बदनाम होने की अद्भुत निर्दोष (?) कामना

भारतीय जीवन बीमा निगम के अभिकर्ताओं के एकमात्र राष्ट्रीय संगठन ‘लियाफी’ (लाइफ इंश्योरेंस एजेण्ट्स फेडरेशन ऑफ इण्डिया) की एक महत्वपूर्ण बैठक में भाग लेने हेतु, रविवार 18 दिसम्बर को मैं जयपुर में था। वहीं मेरी भेंट श्री राधेश्यामजी श्रीवास्तव से हुई। उनसे मेरी यह पहली ही परिचय-भेंट थी। बातों ही बातों में उन्होंने ऐसी कथा सुनाई जिसकी भूमिका बनाने का मेरा प्रत्येक प्रयास असफल हो गया है। इसलिए सारी बात इन्हीं से सुनिए -


‘‘मेरा नाम राधेश्याम श्रीवास्तव है। इस समय मेरी आयु 71 वर्ष है। जब मैं आठवीं कक्षा में था तब, तेरह वर्ष की आयु में मैंने ‘पटवारी परीक्षा’ पास कर ली थी। किन्तु नाबालिग होने के कारण नौकरी नहीं मिल सकती थी। मुझे नौकरी मिली 1964 में। मैं राजस्व विभाग में नौकरी चाहता था किन्तु मिली सिंचाई विभाग में। नौकरी पक्की होते ही मैंने मेरी नौकरी राजस्व विभाग में स्थानान्तरण हेतु आवेदन दे दिया। किन्तु सुनवाई नहीं हुई। मैं बराबर कोशिशें करता रहा। आखिरकार ग्यारह बरस बाद, राज्यपाल के हस्तक्षेप से मुझे राजस्व विभाग में स्थानान्तरित तो कर दिया गया किन्तु विभाग मुझे रीलीव करने में टालमटूली करने लगा। उस जमाने में ग्यारह बरसों का अनुभव मायने रखता था। सो, सिंचाई विभाग मुझे छोड़ने को तैयार नहीं था। मैं कलेक्टर साहब की शरण में गया। शायद मेरी सीधी-सपाट बातों ने कलेक्टर साहब को प्रभावित किया। उन्होंने भूख हड़ताल पर बैठने की सलाह दी। मैं घबरा गया और कहा कि मैं भूख हड़ताल पर बैठ तो जाऊँगा किन्तु कहीं ऐसा न हो कि आप ही मुझे गिरफ्तार करवा दें। कलेक्टर साहब ने वादा किया कि वे मेरा काम भले ही न कर पाएँ किन्तु मुझे गिरफ्तार नहीं करेंगे। रामजी का नाम लेकर मैं भूख हड़ताल पर बैठ गया। कलेक्टर साहब ने हर घण्ट में सिंचाई विभाग के अफसरों से पूछताछ करनी शुरु कर दी। अन्ततः आठ घण्टों की भूख हड़ताल के बाद मुझे रीलीव कर दिया गया।

‘‘अब मैं राजस्व विभाग का कर्मचारी था। चूँकि मैं पटवारी परीक्षा पास था, इसलिए मुझे पटवारी बना कर एक हलके का प्रभार सौंप दिया गया। अपनी मुराद पूरी होने से उपजी प्रसन्नता से लबालब होकर मैं उत्साहपूर्वक ‘हलका पटवारी’ के काम पर लग गया।


‘‘पटवारियों की ‘ऊपरी आय’ के बारे में मैंने काफी कुछ सुना था किन्तु मेरा अनुभव तो कुछ और ही कह रहा था! जल्दी ही मुझे समझ में आ गया कि मेरा हलका वैसा नहीं है जो मुझे मेरे पटवारी होने की अनुभूति करा सके। मैंने कलेक्टर साहब को अन्तरदेशीय पत्र लिखा कि जिन बातों के लिए कोई पटवारी पहचाना जाता है और बदनाम होता है, मैं भी उसी तरह पहचाना और बदनाम होना चाहता हूँ ताकि अपने बच्चों को ढंग से पालपोस सकूँ और पढ़ा सकूँ।

‘‘उन दिनों आज जैसी दुर्दशा नहीं थी। कोई भी पत्र तीन दिनों में देश के किसी भी कोने में पहुँच जाया करता था। चौथे ही दिन मुझे कलेक्टर साहब के सामने हाजिर होने का फरमान मिला। मैं हाजिर हुआ। कलेक्टर साहब ने मेरा लिखा अन्तरदेशीय पत्र मुझे दिखाकर पूछा कि वह पत्र मैंने ही लिखा है या किसी और ने? मेरे हाँ भरने पर कलेक्टर साहब ने कहा - ‘जानते हो! इस पत्र के कारण तुम बर्खास्त किए जा सकते हो!’ मैंने कहा कि इसका अंजाम मैं जानता हूँ लेकिन बर्खास्त होने पर भी मुझे कोई विशेष फर्क नहीं पड़ेगा क्योंकि मैं तो अभी भी बर्खास्त जैसी ही स्थिति में हूँ। मेरी सीधी-सपाट बात पर कलेक्टर साहब इस बार भी पसीज गए। भू अभिलेख विभाग के अधीक्षक (सुपरिटेण्डेण्ट, लेण्ड रेकार्ड्स) को बुलाकर कहा कि मुझे किसी, ढंग के पटवारी हलके में ट्रांसफर कर दें। उन्होंने एक खाली हलके का नाम बताया और कहा कि उस हलके में तैनाती के लिए पटवारियों में बोली लगती है। कलेक्टर साहब ने कहा कि मुझे उसी हलके का पटवारी बना दिया जाए।


