हम चार लोग एक निजी अस्पताल के प्रतीक्षालय में बैठे थे। ‘उनकी’ गर्भवती बहू भर्ती थी। उसे सातवाँ महीना चल रहा था। वह अचानक ही पलंग से गिर पड़ी। फौरन अस्पताल लाया गया। मुझे खबर मिली तो मैं भी पहुँच गया। ‘वे‘ चिन्तित और व्याकुल थे। मैंने हालचाल जानना चाहा तो बोले - ‘अभी-अभी अस्पताल आए हैं। डॉक्टर देख रही हैं। वे बाहर आएँ तो कुछ मालूम पड़े।’
ऐसे समय पल-पल भारी पड़ता है। प्रतीक्षा प्राणलेवा हो जाती है। समय काटे नहीं
कटता। हम चारों भी चुप थे - एम दूसरे को देखते हुए। बात करते भी तो क्या?
थोड़ी ही देर में डॉक्टर बाहर आईं और ‘उन्हें‘ अपने पीछे आने का इशारा करते हुए अपने परामर्श कक्ष में चली गईं। वे भागे-भागे डॉक्टर के साथ ही कमरे में घुसे। दो-ढाई मिनिटों में बाहर आए। चेहरे पर उलझन, चिन्ता, घबराहट, परेशानी। आँखों में दहशत। हम कुछ पूछते उससे पहले ही बोले - ‘गड़बड़ हो गई है। गर्भपात की सम्भावना लग रही है। डॉक्टर पूरी कोशिश करने की कह जरूर रही हैं लेकिन इशारों-इशारों में गर्भपात की सम्भावना बता रही हैं।’
थोड़ी ही देर में डॉक्टर बाहर आईं और ‘उन्हें‘ अपने पीछे आने का इशारा करते हुए अपने परामर्श कक्ष में चली गईं। वे भागे-भागे डॉक्टर के साथ ही कमरे में घुसे। दो-ढाई मिनिटों में बाहर आए। चेहरे पर उलझन, चिन्ता, घबराहट, परेशानी। आँखों में दहशत। हम कुछ पूछते उससे पहले ही बोले - ‘गड़बड़ हो गई है। गर्भपात की सम्भावना लग रही है। डॉक्टर पूरी कोशिश करने की कह जरूर रही हैं लेकिन इशारों-इशारों में गर्भपात की सम्भावना बता रही हैं।’
यही सुनकर पहले तो मैं चौंका था फिर मुझे थोड़ा गुस्सा आया था और फिर मैं मुस्कुरा दिया था - भला ‘गर्भपात’ भी ‘सम्भावना’ हो सकता है?
इसमें ‘उनका‘ कोई दोष नहीं। जैसा वे पढ़ते-सुनते हैं, वैसा ही तो बोलते हैं! ऐसा बोलनेवाले वे अकेले नहीं हैं। भाषा के प्रति सामूहिक, सहज असावधानी के कारण ऐसा होना कोई आश्चर्य की बात नहीं। अच्छे-भले, पढ़े-लिखे, समझदार लोग ही जब ऐसी असावधानी बरतते हों तो ‘वे‘ तो कम पढ़े-लिखे हैं! उन पर क्या गुस्सा करना?
मुझे याद आया, देश के तेरह राज्यों से चौंसठ संस्करण प्रकाशित करनेवाले, देश के सबसे बड़े समाचार पत्र समूह के दैनिक अखबार के स्थानीय संस्करण में, बहत्तर प्वाइण्ट टाइप में, चार कॉलम शीर्षक समाचार छपा था - ‘डाट की पुलिया पर दुर्घटना की सम्भावना।’ मेरे मित्र का पुत्र ही स्थानीय संस्करण का सम्पादक था। मेरे मित्र खुद तो हिन्दी में पी. एच-डी. हैं ही, उनके निर्देशन में दस-बीस बच्चे पी. एच-डी. कर चुके हैं। उनका सम्पादक बेटा भी हिन्दी में ही पी. एच-डी. है। शीर्षक पढ़कर मैंने उसे फोन लगाया और पूछा - ‘क्या अब दुर्घटना भी सम्भावना बन गई है?’ उसने अविलम्ब, तत्क्षण उत्तर दिया - ‘हाँ अंकल।’ मैंने प्रतिप्रश्न किया - ‘तो भाई मेरे! क्या शान्ति कायम होने की आशंका पैदा हो गई है?’ अब बात उसकी समझ में आई। उसने क्षमा याचना की और कहा - ‘अंकल! सच में मेरा ध्यान इस ओर गया ही नहीं। अब भूल नहीं होगी और आपको शिकायत का मौका नहीं मिलेगा।’
तो, जहाँ हिन्दी में पी. एचडी. उपाधिधारी सम्पादक दुर्घटना को सम्भावना मान ले वहाँ एक सामान्य व्यक्ति से क्या अपेक्षा और क्या शिकायत? भाषा संस्कार देना जिनकी आधारभूत जिम्मेदारी हो, जब वे ही सम्भावना और आशंका का अन्तर मिटा दें तो हिन्दी की ‘दशा’ की कल्पना आसानी से की जा सकती है।
यह सब लिखते-लिखते अचानक ही याद आया कि इसी अखबार ने एक पुस्तक समीक्षा में, अभी-अभी ही ‘युध्द’ को ‘भयानक सम्भावना’ बताया था जिसे मैंने फेस बुक के अपने पन्ने पर चिपकाया था। उसे, यहाँ भी प्रस्तुत कर रहा हूँ। खुद ही देख लीजिए और हिन्दी को बचाने के लिए युध्द की सम्भावना पर विचार कीजिए।
मेरे मति भ्रष्ट हो जाने की सम्भावना की आशंका है. :-)
ReplyDeleteभयानक शब्द गुजरात से आयातित है जैसे भयानक बारिश हो रही है ।
ReplyDeleteआशंका संभावना कब से हो गयी?
ReplyDeleteआप पोस्ट लिखते है तब हम जैसो की दुकान चलती है इस लिए आपकी पोस्ट की खबर हमने ली है 'ब्लॉग बुलेटिन' पर - पधारें - और डालें एक नज़र - सिर्फ़ सरकार ही नहीं लतीफे हम भी सुनाते है - ब्लॉग बुलेटिन
ReplyDeleteसावधानी आवश्यक है.
ReplyDeleteजी, जब आपने याद दिलाया, तभी इस बात पर ध्यान गया (लेकिन मैं तो लम्बे समय से दैनन्दिन भारतीय भाषा और साहित्य से कटा हुआ सा हूँ)
ReplyDeleteऐसा ही है बेफिज़ूल। अब जो यूं ही फिज़ूल है उस में बे क्यों लगाना।
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