बॉंये कोने के शीर्ष पर, यह ब्‍यौरा छापने का दिनांक 24 दिसम्‍बर 2011 साफ देखा जा सकता है।



कहने को और क्या बाकी रह जाता है!

4 comments:

  1. ऐसा तो शायद होता रहता है, लेकिन इसकी चर्चा नहीं होती.

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  2. अति कुशलता? भविष्य की सेवा? :)

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  3. सही जगह पहुँचा तो गलत क्यों दिखाया..

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  4. अभी गायब तो नहीं हुआ है. तसल्ली रखें पहुँच ही जाएगा (कभी न कभी). एक बार अप्ते कार्यालय की बेहद पुरानी फाइलों को देख रहा था तब पाया की जबलपुर से १ तारीख को चली चिट्ठी बम्बई में २ तारीख को वहां के कार्यालय में प्राप्त हो चुकी थी जिसका सन्दर्भ देते हुए उस पत्र का उत्तर प्राप्त हुआ था ४ तारीख को. उस पत्र पर प्राप्ति का दिनांक मुद्रांकित था. यह केवल एक पत्र की बात नहीं थी. अमूमन सभी पत्रों से उस समय की कार्यालयीन दक्षता प्रमाणित हो रही थी. बात सन १९३६ की थी.

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