‘‘मुझे ‘उसी’ हलके का पटवारी बना दिया गया। मैंने कलेक्टर साहब को धन्यवाद दिया। नए हलके का चार्ज लिया और काम में लग गया। यह हलका पहलेवाले हलके से एकदम उलटा था। पहलेवाले में कोई गुंजाइश ही नहीं थी जबकि इसवाले में मुझे कहने की भी जरूरत नहीं पड़ती थी। मेरे कुछ कहे बिना ही मेरी जरूरतें पूरी हो जाती थीं। यह देखकर मैंने निर्णय लिया कि मैं अपनी ओर से किसी से कुछ नहीं माँगूँगा।

‘‘उस हलके में रहते हुए मैं अपने इस निर्णय पर कायम रहा। कलेक्टर साहब बीच-बीच में जब भी दौरे पर आते तो पूछताछ करते और मेरी स्थिति देखकर कहते कि गलत आदमी को ऐसे हलके में तैनात कर दिया। किन्तु वे इस बात पर बहुत प्रसन्न थे कि मेरे हलके से एक भी शिकायत उनके सामने नहीं पहुँची।


‘‘मैंने अपनी बाकी नौकरी उसी हलके में काम करते हुए पूरी की। वहीं से सेवा निवृत्त हुआ। किन्तु पूरे सेवाकाल में मेरी एक भी शिकायत नहीं हुई। हाँ, मेरे तमाम साथी पटवारी मुझ पर हँसते रहे कि मैंने मौके का फायदा नहीं उठाया। सेवा निवृत्ति के बाद जब अपने घर लौटा तो मेरे सामान में ऐसा कुछ भी नहीं था जिसे देखकर कोई कह पाता कि यह किसी रिटायर्ड पटवारी का सामान है।


‘‘यह ‘उन’ कलेक्टर साहब की कृपा और ‘उस’ हलके के निवासियों की शुभ-कामनाओं का ही प्रताप रहा कि मैंने अपने बच्चों को ढंग-ढांग से पढ़ा पाया। बेटी की शादी बिना किसी विघ्न के सम्पन्न हो गई। दोनों बेटे पढ़-लिख कर ऐसे हो गए हैं कि प्रतिष्ठापूर्वक कमा-खा रहे हैं। ‘‘मैं, मेरी सहचरी और बेटे-बहू-पोते के साथ, सुखपर्वूक सेवा निवृत्त जीवन जी रहा हूँ।’’


राधेश्यामजी की कथा सुनकर मुझे सूझ ही नहीं पड़ा कि मैं क्या कहूँ। कभी जोर से हँसी आ रही थी तो कभी अचानक ही गम्भीर हुआ जा रहा था। मैंने पूछा - ‘आपके घरवालों को पता है यह सब?’ निर्विकार भाव से राधेश्यामजी बोले - ‘सबको पता है और खूब अच्छी तरह पता है। एक बार नहीं, कई बार सुना चुका हूँ यह सब मैं अपने घरवालों को।’


सुनकर मैंने घर के सब लोगों को देखा। किसी का ध्यान हमारी ओर नहीं था। ‘सुनी-सुनाई और ‘घिसी-पिटी’ इस कहानी में किसी को कोई दिलचस्पी नहीं थी। सब सामान्य और सहज रूप से अपना-अपना काम कर रहे थे। बस! एक मैं ही था जिसका मुँह अचरज से खुला हुआ था।

3 comments:

  1. ईमानदारी के सबके अपने आकाश, सबके अपने बादल, अपनी अपनी छाया।

    ReplyDelete
  2. सन्न करने वाली ईमानदारी की ईमानदार अभिव्यक्ति !

    ReplyDelete
  3. ई'मेल से प्राप्‍त, बिलासपुर के श्रीयुत राहुलसिंहजी की टिप्‍पणी -

    कमेंट बाक्‍स पर टिप्‍पणी स्‍वीकार नहीं हो रही है, सो यहां-
    यहां भी सपना-सा ही लग रही है पटवारी की नौकरी, वैसे पहला हलका छोड़ा क्‍यों, दूसरे में आए क्‍यों, विभाग बदलने का इतना आग्रह क्‍यों, जैसे प्रश्‍न बने रह गए.

    ReplyDelete

आपकी टिप्पणी मुझे सुधारेगी और समृद्ध करेगी. अग्रिम धन्यवाद एवं आभार.